अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।12.9।।
।।12.9।।अगर तू मनको मेरेमें अचलभावसे स्थिर (अर्पण) करनेमें समर्थ नहीं है? तो हे धनञ्जय अभ्यासयोगके द्वारा तू मेरी प्राप्तिकी इच्छा कर।
।।12.9।। व्याख्या -- अथ चित्तं समाधातुं ৷৷. मामिच्छाप्तुं धनञ्जय -- यहाँ चित्तम् पदका अर्थ मन है। परन्तु इस श्लोकका पीछेके श्लोकमें वर्णित साधनसे सम्बन्ध है? इसलिये चित्तम् पदसे यहाँ मन और बुद्धि दोनों ही लेना युक्तिसंगत है।भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि अगर तू मनबुद्धिको मेरेमें अचलभावसे स्थापित करनेमें अर्थात् मेरे अर्पण करनेमें अपनेको असमर्थ मानता है? तो अभ्यासयोगके द्वारा मेरेको प्राप्त करनेकी इच्छा कर।अभ्यास और अभ्यासयोग पृथक्पृथक् हैं। किसी लक्ष्यपर चित्तको बारबार लगानेका नाम अभ्यास है और समताका नाम योग है। समता रखते हुए अभ्यास करना ही अभ्यासयोग कहलाता है। केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे किया गया भजन? नामजप आदि अभ्यासयोग है।अभ्यासके साथ योगका संयोग न होनेसे साधकका उद्देश्य संसार ही रहेगा। संसारका उद्देश्य होनेपर स्त्रीपुत्र? धनसम्पत्ति? मानबड़ाई? नीरोगता? अनूकूलता आदिकी अनेक कामनाएँ उत्पन्न होंगी। कामनावाले पुरुषकी क्रियाओंके उद्देश्य भी (कभी पुत्र? कभी धन? कभी मानबड़ाई आदि) भिन्नभिन्न रहेंगे (गीता 2। 41)। इसलिये ऐसे पुरुषकी क्रियामें योग नहीं होगा। योग तभी होगा? जब क्रियामात्रका उद्देश्य (ध्येय) केवल परमात्मा ही हो।साधक जब भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य रखकर बारबार नामजप आदि करनेकी चेष्टा करता है? तब उसके मनमें दूसरे अनेक संकल्प भी पैदा होते रहते हैं? अतः साधकको मेरा ध्येय भगवत्प्राप्ति ही है -- इस प्रकारकी दृढ़ धारणा करके अन्य सब संकल्पोंसे उपराम हो जाना चाहिये।मामिच्छाप्तुम् पदोंसे भगवान् अभ्यासयोग को अपनी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताते हैं।पीछेके श्लोकमें भगवान्ने अपनेमें मनबुद्धि अर्पण करनेके लिये कहा। अब इस श्लोकमें अभ्यासयोगके लिये कहते हैं। इससे यह धारणा हो सकती है कि अभ्यासयोग भगवान्में मनबुद्धि अर्पण करनेका साधन है अतः पहले अभ्यासके द्वारा मनबुद्धि भगवान्के अर्पण होंगे? फिर भगवान्की प्राप्ति होगी। परन्तु मनबुद्धिको अर्पण,करनेसे ही भगवत्प्राप्ति होती हो? ऐसा नियम नहीं है। भगवान्के कथनका तात्पर्य यह है कि यदि उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही हो अर्थात् उद्देश्यके साथ साधककी पूर्ण एकता हो तो केवल अभ्याससे ही उसे भगवत्प्राप्ति हो जायगी।जब साधक भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे बारबार नामजप? भजनकीर्तन? श्रवण आदिका अभ्यास करता है? तब उसका अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है और भगवत्प्राप्तिकी इच्छा जाग्रत् हो जाती है। सांसारिक सिद्धअसिद्धिमें सम होनेपर भगवत्प्राप्तिकी इच्छा तीव्र हो जाती है। भगवत्प्राप्तिकी तीव्र इच्छा होनेपर भगवान्से मिलनेके लिये व्याकुलता पैदा हो जाती है। यह व्याकुलता उसकी अवशिष्ट सांसारिक आसक्ति एवं अनन्त जन्मोंके पापोंको जला डालती है। सांसारिक आसक्ति तथा पापोंका नाश होनेपर उसका एकमात्र भगवान्में ही अनन्य प्रेम हो जाता है और वह भगवान्के वियोगको सहन नहीं कर पाता। जब भक्त भगवान्के बिना नहीं रह सकता? तब भगवान् भी उस भक्तके बिना नहीं रह सकते अर्थात् भगवान् भी उसके वियोगको नहीं सह सकते और उस भक्तको मिल जाते हैं।साधकको भगवत्प्राप्तिमें देरी होनेका कारण यही है कि वह भगवान्के वियोगको सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जाय? तो भगवान्के मिलनेमें देरी नहीं होगी। भगवान्की देश? काल? वस्तु? व्यक्ति आदिसे दूरी है ही नहीं। जहाँ साधक है? वहाँ भगवान् हैं ही। भक्तमें उत्कण्ठाकी कमीके कारण ही भगवत्प्राप्तिमें देरी होती है। सांसारिक सुखभोगकी इच्छाके कारण ही ऐसी आशा कर ली जाती है कि भगवत्प्राप्ति भविष्यमें होगी। जब भगवत्प्राप्तिके लिये व्याकुलता और तीव्र उत्कण्ठा होगी? तब सुखभोगकी इच्छाका स्वतः नाश हो जायगा और वर्तमानमें ही भगवत्प्राप्ति हो जायगी।साधकका यदि आरम्भसे ही यह दृढ़ निश्चय हो कि मेरेको तो केवल भगवत्प्राप्ति ही करनी है (चाहे लौकिक दृष्टिसे कुछ भी बने या बिगड़े) तो कर्मयोग? ज्ञानयोग या भक्तियोग -- किसी भी मार्गसे उसे बहुत जल्दी भगवत्प्राप्ति हो सकती है।