अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।13.12।।
।।13.12।। अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन? यह सब तो ज्ञान कहा गया है? और जो इससे विपरीत है? वह अज्ञान है।।
।।13.12।। ज्ञान को दर्शाने वाले इस प्रकरण के इस अन्तिम श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण दो और गुणों को बताते हैं अध्यात्म ज्ञान में स्थिरता? तथा तत्त्वज्ञानार्थ का दर्शन।आत्मज्ञान में स्थिरता आत्मज्ञान जीवन में अनुभव करके जीने का विषय है? केवल बुद्धि से सीखने का नहीं। यदि आत्मा ही एक सर्वव्यापी पारमार्थिक सत्य है? तब साधक को अपने व्यक्तित्व के सभी स्तरों पर आत्मदृष्टि से रहने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वयं को आत्मा जानकर? उसी बोध में स्थित होकर साधक को अपने जीवन के समस्त व्यवहार करने चाहिये। इसके लिये सतत अभ्यास की आवश्यकता होती है।तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् अमानित्वादि गुणों का विकास जिसके निमित्त करने को कहा गया है? वह है तत्त्वज्ञान और उस तत्त्वज्ञान के अर्थ का जो लक्ष्य है ? उसका दर्शन करना। संसार बन्धनों की उपरामता अर्थात् मोक्ष ही वह लक्ष्य है। लक्ष्य का सतत स्मरण करते रहने से साधनाभ्यास में प्रवृत्ति और उत्साह बना रहता है? जो लक्ष्यप्राप्ति में साहाय्यकारी सिद्ध होता है। इस प्रकरण में इन बीस गुणों को ही ज्ञान कहा गया है? क्योंकि ये समस्त गुण आत्मसाक्षात्कार के लिए अनुकूल हैं।उपर्युक्त ज्ञान के द्वारा जानने योग्य ज्ञेय वस्तु क्या है इसके उत्तर में कहते हैं