ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।13.13।।
।।13.13।।(टिप्पणी प0 687.1) जो ज्ञेय है? उस(परमात्मतत्त्व) को मैं अच्छी तरहसे कहूँगा? जिसको जानकर मनुष्य अमरताका अनुभव कर लेता है। वह (ज्ञेयतत्त्व) अनादि और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है।
।।13.13।। मैं उस ज्ञेय वस्तु को स्पष्ट कहूंगा जिसे जानकर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त करता है। वह ज्ञेय है अनादि? परम ब्रह्म? जो न सत् और न असत् ही कहा जा सकता है।।
।।13.13।। व्याख्या -- ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि -- भगवान् यहाँ ज्ञेय तत्त्वके वर्णनका उपक्रम करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं कि जिसकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है? जिसका वर्णन उपनिषदों? शास्त्रों और ग्रन्थोंमें किया गया है? उस प्रापणीय ज्ञेय तत्त्वका मैं अच्छी तरहसे वर्णन करूँगा।ज्ञेयम् (अवश्य जाननेयोग्य) कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जितने भी विषय? पदार्थ? विद्याएँ? कलाएँ आदि हैं? वे सभी अवश्य जाननेयोग्य नहीं हैं। अवश्य जाननेयोग्य तो एक परमात्मा ही है। कारण कि सांसारिक विषयोंको कितना ही जान लें? तो भी जानना बाकी ही रहेगा। सांसारिक विषयोंकी जानकारीसे जन्ममरण भी नहीं मिटेगा। परन्तु परमात्माको तत्त्वसे ठीक जान लेनेपर जानना बाकी नहीं रहेगा। सांसारिक विषयोंकी जानकारीसे जन्ममरण भी नहीं मिटेगा। परन्तु परमात्माको तत्त्वसे ठीक जान लेनेपर जानना बाकी नहीं रहेगा और जन्ममरण भी मिट जायगा। अतः संसारमें परमात्माके सिवाय जाननेयोग्य दूसरा कोई है ही नहीं।यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते -- उस ज्ञेय तत्त्वको जाननेपर अमरताका अनुभव हो जाता है अर्थात् स्वतःसिद्ध तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है? जिसकी प्राप्ति होनेपर जानना? करना? पाना आदि कुछ भी बाकी नहीं रहता।वास्तवमें स्वयं पहलेसे ही अमर है? पर उसने मरणशील शरीरादिके साथ एकता करके अपनेको जन्मनेमरनेवाला मान लिया है। परमात्मतत्त्वको जाननेसे यह भूल मिट जाती है और वह अपने वास्तविक स्वरूपको पहचान लेता है अर्थात् अमरताका अनुभव कर लेता है।अनादिमत् -- उससे यावन्मात्र संसार उत्पन्न होता है? उसीमें रहता है और अन्तमें उसीमें लीन हो जाता है। परन्तु वह आदि? मध्य और अन्तमें ज्योंकात्यों विद्यमान रहता है। अतः वह अनादि कहा जाता है।परं ब्रह्म -- ब्रह्म प्रकृतिको भी कहते हैं? वेदको भी कहते हैं? पर परम ब्रह्म तो एक परमात्मा ही है। जिससे बढ़कर दूसरा कोई व्यापक? निर्विकार? सदा रहनेवाला तत्त्व नहीं है? वह परम ब्रह्म कहा जाता है।न सत्तन्नासदुच्यते -- उस तत्त्वको सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते। कारण कि असत्की भावना(सत्ता) के बिना उस परमात्मतत्त्वमें सत् शब्दका प्रयोग नहीं होता? इसलिये उसको सत् नहीं कह सकते और उस परमात्मतत्त्वका कभी अभाव नहीं होता? इसलिये उसको असत् भी नहीं कह सकते। तात्पर्य है कि उस परमात्मतत्त्वमें सत्असत् शब्दोंकी अर्थात् वाणीकी प्रवृत्ति होती ही नहीं -- ऐसा वह करणनिरपेक्ष तत्त्व है।जैसे पृथ्वीपर रात और दिन -- ये दो होते हैं। इनमें भी दिनके अभावको रात और रातके अभावको,दिन कह देते हैं। परन्तु सूर्यमें रात और दिन -- ये दो भेद नहीं होते। कारण कि रात तो सूर्यमें है ही नहीं और रातका अत्यन्त अभाव होनेसे सूर्यमें दिन भी नहीं कह सकते क्योंकि दिन शब्दका प्रयोग,रातकी अपेक्षासे किया जाता है। यदि रातकी सत्ता न रहे तो न दिन कह सकते हैं? न रात। ऐसे ही सत्की अपेक्षासे असत् शब्दका प्रयोग होता है और असत्की अपेक्षासे सत् शब्दका प्रयोग होता है। जहाँ परमात्माको सत् कहा जाता है? वहाँ असत्की अपेक्षासे ही कहा जाता है। परन्तु जहाँ असत्का अत्यन्त अभाव है? वहाँ परमात्माको सत् नहीं कह सकते और जो परमात्मा निरन्तर सत् है? उसको असत् नहीं कह सकते। अतः परमात्मामें सत् और असत् -- इन दोनों शब्दोंका प्रयोग नहीं होता। जैसे सूर्य दिनरात दोनोंसे विलक्षण केवल प्रकाशरूप है? ऐसे ही वह ज्ञेय तत्त्व सत्असत् दोनोंसे विलक्षण है (टिप्पणी प0 687.2)।दूसरी बात? सत्असत्का निर्णय बुद्धि करती है और ऐसा कहना भी वहीं होता है? जहाँ वह मन? वाणी और बुद्धिका विषय होता है। परन्तु ज्ञेय तत्त्व मन? वाणी और बुद्धिसे सर्वथा अतीत है अतः उसकी सत्असत् संज्ञा नहीं हो सकती। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें वह तत्त्व न सत् कहा जा सकता है? न असत् -- ऐसा कहकर ज्ञेय तत्त्वका निर्गुणनिराकाररूपसे वर्णन किया। अब आगेके श्लोकमें उसी ज्ञेय तत्त्वका सगुणनिराकाररूपसे वर्णन करते हैं।
।।13.13।। पूर्व के पाँच श्लोकों में ज्ञान को बताने के पश्चात्? अब भगवान् ज्ञेय वस्तु को बताने का वचन देते हैं। परन्तु? प्रथम वे इसे जानने का फल बताते हैं? जिसकी कुछ लोग आलोचना करते हैं। किन्तु? यह आलोचना उपयुक्त नहीं है? क्योंकि ज्ञान के फल की स्तुति करने से उसके साधन के अनुष्ठान में प्रवृत्ति? रुचि और उत्साह उत्पन्न होता है।जिसे जानकर? साधक अमृत्व को प्राप्त होता है जड़ पदार्थ का धर्म है मरण। इन जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण अमरणधर्मा आत्मा इनसे अवच्छिन्न हुआ व्यर्थ ही मिथ्या परिच्छिन्नता और मरण का अनुभव करता है। आत्मानात्मविवेक के द्वारा अपने आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ स्थिति प्राप्त करने से मरण का यह मिथ्या भय समाप्त हो जाता है और अमृतस्वरूप आत्मा के परमानन्द का अनुभव होता है। ऐसे श्रेष्ठतम लक्ष्य को पाने के लिए पूर्व वर्णित गुणों के द्वारा हमको अपने अन्तकरण को साधन सम्पन्न बनाना चाहिए।अनादिमत्परं ब्रह्म किसी नित्य अधिष्ठान के सन्दर्भ में ही किसी वस्तु के अनादि अर्थात् प्रारम्भ की कल्पना और गणना की जा सकती है। जो परमात्मा काल का भी अधिष्ठान है? उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती।ब्रह्म को न सत् कहा जा सकता है और न असत्। सामान्य दृष्टि से जो वस्तु प्रमाणगोचर होती है? उसे हम सत् कहते हैं। परन्तु जो चैतन्य द्रष्टा है? वह कभी भी इन्द्रिय? मन और बुद्धि का ज्ञेय नहीं हो सकता? इसलिए कहा गया है कि वह सत् नहीं है। चैतन्य तत्त्व समस्त वस्तुओं का प्रकाशक होते हुए स्वयं समस्त अनुभवों के अतीत है।यदि वह सत् नहीं है? तो हम उसे असत् समझ लेगें? इसलिए यहाँ उसका भी निषेध किया गया है। अत्यन्त अभावरूप वस्तु को असत् कहते हैं? जैसे आकाश? पुष्प? बन्ध्यापुत्र इत्यादि। ब्रह्म को असत् नहीं कह सकते. क्योंकि वह सम्पूर्ण जगत् का कारण है। उसका ही अभाव होने पर जगत् की सिद्धि कैसे हो सकती है इसलिए? उपनिषदों में उसे नेति? नेति (यह नहीं) की भाषा में निर्देशित किया गया है।शंकराचार्य जी कहते हैं? जाति और गुण से रहित होने के कारण ब्रह्म को सत् नहीं कहा जा सकता? और समस्त शरीरों में चैतन्य रूप में व्यक्त होने के कारण असत् भी नहीं कहा जा सकता है।सत् अर्थात् वस्तु है यह वृत्ति तथा असत् अर्थात् वस्तु नहीं है यह वृत्ति भी बुद्धि में ही उठती है। जो आत्मचैतन्य इन दोनों वृत्तियों का प्रकाशक है? वह दोनों से ही भिन्न है। इस तथ्य की पुष्टि यहाँ पर की गयी है।उपर्युक्त कथन से कोई व्यक्ति उसे शून्य न समझ ले? इसलिए समस्त प्राणियों की उपाधियों के द्वारा ब्रह्म के अस्तित्व का बोध कराते हुए भगवान् कहते हैं