सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।13.15।।
।।13.15।।वे (परमात्मा) सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करनेवाले हैं आसक्तिरहित हैं और सम्पूर्ण संसारका भरणपोषण करनेवाले हैं तथा गुणोंसे रहित हैं और सम्पूर्ण गुणोंके भोक्ता हैं।
।।13.15।। वह समस्त इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाला? परन्तु (वस्तुत) समस्त इन्द्रियों से रहित है आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सबको धारणपोषण करने वाला और गुणों का भोक्ता है।।
।।13.15।। व्याख्या -- सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् -- पहले परमात्मा हैं? फिर परमात्माकी शक्ति प्रकृति है। प्रकृतिका कार्य महत्तत्त्व? महत्तत्त्वका कार्य अहंकार? अहंकारका कार्य पञ्चमहाभूत? पञ्चमहाभूतोंका कार्य मन एवं दस इन्द्रियाँ और दस इन्द्रियोंका कार्य पाँच विषय -- ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं। परमात्मा प्रकृति और उसके कार्यसे अतीत हैं। वे चाहे सगुण हों या निर्गुण? साकार हों या निराकार? सदा प्रकृतिसे अतीत ही रहते हैं। वे अवतार लेते हैं? तो भी प्रकृतिसे अतीत ही रहते हैं। अवतारके समय वे प्रकृतिको अपने वशमें करके प्रकट होते हैं।जो अपनेको गुणोंमें लिप्त? गुणोंसे बँधा हुआ मानकर जन्मतामरता था? वह बद्ध जीव भी जब परमात्माको प्राप्त होनेपर गुणातीत (गुणोंसे रहित) कहा जाता है? तो फिर परमात्मा गुणोंमें बद्ध कैसे हो सकते हैं वे तो सदा ही गुणोंसे अतीत (रहित) हैं। अतः वे प्राकृत इन्द्रियोंसे रहित हैं अर्थात् संसारी जीवोंकी तरह हाथ? पैर? नेत्र? सिर? मुख? कान आदि इन्द्रियोंसे युक्त नहीं हैं किन्तु उनउन इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करनेमें सर्वथा समर्थ है (टिप्पणी प0 689)। जैसे -- वे कानोंसे रहित होनेपर भी भक्तोंकी पुकार सुन लेते हैं? त्वचासे रहित होनेपर भी भक्तोंका आलिङ्गन करते हैं? नेत्रोंसे रहित होनेपर भी प्राणिमात्रको निरन्तर देखते रहते हैं? रसनासे रहित होनेपर भी भक्तोंके द्वारा लगाये हुए भोगका आस्वादन करते हैं? आदिआदि। इस तरह ज्ञानेन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी परमात्मा शब्द? स्पर्श आदि विषयोंको ग्रहण करते हैं। ऐसे ही वे वाणीसे रहित होनेपर भी अपने प्यारे भक्तोंसे बातें करते हैं? चरणोंसे रहित होनेपर भी भक्तके पुकारनेपर दौड़कर चले आते हैं? हाथोंसे रहित होनेपर भी भक्तके दिये हुए उपहारको ग्रहण करते हैं? आदिआदि। इस तरह कर्मेन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी परमात्मा कर्मेन्द्रियोंका सब कार्य करते हैं। यही इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी भगवान्का इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करना है।असक्तं सर्वभृच्चैव -- भगवान्का सभी प्राणियोंमें अपनापन? प्रेम है? पर किसी भी प्राणीमें आसक्ति नहीं है। आसक्ति न होनेपर भी वे ब्रह्मासे चींटीपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियोंका पालनपोषण करते हैं। जैसे मातापिता अपने बालकका पालनपोषण करते हैं? उससे कई गुना अधिक पालनपोषण भगवान् प्राणियोंका करते हैं। कौन प्राणी कहाँ है और किस प्राणीको कब किसी वस्तु आदिकी जरूरत पड़ती है? इसको पूरी तरह जानते हुए भगवान् उस वस्तुको आवश्यकतानुसार यथोचित रीतिसे पहुँचा देते हैं। प्राणी पृथ्वीपर हो? समुद्रमें हो? आकाशमें हो अथवा स्वर्गमें हो अर्थात् त्रिलोकीमें कहीं भी कोई छोटासेछोटा अथवा बड़ासेबड़ा प्राणी हो? उसका पालनपोषण भगवान् करते हैं। प्राणिमात्रके सुहृद् होनेसे वे अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके द्वारा पापपुण्योंका नाश करके प्राणिमात्रको शुद्ध? पवित्र करते रहते हैं।निर्गुणं गुणभोक्तृ च -- वे परमात्मा सम्पूर्ण गुणोंसे रहित होनेपर भी सम्पूर्ण गुणोंके भोक्त हैं। तात्पर्य है कि जैसे मातापिता बालककी मात्र क्रियाओंको देखकर प्रसन्न होते हैं? ऐसे ही परमात्मा भक्तके द्वारा की हुई मात्र क्रियाओंको देखकर प्रसन्न होते हैं? अर्थात् भक्तलोग जो भी क्रियाएँ करते हैं? उन सब क्रियाओंके भोक्ता भगवान् ही बनते हैं।
।।13.15।। अनिर्देश्य परम ब्रह्म का आत्मरूप से निर्देश करने की एक विधि यह है कि उसे विरोधाभास की भाषा में इंगित करे। एक वाक्य को सुनकर जब बुद्धि उसके विषय में कोई धारणा बना लेती है? तब दूसरा वाक्य उस धारणा का खण्डन कर देता है। इस प्रकार स्वाभाविक है कि वह बुद्धि कल्पना शून्य होकर अपने निर्विकल्प स्वरूप के अनुभव में स्थित हो जाती है। यह विरोधाभास की भाषा आध्यात्मिक ग्रन्थों की विशेषता है। परन्तु शास्त्रों का सतही अध्ययन करने वाले लोग? शास्त्रोपदेश की विधि के मर्म को न समझ कर? अपने अविश्वास या नास्तिकता को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए इस प्रकार के श्लोक उद्धृत करते हैं। यह श्लोक उपनिषद् से लिया गया है।आत्मचैतन्य के सम्बन्ध से ही समस्त इन्द्रियाँ अपनाअपना व्यापार करती हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उनसे अवच्छिन्न आत्मा ही कार्य करता है तथा वह इन इन्द्रियों से युक्त है। किन्तु विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इन्द्रियाँ भौतिक पदार्थ हैं और नाशवान भी हैं? जबकि उनमें व्यक्त होकर उन्हें चेतनता प्रदान करने वाला आत्मा सनातन और अविकारी है। संक्षेप में? उपाधियों की दृष्टि से आत्मा उनका धारक प्रतीत होता है? किन्तु स्वस्वरूप से वह सर्वेन्द्रिय विवर्जित है।विद्युत् शक्ति न तो बल्ब का प्रकाश है और न हीटर की उष्णता तथापि इन उपकरणों में व्यक्त होकर विद्युत् ही प्रकाश और उष्णता के रूप में प्रतीत होती है।वह असक्त किन्तु सबको धारण करने वाला है ब्रह्म को अनासक्त धारक के रूप में समझ पाना प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए सरल नहीं है। तथापि अपने देश के महान् आचार्यों द्वारा इसे दृष्टान्तों और उपमाओं के द्वारा समझाने का प्रयत्न किया गया है। कोई भी तरंग सम्पूर्ण समुद्र नहीं है समस्त तरंगे सम्मिलित रूप में भी समुद्र नहीं है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि समुद्र उन तरंगों में आसक्त है? क्योंकि वह तो उन सबका स्वरूप ही है। असक्त होते हुए भी उन सबको धारण करने वाला समुद्र के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। कपास सभी वस्त्रों में है? किन्तु वस्त्र कपास नहीं है। तथापि? कपास ही वस्त्र को धारण करने वाला होता है। इसी प्रकार? विविधता की यह सृष्टि चैतन्य ब्रह्म नहीं है? परन्तु ब्रह्म ही सर्वभृत है।वह निर्गुण? किन्तु गुणों का भोक्ता है मनुष्य का मन सदैव सत्त्व? रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव में कार्य करता है। इन तीनों गुणों के प्रभावों को आत्मा सदा प्रकाशित करता रहता है। प्रकाशक प्रकाश्य के धर्मों से मुक्त होने के कारण आत्मा गुणरहित है। किन्तु एक चेतन मन ही इन गुणों का अनुभव कर सकता है? इसलिए यहाँ कहा गया है कि आत्मा स्वयं निर्गुण होते हुए भी मन की उपाधियों के द्वारा गुणों का भोक्ता भी है।इस प्रकार इस श्लोक में आत्मा का सोपाधिक (उपाधि सहित) और निरुपाधिक (उपाधि रहित) इन दोनों दृष्टिकोणों से निर्देश किया गया है।इतना ही नहीं? वरन् एक व्यष्टि उपाधि में व्यक्त आत्मा ही सर्वत्र समस्त प्राणियों में स्थित है