बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।13.16।।
।।13.16।।वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहरभीतर परिपूर्ण हैं और चरअचर प्राणियोंके रूपमें भी वे ही हैं एवं दूरसेदूर तथा नजदीकसेनजदीक भी वे ही हैं। वे अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे जाननेका विषय नहीं हैं।
।।13.16।। (वह ब्रह्म) भूत मात्र के अन्तर्बाह्य स्थित है वह चर है और अचर भी। सूक्ष्म होने से वह अविज्ञेय है वह सुदूर और अत्यन्त समीपस्थ भी है।।
।।13.16।। व्याख्या -- [ज्ञेय तत्त्वका वर्णन बारहवेंसे सत्रहवें श्लोकतक -- कुल छः श्लोकोंमें हुआ है। उनमेंसे यह पन्द्रहवाँ श्लोक चौथा है। इस श्लोकके अन्तर्गत पहलेके तीन श्लोकोंका और आगेके दो श्लोकोंका भाव भी आ गया है। अतः यह श्लोक इस प्रकरणका सार है।]बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च -- जैसे बर्फके बने हुए घड़ोंको समुद्रमें डाल दिया जाय तो उन घड़ोंके बाहर भी जल है? भीतर भी जल है और वे खुद भी (बर्फके बने होनेसे) जल ही हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण चरअचर प्राणियोंके बाहर भी परमात्मा हैं? भीतर भी परमात्मा हैं और वे खुद भी परमात्मस्वरूप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे घड़ोंमें जलके सिवाय दूसरा कुछ नहीं है अर्थात् सब कुछ जलहीजल है? ऐसे ही संसारमें परमात्माके सिवाय दूसरा कोई तत्त्व नहीं है अर्थात् सब कुछ परमात्माहीपरमात्मा हैं। इसी बातको भगवान्ने महात्माओंकी दृष्टिसे वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) और अपनी दृष्टिसे सदसच्चाहम् (गीता 9। 19) कहा है।दूरस्थं चान्तिके च तत् -- किसी वस्तुका दूर और नजदीक होना तीन दृष्टियोंसे कहा जाता है -- देशकृत? कालकृत और वस्तुकृत। परमात्मा तीनों ही दृष्टियोंसे दूरसेदूर और नजदीकसेनजदीक हैं जैसे -- दूरसेदूर देशमें भी वे ही परमात्मा हैं और नजदीकसेनजदीक देशमें भी वे ही परमात्मा हैं (टिप्पणी प0 690) पहलेसेपहले भी वे ही परमात्मा थे? पीछेसेपीछे भी वे ही परमात्मा रहेंगे और अब भी वे ही परमात्मा हैं सम्पूर्ण वस्तुओंके पहले भी वे ही परमात्मा हैं? वस्तुओंके अन्तमें भी वे ही परमात्मा हैं और वस्तुओंके रूपमें भी वे ही परमात्मा हैं।उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंके संग्रह और सुखभोगकी इच्छा करनेवालेके लिये परमात्मा (तत्त्वतः समीप होनेपर भी) दूर हैं। परन्तु जो केवल परमात्माके ही सम्मुख है? उसके लिये परमात्मा नजदीक हैं। इसलिये साधकको सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग करके केवल परमात्मप्राप्तिकी अभिलाषा जाग्रत् करनी चाहिये। परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा होते ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है अर्थात् परमात्मासे नित्ययोगका अनुभव हो जाता है।सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयम् -- वे परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियाँ और अन्तःकरणका विषय नहीं है अर्थात् वे परमात्मा इनकी पकड़में नहीं आते। अब प्रश्न उठता है कि जब जाननेमें नहीं आते? तो फिर उनका अभाव होगा उनका अभाव नहीं है। जैसे परमाणुरूप जल सूक्ष्म होनेसे नेत्रोंसे नहीं दीखता? पर न दीखनेपर भी,उसका अभाव नहीं है। वह जल परमाणुरूपसे आकाशमें रहता है और स्थूल होनेपर बूँदें? ओले आदिके रूपमें दीखने लग जाता है। ऐसे ही परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदिके द्वारा जाननेमें नहीं आते क्योंकि वे इनसे परे हैं? अतीत हैं।जीवोंके अज्ञानके कारण ही वे परमात्मा जाननेमें नहीं आते। जैसे? कहीं पर श्रीमद्भगवद्गीता शब्द लिखा हुआ है। जो पढ़ालिखा नहीं है? उसको तो केवल लकीरें ही दीखती हैं और जो पढ़ालिखा है? उसको श्रीमद्भगवद्गीता दीखती है। संस्कृत पढ़े हुएको यह शब्द किस धातुसे बना हुआ है? इसका क्या अर्थ होता है -- यह दीखने लग जाता है। गीताका मनन करनेवालेको गीताके गहरे भाव दीखने लग जाते हैं। ऐसे ही जिन मनुष्योंको परमात्मतत्त्वका ज्ञान नहीं है? उनको परमात्मा नहीं दीखते? उनके जाननेमें नहीं आते। परन्तु जिनको परमात्मतत्त्वका ज्ञान हो गया है? उनको तो सब कुछ परमात्माहीपरमात्मा दीखते हैं।उस परमात्मतत्त्वको ज्ञेय (13। 12? 17) भी कहा है और अविज्ञेय भी कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि वह स्वयंके द्वारा ही जाना जा सकता है? इसलिये वह ज्ञेय है और वह इन्द्रियाँमनबुद्धिके द्वारा नहीं जाना जा सकता? इसलिये वह अविज्ञेय है।सर्वत्र परिपूर्ण परमात्माको जाननेके लिये यह आवश्यक है कि साधक परमात्माको सर्वत्र परिपूर्ण मान ले। ऐसा मानना भी जाननेकी तरह ही है। जैसे (बोध होनेपर) ज्ञान(जानने) को कोई मिटा नहीं सकता? ऐसे ही परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं इस मान्यता(मानने) को कोई मिटा नहीं सकता। जब सांसारिक मान्यताओं -- मैं ब्राह्मण हूँ? मैं साधु हूँ आदिको (जो कि अवास्तविक हैं) कोई मिटा नहीं सकता? तब पारमार्थिक मान्यताओंको (जो कि वास्तविक हैं) कौन मिटा सकता है तात्पर्य यह है कि दृढ़तापूर्वक मानना भी एक साधन है। जाननेकी तरह माननेकी भी बहुत महिमा है। परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं -- ऐसा दृढ़तापूर्वक मान लेनेपर यह मान्यता मान्यतारूपसे नहीं रहेगी? प्रत्युत इन्द्रियाँमनबुद्धिसे परे जो अत्यन्त सूक्ष्म परमात्मा हैं? उनका अनुभव हो जायगा।
।।13.16।। परमात्मा की सर्वव्यापकता को यहाँ उपनिषदों की अननुकरणीय शैली में इंगित किया गया है।वह भूतमात्र के अन्तर्बाह्य है सभी व्यष्टि उपाधियों में व्यक्त चेतन तत्त्व सर्वव्यापी है। अन्तर्बाह्य से तात्पर्य है कि जहाँ शरीरादि उपाधियाँ हैं? वहाँ तो वह विशेष रूप से व्यक्त हुआ विद्यमान रहता ही है? परन्तु जहाँ कोई उपाधि नहीं है वहाँ भी वह केवल सत्य रूप से स्थित रहता है। जिस प्रकार? जहाँ रेडियो है वहाँ ध्वनि तरंगों का अस्तित्व स्पष्ट ज्ञात होता है? परन्तु जहाँ रेडियो नहीं है? वहाँ उन तरंगों का अभाव नहीं कहा जा सकता।वह चर है और अचर भी जो अपनी स्वेच्छा से विचरण करता रहता है? वह चर प्राणी है? तथा गतिहीन वस्तु अचर वर्ग में आती है। इस वाक्य का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है कि आत्मतत्त्व अचर होते हुये भी चर है इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा सर्वव्यापी होने से स्वस्वरूप की दृष्टि से अचर है? परन्तु वही आत्मा गतिमान् उपाधियों से अवच्छिन्नसा होकर चरवत् प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ? किसी गतिमान वाहन में कोई व्यक्ति स्वयं अपने स्थान पर बैठा हुआ (अचर) ही मीलों लम्बी यात्रा तय कर लेता है इस प्रकार? हमारे व्यक्तित्व का सारभूत तत्त्व एक? सनातन व परिपूर्ण है जो अन्तर्बाह्य सर्वत्र व्याप्त है। उसके बिना कोई भी क्रिया संभव नहीं है ? इसलिये वह सभी क्रियाओं में विद्यमान है। वह सत्स्वरूप से सर्वत्र ही स्थित है। तब? फिर क्या कारण है कि हम उसे इन्द्रियों द्वारा नहीं देख सकते? या मन और बुद्धि से अनुभव नहीं कर पाते भगवान् कहते हैं कि? वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है।गुणवान् वस्तु स्थूल होती है। जिस वस्तु में अधिक गुण होते हैं वह उतनी ही अधिक स्थूल होती है और एकाधिक इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण की जा सकती है। जैसे? पृथ्वी का ज्ञान पाँचों इन्द्रियों के द्वारा होता है। जबकि वायु का केवल श्रोत्र और स्पर्शेन्द्रिय से। अत पृथ्वी स्थूलतम तत्त्व है और आकाश में केवल शब्द गुण होने से वह सूक्ष्मतम है।कार्य की अपेक्षा कारण सदैव सूक्ष्म होता है। आकाश तत्त्व सृष्ट वस्तु होने से उसका भी कारण होना आवश्यक है। आकाश का भी कारण वह नित्य अधिष्ठान ब्रह्म है जिससे पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। स्वाभविक ही है कि वह ब्रह्म आकाश से भी सूक्ष्म होने के कारण हमारे उपलब्ध प्रमाणों के द्वारा दृश्य रूप में नहीं जाना जा सकता है वह अविज्ञेय है।वह दूरस्थ और समीपस्थ है एक साकार परिच्छिन्न वस्तु को किसी स्थान विशेष पर यहाँ या वहाँ स्थित बताया जा सकता है। उन वस्तुओं के द्रष्टा की स्थिति से उनकी दूरी नापी जाकर उन्हें दूरस्थ या समीपस्थ कहा जा सकता है। परन्तु जो सर्वव्यापी है वह एक ही समय यहाँ होगा और वहाँ भी होगा और इसलिये वह दूरस्थ और समीपस्थ भी है। इन दो शब्दों की व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है कि परमात्मा सर्व नामरूपों की उपाधियों से मुक्त दूरस्थ है किन्तु वही परमात्मा इन नामरूपों में भी समीपस्थ है। श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में लिखते हैं कि यह आत्मा अज्ञानियों को अत्यन्त दूर स्थित हुआ भासता है? जबकि ज्ञानी जन तो उसे अत्यन्त समीप से आत्मरूप से ही अनुभव करते हैं।संक्षेप में? विरोधाभास की भाषा की सुन्दरता से युक्त यह श्लोक उन पाठकों को सहसा जगा देता है? जो केवल बौद्धिक ज्ञान से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। यह श्लोक उन्हें मनन या ध्यान के द्वारा परमात्मा के सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूप का साक्षात् अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है।इसी ज्ञेय के विषय में भगवान् आगे कहते है