कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।13.21।।
।।13.21।।प्रकृति और पुरुष -- दोनोंको ही तुम अनादि समझो और विकारों तथा गुणोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न समझो। कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुखदुःखोंके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा जाता है।
।।13.21।। कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष सुखदुख के भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है।।
।।13.21।। व्याख्या -- [इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रके विषयमें यच्च (जो है)? यादृक् च (जैसा है)? यद्विकारि (जिन विकारोंवाला है) और यतश्च यत् (जिससे जो उत्पन्न हुआ है) -- ये चार बातें सुननेकी आज्ञा दी थी। उनमेंसे यच्च का वर्णन पाँचवें श्लोकमें और यद्विकारि का वर्णन छठे श्लोकमें कर दिया। यादृक् च का वर्णन आगे इसी अध्यायके छब्बीसवेंसत्ताईसवें श्लोकोंमें करेंगे। अब यतश्च यत् का वर्णन करते हुए प्रकृतिसे विकारों और गुणोंको उत्पन्न हुआ बताते हैं। इसमें भी देखा जाय तो विकारोंका वर्णन पहले छठे श्लोकमें इच्छा द्वेषः आदि पदोंसे किया जा चुका है। यहाँ गुण प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं -- यह बात नयी बतायी है।बारहवेंसे अठारहवें श्लोकतक ज्ञेय तत्त्व(परमात्मा) का वर्णन है और यहाँ उन्नीसवेंसे चौंतीसवें श्लोकतक पुरुष(क्षेत्रज्ञ) का वर्णन है। वहाँ तो ज्ञेय तत्त्वके अन्तर्गत ही सब कुछ है और यहाँ पुरुषके अन्तर्गत सब कुछ है अर्थात् वहाँ ज्ञेय तत्त्वके अन्तर्गत पुरुष है और यहाँ पुरुषके अन्तर्गत ज्ञेय तत्त्व है। तात्पर्य यह है कि ज्ञेय तत्त्व (परमात्मा) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) -- दोनों तत्त्वसे दो नहीं हैं? प्रत्युत एक ही हैं।]प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि -- यहाँ प्रकृतिम्पद सम्पूर्ण क्षेत्र(जगत्)की कारणरूप मूल प्रकृतिका वाचक है। सात प्रकृतिविकृति (पञ्चमहाभूत? अहंकार और महत्तत्त्व) तथा सोलह विकृति (दस? इन्द्रियाँ? मन और पाँच विषय) -- ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं और प्रकृति इन सबकी मूल कारण है।पुरुषम् पद यहाँ क्षेत्रज्ञका वाचक है? जिसको इसी अध्यायके पहले श्लोकमें क्षेत्रको जाननेवाला कहा गया है।प्रकृति और पुरुष -- दोनोंको अनादि कहनेका तात्पर्य है कि जैसे परमात्माका अंश यह पुरुष (जीवात्मा) अनादि है? ऐसे ही यह प्रकृति भी अनादि है। इन दोनोंके अनादिपनेमें फरक नहीं है किन्तु दोनोंके स्वरूपमें फरक है। जैसे -- प्रकृति गुणोंवाली है और पुरुष गुणोंसे सर्वथा रहित है प्रकृतिमें विकार होता है और पुरुषमें विकार नहीं होता प्रकृति जगत्की कारण बनती है और पुरुष किसीका भी कारण नहीं बनता प्रकृतिमें कार्य एवं कारणभाव है और पुरुष कार्य एवं कारणभावसे रहित है।उभौ एव कहनेका तात्पर्य है कि प्रकृति और पुरुष -- दोनों अलगअलग हैं। अतः जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं? ऐसे ही उन दोनोंका यह भेद (विवेक) भी अनादि है।इसी अध्यायके पहले श्लोकमें आये इदं शरीरं क्षेत्रम् पदोंसे मनुष्यशरीरकी तरफ ही दृष्टि जाती है अर्थात् व्यष्टि मनुष्यशरीरका ही बोध होता है और क्षेत्रज्ञः पदसे मनुष्यशरीरको जाननेवाले व्यष्टि क्षेत्रज्ञका ही,बोध होता है। अतः प्रकृति और उसके कार्यमात्रका बोध करानेके लिये यहाँ प्रकृतिम् पदका और मात्र क्षेत्रज्ञोंका बोध करानेके लिये यहाँ पुरुषम् पदका प्रयोग किया गया है।इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें क्षेत्रज्ञकी परमात्माके साथ एकता जाननेके लिये विद्धि पदका प्रयोग किया था और यहाँ पुरुषकी प्रकृतिसे भिन्नता जाननेके लिये विद्धि पदका प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि मनुष्य स्वयंको और शरीरको एक समझता है? इसलिये भगवान् यहाँ विद्धि पदसे अर्जुनको यह आज्ञा देते हैं कि ये दोनों सर्वथा अलगअलग हैं -- इस बातको तुम ठीक तरहसे समझ लो।विकारांश्च गुणंश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् -- इच्छा? द्वेष? सुख? दुःख? संघात? चेतना और धृति -- इन सात विकारोंको तथा सत्त्व? रज और तम -- इन तीन गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न हुए समझो। इसका तात्पर्य यह है कि पुरुषमें विकार और गुण नहीं हैं।सातवें अध्यायमें तो भगवान्ने गुणोंको अपनेसे उत्पन्न बताया है (7। 12) और यहाँ गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न बताते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ भक्तिका प्रकरण होनेसे भगवान्ने गुणोंको अपनेसे उत्पन्न बताया है और गुणमयी मायासे तरनेके लिये अपनी शरणागति बतायी है। परन्तु यहाँ ज्ञानका प्रकरण होनेसे गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न बताया है। अतः साधक गुणोंसे अपना सम्बन्ध न मानकर ही गुणोंसे छूट सकता है।कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते -- आकाश? वायु? अग्नि? जल और पृथ्वी तथा शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध -- इन दस(महाभूतों और विषयों)का नाम कार्य है। श्रोत्र? त्वचा? नेत्र? रसना? घ्राण? वाणी? हस्त? पाद? उपस्थ और गुदा तथा मन? बुद्धि और अहंकार -- इन तेरह(बहिःकरण और अन्तःकरण)का नाम करण है। इन सबके द्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं? उनको उत्पन्न करनेमें प्रकृति ही हेतु है।जो उत्पन्न होता है? वह कार्य कहलाता है और जिसके द्वारा कार्यकी सिद्धि होती है? वह करण कहलाता है अर्थात् क्रिया करनेके जितने औजार (साधन) हैं? वे सब करण कहलाते हैं। करण तीन तरहके होते हैं -- (1) कर्मेन्द्रियाँ? (2) ज्ञानेन्द्रियाँ और (3) मन? बुद्धि एवं अहंकार। कर्मेन्द्रियाँ स्थूल हैं? ज्ञानेन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं और मन? बुद्धि एवं अहंकार अत्यन्त सूक्ष्म हैं। कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियोंको बहिःकरण कहते हैं तथा मन? बुद्धि और अहंकारको अन्तःकरण कहते हैं। जिनसे क्रियाएँ होती है? वे कर्मेन्द्रियाँ हैं और कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियोंपर जो शासन करते हैं? वे मन? बुद्धि और अहंकार हैं। तात्पर्य है कि कर्मेन्द्रियोंपर ज्ञानेन्द्रियोंका शासन है? ज्ञानेन्द्रियोंपर मनका शासन है? मनपर बुद्धिका शासन है और बुद्धिपर अहंकारका शासन है। मन? बुद्धि और अहंकारके बिना कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। ज्ञानेन्द्रियोंके साथ जब मनका सम्बन्ध हो जाता है? तब विषयोंका ज्ञान होता है। मनसे जिन विषयोंका ज्ञान होता है? उन विषयोंमेंसे कौनसा विषय ग्राह्य है और कौनसा त्याज्य है? कौनसा विषय ठीक है और कौनसा बेठीक है -- इसका निर्णय बुद्धि करती है। बुद्धिके द्वारा निर्णीत विषयोंपर अहंकार शासन करता है।अहंकार दो तरहका होता है -- (1) अहंवृत्ति और (2) अहंकर्ता। अहंवृत्ति किसीके लिये कभी दोषी नहीं होती? पर उस अहंवृत्तिके साथ जब स्वयं (पुरुष) अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है? तादात्म्य कर लेता है? तब वह अहंकर्ता बन जाता है। तात्पर्य है कि अहंवृत्तिसे मोहित होकर? उसके परवश होकर स्वयं उस अहंवृत्तिसे मोहित होकर? उसके परवश होकर स्वयं उस अहंवृत्तिमें अपनी स्थिति मान लेता है तो वह कर्ता बन जाता है -- अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते (गीता 3। 27)।प्रकृतिका कार्य बुद्धि (महत्तत्त्व) है और बुद्धिका कार्य अहंवृत्ति (अहंकार) है। यह अहंवृत्ति है तो बुद्धिका कार्य? पर इसके साथ तादात्म्य करके स्वयं बुद्धिका मालिक बन जाता है अर्थात् कर्ता और भोक्ता बन जाता है -- पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् (गीता 13। 21)। परन्तु जब तत्त्वका बोध हो जाता है? तब स्वयं न कर्ता बनता है और न भोक्ता ही बनता है -- शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते (गीता 13। 31)। फिर कर्तृत्वभोक्तृत्वरहित पुरुषके शरीरद्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं? वे सब क्रियाएँ अहंवृत्तिसे ही होती हैं। इसी अहंवृत्तिके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको गीतामें कई तरहसे बताया गया है जैसे -- प्रकृतिके द्वारा ही सब क्रियाएँ होती हैं। (13। 29) प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब क्रियाएँ होती हैं (3। 27) गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (3। 28) गुणोंके सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है (14। 19) इन्द्रियाँ ही अपनेअपने विषयोंमें बरत रही हैं (5। 9) आदि। तात्पर्य है कि बहिःकरण और अन्तःकरणके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं? वे सब प्रकृतिसे ही होती हैं।पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते -- अनुकूल परिस्थितिके आनेपर सुखी (राजी) होना -- यह सबका भोग है और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर दुःखी (नाराज) होना -- यह दुःखका भोग है। यह सुखदुःखका भोग पुरुष(चेतन)में ही होता है -- प्रकृति(जड)में नहीं क्योकि जड प्रकृतिमें सुखीदुःखी होनेकी सामर्थ्य नहीं है। अतः सुखदुःखके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा गया है। अगर पुरुष अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंसे मिलकर राजीनाराज न हो तो वह सुखदुःखका भोक्ता नहीं बन सकता।सातवें अध्यायके चौथेपाँचवें श्लोकोंमें भगवान्ने अपरा (जड) और परा (चेतन) नामसे अपनी दो प्रकृतियोंका वर्णन किया है। ये दोनों प्रकृतियाँ भगवान्के स्वभाव हैं? इसलिये ये दोनों स्वतः ही भगवान्की ओर जा रही हैं। परन्तु परा प्रकृति (चेतन)? जो परमात्माका अंश है और जिसकी स्वाभाविक रुचि परमात्माकी ओर जानेकी ही है? तात्कालिक सुखभोगमें आकर्षित होकर अपरा प्रकृति(जड)के साथ तादात्म्य कर लेता है। इतना ही नहीं? प्रकृतिके साथ तादात्म्य करके वह प्रकृतिस्थ पुरुषके रूपमें अपनी एक स्वतन्त्र सत्ताका निर्माण कर लेता है (गीता 13। 21)? जिसको अहम् कहते हैं। इस अहम् में जड और चेतन दोनों हैं। सुखदुःखरूप जो विकार होता है? वह जडअंशमें ही होता है? पर जडसे तादात्म्य होनेके कारण उसका परिणाम ज्ञाता चेतनपर होता है अर्थात् जडके सम्बन्धसे सुखदुःखरूप विकारको चेतन अपनेमें मान लेता है कि मैं सुखी हूँ? मैं दुःखी हूँ। जैसे? घाटा लगता है दूकानमें? पर दूकानदार कहता है कि मुझे घाटा लग गया। ज्वर शरीरमें आता है? पर मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया। स्वयंमें ज्वर नहीं आता (टिप्पणी प0 696)? यदि आता तो कभी मिटता नहीं।सुखदुःखका परिणाम चेतनपर होता है? तभी वह सुखदुःखसे मुक्ति चाहता है। अगर वह सुखीदुःखी न हो? तो उसमें मुक्तिकी इच्छा हो ही नहीं सकती। मुक्तिकी इच्छा जडके सम्बन्धसे ही होती है क्योंकि जडको स्वीकार करनेसे ही बन्धन हुआ है। जो अपनेको सुखीदुःखी मानता है? वही सुखदुःखरूप विकारसे अपनी मुक्ति चाहता है और उसीकी मुक्ति होती है। तात्पर्य है कि तादात्म्यमें मुक्ति(कल्याण) की इच्छामें चेतनकी मुख्यता और भोगोंकी इच्छामें जडकी मुख्यता होती है? इसलिये अन्तमें कल्याणका भागी चेतन ही होता है? जड नहीं।विकृतिमात्र जडमें ही होती है? चेतनमें नहीं। अतः वास्तवमें सुखीदुःखी होना चेतनका धर्म नहीं है? प्रत्युत जडके सङ्गसे अपनेको सुखीदुःखी मानना ज्ञाता चेतनका स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखीदुःखी होता नहीं? प्रत्युत (सुखाकारदुःखाकार वृत्तिसे मिलकर) अपनेको सुखीदुःखी मान लेता है। चेतनमें एकदूसरेसे विरुद्ध सुखदुःखरूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं दो रूप परिवर्तनशील प्रकृतिमें ही हो सकते हैं। जो परिवर्तनशील नहीं है? उसके दो रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य यह है कि सब विकार परिवर्तनशीलमें ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं ज्योंकात्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृतिके संगसे उसके विकारोंको अपनेमें आरोपित करता रहता है। यह सबका अनुभव भी है कि हम सुखमें दूसरे तथा दुःखमें दूसरे नहीं हो जाते। सुख और दुःख दोनों अलगअलग हैं? पर हम एक ही रहते हैं इसीलिये कभी सुखी होते हैं और कभी दुःखी होते हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने पुरुषको सुखदुःखके भोगनेमें हेतु बताया। इसपर प्रश्न होता है कि कौनसा पुरुष सुखदुःखका भोक्ता बनता है इसका उत्तर अब भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।13.21।। कार्य और कारण के कर्तृत्व में हेतु प्रकृति है यहाँ प्रयुक्त कार्य शब्द से ये तेरह तत्त्व सूचित किये गये हैं पंचमहाभूत? पंच ज्ञानेन्द्रियाँ? मन? बुद्धि और अहंकार। समष्टि पंचतत्त्वों के जो शब्द स्पर्शादि पंच गुण हैं? वे ही व्यष्टि में पंच ज्ञानेन्द्रियों के रूप में स्थित हैं। इसका विवेचन हम पूर्व में भी कर चुके हैं।पाँचो इन्द्रियाँ भिन्नभिन्न विषय ग्रहण करती हैं? जिनका एकत्रीकरण करना मन का कार्य है। तत्पश्चात् अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए एक ऐसे तत्त्व की आवश्यकता होती है? जो ग्रहण किये गये विषय के स्वरूप को समझकर अपनी प्रतिक्रिया को निश्चित करे। और वह तत्त्व है बुद्धि। अब? इन सब क्रियाओं विषय ग्रहण? उनके एकत्रीकरण और निर्णय में एक अहंभाव सतत बना रहता है? जैसे मैं देखता हूँ? मैं निर्णय लेता हूँ इत्यादि। यह अहंभाव ही अहंकार कहलाता है? जो आत्मा के इन इन्द्रियादि उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण उत्पन्न होता है। ये तेरह तत्त्व यहाँ कार्य शब्द से सूचित किये गये हैं।यह सम्पूर्ण कार्य जगत् व्यक्त है? और इनका अव्यक्त रूप ही कारण कहलाता है। ये कार्य और कारण प्रकृति ही हैं।पुरुष सुखदुख का भोक्ता है जो चेतन तत्त्व इस कार्यकारण रूप प्रकृति को प्रकाशित करता है? वह आत्मा या पुरुष है।यहाँ आत्मा को पुरुष के रूप में सुखदुख का भोक्ता कहा गया है? वह उसका औपाधिक रूप है? वास्तविक नहीं। सुख और दुख हमारे मन की प्रतिक्रियायें हैं। अनुकूल परस्थितियों में इष्ट की प्राप्ति होने पर सुख और अनिष्ट की प्राप्ति से दुख होता है। प्रत्येक अनुभव उसके अन्तिम विश्लेषण में सुख या दुख के रूप में ही निश्चित किया जाता है। चैतन्य ही इन सब अनुभवों को प्रकाशित करता है? जिसके बिना अनुभवधारा रूप यह जीवन ही सम्भव नहीं हो सकता है। इसलिए? यहाँ कहा गया है कि पुरुष सुखदुख के भोग का हेतु है। क्षेत्र की उपाधि में क्षेत्रज्ञ के रूप में कार्य कर रहा आत्मा ही संसार का भोक्ता बनता है। जो व्यक्ति सूर्य की प्रखर धूप में खड़ा रहेगा उसे सूर्य का ताप सहन करना होगा? यदि वह व्यक्ति सघन छाया में चला जाता है? तो उसे शीतलता का आनन्दानुभव होगा।इस श्लोक में पुरुष को सुखदुखरूप संसार का भोक्ता कहा गया है। इस संसार का कारण क्या है उत्तर में भगवाने कहते हैं
13.21 With regard to the source of body and organs, Nature is said to be the cause. The soul is the cause so far as enjoyership of happiness and sorrow is concerned.
13.21 In the production of the effect and the cause, Nature (matter) is said to be the cause; in the experience of pleasure and pain, the soul is said to be the cause.
13.21. In creating [the process of] cause-and-effect, the Material Cause is said to be the basis; and in experiencing pleasure and pain, the Soul is said to be the basis.
13.21 कार्यकारणकर्तृत्वे in the production of the effect? and the cause? हेतुः the cause? प्रकृतिः Prakriti? उच्यते is said (to be)? पुरुषः Purusha? सुखदुःखानाम् of pleasure and pain? भोक्तृत्वे in the experience? हेतुः the cause? उच्यते is said (to be).Commentary Pleasure and pain are the fruits of virtuous and vicious actions. The force of desire acts on the mind and the mind impels the senses to act to get the objects of desire. Good and evil actions proceed from Nature and lead to happiness or misery. Evil actions produce misery and sorrow. Virtuous actions cause happiness and joy. The soul is the enjoyer. The wife works and prepares nice? palatable dishes the huand silently enjoys the fruits of her labour. He sits ietly and eats them to his hearts content. Even so Nature works and the soul experiences the fruits of Her labour? viz.? pleasure and pain.When harmony predominates? virtuous actions are performed. When there is a preponderance of Rajas? both virtuous and vicious actions are performed. When Tamas predominates? sinful? unlawful and unrighteous actions are done.In the place of Kaarana (कारण) which means cause? some read Karana (करण) which means instrument such as the five organs of knowledge? five organs of action? mind? intellect and egoism (thirteen principles located in the body).Karya The effect? viz.? the physical body. The five elements which form the body and the five senses? and which form the senseobjects which are born of Nature come under the term effect. All alities? such as pleasure and pain and delusion which are born of Nature? come under the term instruments because these alities reside in the instruments? the senses.In the production of the body? the senses and their sensations Nature is said to be the cause. Thus Nature is the cause of Samsara.Sugarcane is the cause. Sugarcane juice? sugar and sugarcandy are the effects or modifications of sugarcane. Milk is the cause. Curd? butter and ghee (meleted butter) are the modifications of milk. Whatever is a modification of something is its effect? and that from which the modifications come is their cause. Nature is the source or cause of all modifications. She generates everything. The ten organs? mind and the five objects of the senses are the sixteen modifications or effects.Mahat (intellect) is born of Mulaprakriti. From Mahat Ahamkara (egoism) is born. Mahat is the effect of Mulaprakriti and the cause of Ahamkara. Therefore Mahat is called PrakritiVikriti. Mahat? Ahamkara and the five Tanmatras (rootelements of matter) are the seven PrakritiVikriti. Each of these is a modification of its predecessor and is in turn the cause of its successor. The five rootelements generate the five gross elements. They are the subtle elements. These seven are both Nature and modification (Prakriti and Vikriti)? cause and effect? and are included under the term cause.The functions of the body? senses? lifeforce? mind and intellect are superimposed on the pure Self. So the ignorant man says I am black I am fat I am hungry I am angry I am deaf I am blind I am the son of so and so? I know? I am the doer? I am the enjoyer? etc.The intellect is very subtle. It is in close contact with the most subtle Self. The Consciousness of the Self is reflected in the intellect (Chidabhasa) and so the intellect which has the semblance of,the Consciousness feels I am pure consciousness or Chaitanya. I experience pleasure and pain. The attributes of the pure Self are superimposed on the intellect. There is mutual superimposition between the intellect and the Self? Nature and Spirit. This is the cause of Samsara.Purusha? Jiva? Kshetrajna and Bhokta are all synonymous terms. Purusha here referred to is not the Supreme Self. He is the conditioned soul? the soul subject to transmigration who experiences pleasure and pain. The Self or the Absolute is ever free from Samsara and is unchanging.Prakriti and Purusha are the cause of Samsara. Nature generates the body? lifeforce? mind? intellect and the senses. The soul experiences pleasure and pain. Samsara is the experience of pleasure and pain. The soul is the Samsarin. He is the experiencer of pleasure and pain. (Cf.XV.9)
13.21 Karya-karana-kartrtve, with regard to the source of body and organs: Karya is the body, and karana are the thirteen [Five sense organs, five motor organs, mind, intellect and ego.] organs existing in it. Here, by the word karya are understood the aforesaid elements that produce the body as also the objects which are modifications born of Nature. And since the alities-which are born of Nature and manifest themselves as happiness, sorrow and delusion-are dependent on the organs, (therefore) they are implied by the word karana, organs. The kartrtvam, (lit) agentship, with regard to these body and organs consists in being the source of the body and organs. With regard to this source of the body and organs, prakrtih, Nature; ucyate, is said to be; the hetuh, cause, in the sense of being the originator. Thus, by virtue of being the source of body and organs, Nature is the cause of mundane existence. Even if the reading be karya-karana-kartrtva, karya (effect, modification) will mean anything that is the transformation of something; and karana (cause) will be that which becomes transformed. So the meaning of the compund will be: with regard to the source of the effect and the cause. Or, karya means the sixteen [The eleven organs (five sensory, five motor, and mind) and the five objects (sound etc.).] modificaitons, and karana means the seven [Mahat, egoism, and the five subtle elements.] transformations of Nature. They themselves are called effect and cuase. So far as the agentship with regard to these is concerned Nature is said to be the cause, because of the same reason of being their originator. As to how the soul can be the cause of mundane existence is being stated: Purusah, the soul, the empirical being, the knower of the field-all these are synonymous; is the hetuh, cause; bhoktrtve, so far as enjoyership, the fact of being the perceiver; sukha-duhkhanam, of happiness and sorrow-which are objects of experience, is concerned. How, again, is it asserted with respect to Nature and soul that, they are the causes of mundane existence by virtue of this fact of their (respectively) being the source of body and organs, and the perceiver of happiness and sorrow? As to this the answer is being stated: How can there be any mundane existence if there be no modification of Nature in the form of body and organs, happiness and sorrow, and cause and effect, and there be no soul, the conscious being, to experience them? On the other hand, there can be mundane existence when there is a contact, in the form of ignorance, between Nature-modified in the form of body and organs, and cause and effect as an object of experience and the soul opposed to it as the experiencer. Therefore it was reasonable to have said that, Nature and soul become the cause of mundane existence by (respectively) becoming the originators of the body and organs, and the perceiver of happiness and sorrow. What again is this that is called worldly existence? Worldly existence consists in the experience of happiness and sorrow; and the state of mundane existence of the soul consists in its being the experiencer of happiness and sorrow. It has been asserted that the state of mundane existence of the soul consists in its being the experiencer of happiness and sorrow. How does it come about? This is being answered:
13.21 See Comment under 13.23
13.21 The Karya means the body, the Karanas mean the instruments, i.e., the senses of perception and action plus the Manas. In their operations, the Prakrti, subservient to the self, is alone the causal factor. The sense is that their operations, which are the means of experience, have their foundation in the Prakrti, which has developed in the form of the body subservient to the self. In regard to this, the authority is the aphorism, The self is an agent, on account of the scriptures having the purpose (B. S., 2.3.33) etc. The agency of the self means that the self is the cause of the will (effort) to support the body. The self (Purusa) associated with the body is the cause for experiencing pleasures and pains. The meaning is that It is the seat of those experiences. Thus, has been explained the difference in the operations of the Prakrti and of the self when they are mutually conjoined. He now proceeds to explain how, though the self, which in Its pristine nature experiences Itself by Itself as nothing but joy, becomes the cause of experiencing both pleasure and pain derived from sense objects when It is conjoined with a body. The term Guna figuratively represents effects. The self (in Its pristine nature) experiences Itself by Itself, as nothing buy joy. But when dwelling in the body, i.e., when It is in conjunction with the Prakrti, It experiences the alities born of Prakrti, namely, happiness, pain etc., which are the effects of Gunas like Sattva etc. He explains the cause of conjunction with the Prakrti:
In this verse the Lord shows the jiva’s connection with prakrti. Prakrti is the cause of the jiva’s unfortunate condition by his misidentification with the body (karya), the senses which produce happiness and distress (karana) and the presiding deities of the senses (kartr). Prakrti, by association with the jiva, transforms into the form of body, senses and sense devatas, and, by its function of ignorance, it becomes the bestower of the jiva’s misidentification. The jiva (purusa), having the position as the enjoyer of the happiness and distress produced by prakrti, is also the cause of the connection. The meaning is this. Even though the body, the senses, the sense devatas and the jiva’s capacity for enjoyment (bhoktrtva) are all qualities of prakrti, because of the predominance of unconsciousness in the body, senses and sense devatas, and the predominance of consciousness in experiencing happiness and distress (bhoktr), the two get separately designated as causes according to predominance. According to this reasoning, it is said that prakrti is the cause, by producing the body, sense and sense devatas, and jiva is the cause by his capacity to experience happiness and distress.
After explaining how the evolution of all jivas or embodied beings along with their modifications and transformations all arise from prakriti or the material substratum pervading physical existence, Lord Krishna elaborates how the Purusa or eternal manifestation of the Supreme Lord as the atma or immortal soul is hetuh or responsible for determining ones transmigratory existence. The effect of this is the physical body, the cause is the means to experience the dualities such as joy and distress if the senses and their production is from the gunas or the actions of goodness, passion and ignorance producing karma or reactions from past actions making the subsequent modifications and transformations. Prakriti is the cause of the position of the physical body as confirmed by Kapila and Vedavyasa. The Purusa manifested as the atma is the cause of the happiness and misery experienced which are of its own making. Although the inert prakriti cannot by itself be considered the cause it is the source of the physical mnaifestation. Neither can the Purusa which is immortal and changeless experience anything; but inexplicably it happens to both and by agency of its auspices it is accomplished. The agency referred to here is that of adrishta or the cumulative results of karma which acts as a sentient principle upon even the insentient. The same as fire burns upwards, rivers flow downwards, the wind blows obliquely and milk from the cow spurts outwards. Therefore this agency of the insentient prakriti is said to be due to the influence of the Purusa by the experience of cognition in both joy and misery, happiness and distress and all such dualities. Whereas these being the qualities of only sentient beings the experience of the Purusa is said to be due to the proximity of prakriti.
The word karyam meaning effect verily signifies the physical body. The word karana meaning cause reinforces the reality that the physical body is the instrument of performing actions. The word bhoktrtve means experiencing. Lord Krishna as the purusa a manifestation of the Supreme Lord as unlimited consciousness is the cause witnessing and experiencing through all jivas or embodied beings. Prakriti or the material substratum pervading material existence is the effect of actions and the purusa being superior is the cause of action. Now begins the summation. It is prakriti in the form of maya or the external illusory energy that bewilders jivas into believing the physical body belongs to them and is acquired on ones own independently; due to being completely oblivious of the reality of Lord Krishna as the sole creator of everything in all times throughout all creation and it is He alone who awards the power of the jivas to experience the ksetra or field of activity within the physical body and within material existence. Lord Krishna is known as the Supreme Controller because everything in exsitence emanates originally from Him in the material worlds and Vaikuntha the spiritual worlds. Even though the Supreme Lord creates everything, to show that the privilege of experience has been granted to prakriti to a small degree, He uses the word ucyate or speaks in two places. The puport is to emphasize the purusa is the principle cause and prakriti is the secondary effect. Specifically prakriti is more an instrument of action then experiencing actions. The jiva to a lesser extent has been granted agency for experiencing and enjoyment but the actual experiencer and enjoyer is the Supreme Lord who is the controller of everything and who is known as the purusa and ordains through the medium of His localized aspect of paramatma the supreme soul present in the etheric heart of all living entities.
The word karya meaning effect refers to the physical body. The word karana means the instrument of action denoting the senses of perception, the organs of action and the mind. In the activation of both karya and karana to function the atma or immortal soul alone is the cause. This confirms that all manifest activity by which the jiva or embodied being experiences existence is dependent upon prakriti or the material substratum pervading physical existence which is predicated by the impulses of the atma. The atma merely performs its natural function as monitor and director of the jiva in all respects. Affirmation of this is given in the following Vedic aphorism found in the Vedanta Sutra II:III.XXXX beginning krita prayatna apekesah meaning the Supreme Lord induces the atma to act according to the effects experienced by the jiva so that there is no contradiction in the prohibitions and injunctions of the Vedic scriptures. The function of the atma is to witness the karma or reactions to ones actions and govern the jiva effects of karma as they evolve and grow. The atma being embodied is the sole cause for a jiva to experience joy and grief through the medium of matter. Thus the difference in function in regard to both the atma and the physical body has been briefly elaborated seperately and in conjunction. The process by which the inherently pure and spiritual atma which is most blessed comes to experience pleasures and pain derived from contact with products of matter is through the three gunas being modes of goodness, passion and ignorance which are effects of prakriti and figuratively symbolise all derivatives of matter as all matter is within the purvey of the three gunas. Here in this verse the word purusa is referring to His expansion as the atma within the heart of all living entities which by its own intrinsic nature is liberated and blissful but by the influence of karma and prakriti is entangled in the material existence undergoing experiences of enjoyment and suffering based on this relationship which manifest according to the dicitates and constraints of the adventitiously and contrary circumstances of past actions from which arise effects known as karma. The word bhoktrtve meaning the experience of happiness and distress confirms this.
The word karya meaning effect refers to the physical body. The word karana means the instrument of action denoting the senses of perception, the organs of action and the mind. In the activation of both karya and karana to function the atma or immortal soul alone is the cause. This confirms that all manifest activity by which the jiva or embodied being experiences existence is dependent upon prakriti or the material substratum pervading physical existence which is predicated by the impulses of the atma. The atma merely performs its natural function as monitor and director of the jiva in all respects. Affirmation of this is given in the following Vedic aphorism found in the Vedanta Sutra II:III.XXXX beginning krita prayatna apekesah meaning the Supreme Lord induces the atma to act according to the effects experienced by the jiva so that there is no contradiction in the prohibitions and injunctions of the Vedic scriptures. The function of the atma is to witness the karma or reactions to ones actions and govern the jiva effects of karma as they evolve and grow. The atma being embodied is the sole cause for a jiva to experience joy and grief through the medium of matter. Thus the difference in function in regard to both the atma and the physical body has been briefly elaborated seperately and in conjunction. The process by which the inherently pure and spiritual atma which is most blessed comes to experience pleasures and pain derived from contact with products of matter is through the three gunas being modes of goodness, passion and ignorance which are effects of prakriti and figuratively symbolise all derivatives of matter as all matter is within the purvey of the three gunas. Here in this verse the word purusa is referring to His expansion as the atma within the heart of all living entities which by its own intrinsic nature is liberated and blissful but by the influence of karma and prakriti is entangled in the material existence undergoing experiences of enjoyment and suffering based on this relationship which manifest according to the dicitates and constraints of the adventitiously and contrary circumstances of past actions from which arise effects known as karma. The word bhoktrtve meaning the experience of happiness and distress confirms this.
Kaaryakaaranakartrutwe hetuh prakritiruchyate; Purushah sukhaduhkhaanaam bhoktritwe heturuchyate.
kārya—effect; kāraṇa—cause; kartṛitve—in the matter of creation; hetuḥ—the medium; prakṛitiḥ—the material energy; uchyate—is said to be; puruṣhaḥ—the individual soul; sukha-duḥkhānām—of happiness and distress; bhoktṛitve—in experiencing; hetuḥ—is responsible; uchyate—is said to be