पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।13.22।।
।।13.22।।प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनता है और गुणोंका सङ्ग ही उसके ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बनता है।
।।13.22।। व्याख्या -- पुरुषः प्रकृतिस्थो (टिप्पणी प0 697) हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् -- वास्तवमें पुरुष प्रकृति(शरीर) में स्थित है ही नहीं। परन्तु जब वह प्रकृति(शरीर)के साथ तादात्म्य करके शरीरको मैं और मेरा मान लेता है? तब वह प्रकृतिमें स्थित कहा जाता है। ऐसा प्रकृतिस्थ पुरुष ही (गुणोंके द्वारा रचित अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिको सुखदायीदुःखदायी मानकर) अनुकूल परिस्थितिके आनेपर सुखी होता है और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर दुःखी होता है। यही पुरुषका प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनना है।जैसे मोटरदुर्घटनामें मोटर और चालक -- दोनोंका हाथ रहता है। क्रियाके होनेमें तो केवल मोटरकी ही प्रधानता रहती है? पर दुर्घटनाका फल (दण्ड) मोटरसे अपना सम्बन्ध जोड़नेवाले चालक(कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। ऐसे ही सांसारिक कार्योंको करनेमें प्रकृति और पुरुष -- दोनोंका हाथ रहता है। क्रियाओंके होनेमें तो केवल शरीरकी ही प्रधानता रहती है? पर सुखदुःखरूप फल शरीरसे अपना सम्बन्ध जोड़नेवाले पुरुष(कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। अगर वह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े और सम्पूर्ण क्रियाओंको प्रकृतिके द्वारा ही होती हुई माने (गीता 13। 29)? तो वह उन क्रियाओंका फल भोगनेवाला नहीं बनेगा।कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु -- जिन योनियोंमें सुखकी बहुलता होती है? उनको सत्योनि कहते हैं और जिन योनियोंमें दुःखकी बहुलता होती है? उनको असत्योनि कहते हैं। पुरुषका सत्असत् योनियोंमें जन्म लेनेका कारण गुणोंका सङ्ग ही है।सत्त्व? रज और तम -- ये तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं। इन तीनों गुणोंसे ही सम्पूर्ण पदार्थों और क्रियाओंकी उत्पत्ति होती है। प्रकृतिस्थ पुरुष जब इन गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है? तब ये उसके ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बन जाते हैं।प्रकृतिमें स्थित होनेसे ही पुरुष प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनता है और यह गुणोंका सङ्ग? आसक्ति? प्रियता ही पुरुषको ऊँचनीच योनियोंमें ले जानेका कारण बनती है। अगर यह प्रकृतिस्थ न हो? प्रकृति(शरीर) में अहंताममता न करे? अपने स्वरूपमें स्थित रहे? तो यह पुरुष सुखदुःखका भोक्ता कभी नहीं बनता? प्रत्युत सुखदुःखमें सम हो जाता है? स्वस्थ हो जाता है (गीता 14। 24)। अतः यह प्रकृतिमें भी स्थित हो सकता है और अपने स्वरूपमें भी। अन्तर इतना ही है कि प्रकृतिमें स्थित होनेमें तो यह परतन्त्र है और स्वरूपमें स्थित होनेमें यह स्वाभाविक स्वतन्त्र है। बन्धनमें पड़ना इसका अस्वाभाविक है और मुक्त होना इसका स्वाभाविक है। इसलिये बन्धन इसको सुहाता नहीं है और मुक्त होना इसको सुहाता है।जहाँ प्रकृति और पुरुष -- दोनोंका भेद (विवेक) है? वहाँ ही प्रकृतिके साथ तादात्म्य करनेका? सम्बन्ध जोड़नेका अज्ञान है। इस अज्ञानसे ही यह पुरुष स्वयं प्रकृतिके साथ तादात्म्य कर लेता है। तादात्म्य कर लेनेसे यह पुरुष अपनेको प्रकृतिस्थ अर्थात् प्रकृति(शरीर) में स्थित मान लेता है। प्रकृतिस्थ होनेसे शरीरमें मैं और मेरापन हो जाता है। यही गुणोंका सङ्ग है। इस गुणसङ्गसे पुरुष बँध जाता है (गीता 14। 5)। गुणोंके द्वारा बँध जानेसे ही पुरुषकी गुणोंके अनुसार गति होती है (गीता 14। 18)। सम्बन्ध -- उन्नीसवें? बीसवें और इक्कीसवें श्लोकमें प्रकृति और पुरुषका वर्णन हुआ। अब आगेके श्लोकमें पुरुषका विशेषतासे वर्णन करते हैं।