य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।13.24।।
।।13.24।।इस प्रकार पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको जो मनुष्य अलगअलग जानता है? वह सब तरहका बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।
।।13.24।। इस प्रकार पुरुष और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य जानता है? वह सब प्रकार से रहता हुआ (व्यवहार करता हुआ) भी पुन नहीं जन्मता है।।
।।13.24।। व्याख्या -- य एवं वेत्ति ৷৷. न स भूयोऽभिजायते -- पूर्वश्लोकमें देहेऽस्मिन् पुरुषः परः पदोंसे पुरुषको देहसे पर अर्थात् सम्बन्धरहित कहा है? उसीको यहाँ एवम् पदसे कहते हैं कि जो साधक इस तरह पुरुषको देहसे? प्रकृतिसे पर अर्थात् सम्बन्धरहित जान लेता है तथा विकार? कार्य? करण? विषय आदि रूपसे जो कुछ भी संसार दीखता है? वह सब प्रकृति और उसके गुणोंका कार्य है -- ऐसा यथार्थरूपसे जान लेता है? वह फिर वर्ण? आश्रम? परिस्थिति आदिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्मको करता हुआ भी पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता। कारण कि जन्म होनेमें गुणोंका सङ्ग ही कारण है (गीता 13। 21)।यहाँ सर्वथा वर्तमानोऽपि पदोंमें निषिद्ध आचरण नहीं लेना चाहिये क्योंकि जो अपनेको देहके सम्बन्धसे रहित अनुभव करता है और गुणोंके सहित प्रकृतिको अपनेसे अलग अनुभव करता है? उसमें असत् वस्तुओंकी कामना पैदा हो ही नहीं सकती। कामना न होनेसे उसके द्वारा निषिद्ध आचरण होना असम्भव है क्योंकि निषिद्ध आचरणके होनेमें कामना ही हेतु है (गीता 3। 37)।भगवान् यहाँ साधकको अपना वास्तविक स्वरूप जाननेके लिये सावधान करते हैं? जिससे वह अच्छी प्रकार,जान ले कि स्वरूपमें वस्तुतः कोई भी क्रिया नहीं है। अतः वह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है और कर्ता न होनेके कारण वह भोक्ता भी नहीं होता। साधक जब अपनेआपको अकर्ता जान लेता है? तब उसका कर्तापनका अभिमान स्वतः नष्ट हो जाता है और उसमें क्रियाकी फलासक्ति भी नहीं रहती। फिर भी उसके द्वारा शास्त्रविहित क्रियाएँ स्वतः होती रहती हैं। गुणातीत होनेके कारण वह पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जन्मरहित होनेमें प्रकृतिपुरुषको यथार्थ जानना कारण बताया। अब यह जिज्ञासा होती है कि क्या जन्ममरणसे रहित होनेका और भी कोई उपाय है इसपर भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें चार साधन बताते हैं।
।।13.24।। अब तक किये गये विवेचन का सारांश यह है कि पुरुष स्वस्वरूप से नित्यमुक्त होते हुए भी प्रकृति के साथ तादात्म्य के कारण जीव बनकर संसार के दुखों को भोगता है। इसी तादात्म्य के कारण उत्पन्न वासनाओं के अनुरूप विभिन्न योनियों में उसे जन्म लेना पड़ता है।परन्तु? जो साधक साधन सम्पन्न होकर गुरु के उपदेश से प्रकृति? पुरुष उनके परस्पर सम्बन्ध तथा प्रकृति के विविध प्रकार के प्रभाव रखने वाले गुणों को तत्त्वत जान लेता है? वही वास्तव में ज्ञानी पुरुष है? जो सदा के लिए संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।किसी वस्तु को पूर्णत जानने के लिए हमें उससे विलग रहना चाहिए। यदि हम स्वयं ही किसी परिस्थिति में उलझे हुए हों? तो हम उसका वस्तुनिष्ठ अध्ययन नहीं कर सकते। अत प्रकृति के विकारों (देहादि) और गुणों (सुखदुखादि) को जानने के लिए हमें उन सबका द्रष्टा बनकर स्थित होना चाहिए? तभी हम सर्वाधिष्ठान परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं। इस अनन्तस्वरूप ब्रह्म को अपने आत्मस्वरूप से जानने का अर्थ ही अविद्या को नष्ट करना है। ऐसे पूर्ण ज्ञानी पुरुष का पुन प्रकृति के साथ मिथ्या तादात्म्य होने के लिए कोई कारण ही नहीं रह जाता है। इसलिए यहाँ भगवान् कहते हैं कि? सब प्रकार से रहते हुए भी उसका पुन जन्म नहीं होता है। इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानी पुरुष जगत् में कर्म करता हुआ भी सामान्य मनुष्यों के समान नईनई वासनाओं को उत्पन्न करके उनके बन्धन में नहीं आता है क्योंकि उसका अहंकार सर्वथा नष्ट हो चुका होता है।ब्रह्मवित् ब्रह्म ही बन जाता है और उसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं यह सभी उपनिषदों के द्वारा प्रतिपादित सत्य है।अब? आत्मदर्शन के लिए अनेक उपाय बताते हैं