क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.3।।
।।13.3।। हे भारत तुम समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है? वही (वास्तव में) ज्ञान है ? ऐसा मेरा मत है।।
।।13.3।। पूर्व श्लोक में यह कहा गया है कि जड़ उपाधियाँ क्षेत्र हैं और इनका अधिष्ठान चैतन्य स्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ है। यहाँ सबको चकित कर देने वाला कथन है कि समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। यदि? सब क्षेत्रों में ज्ञाता एक ही है ? तो इसका अर्थ यह हुआ कि बहुलता और विविधता केवल जड़ उपाधियों में ही है और उनमें व्यक्त चैतन्य सर्वत्र एक ही है। इस सर्वश्रेष्ठ? सर्वातीत एक सत्य को यहाँ उत्तम पुरुष एक वचन के रूप में निर्देशित किया गया है? क्षेत्रज्ञ मैं हूँ? क्योंकि सभी साधकों को यह इसी रूप में अनुभव करना है कि? वह मैं हूँ? (सोऽहम्)।हम पहले भी इंगित कर चुके हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण गीता का उपदेश योगारूढ़ की स्थिति के विरले क्षणों में कर रहे हैं। वे सर्वव्यापी आत्मस्वरूप से तादात्म्य किये हुये हैं। इस श्लोक का उनका कथन विद्युत् के इस कथन के समान है कि? मैं ही विश्वभर के बल्बों में प्रकाशित हो रही ऊर्जा हूँ।इस सम्पूर्ण विविध नामरूपमय सृष्टि के पीछे विद्यमान एकमेव सत्य का निर्देश करने के पश्चात् भगवान् अपना मत बताते हुये कहते हैं कि क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का विवेकजनित ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान कहलाने योग्य है? क्योंकि यही ज्ञान हमें अपने सांसारिक बन्धनों से मुक्त कराने में समर्थ है। इस ज्ञान के अभाव में ही हम जीव भाव के समस्त दुखों को भोग रहे हैं।ज्ञानमार्ग के निष्ठावान् साधकों के लिए यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान उपयोगी और आवश्यक होने के कारण उन्हें उसका विस्तृत अध्ययन करना होगा।