अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.32।।
।।13.32।।हे कुन्तीनन्दन यह पुरुष स्वयं अनादि और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है। यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।
।।13.32।। हे कौन्तेय अनादि और निर्गुण होने से यह परमात्मा अव्यय है। शरीर में स्थित हुआ भी? वस्तुत? वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है।।
।।13.32।। व्याख्या -- अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः -- इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें जिसको अनादि कहा है? उसीको यहाँ भी अनादित्वात् पदसे अनादि कहा है अर्थात् यह पुरुष आदि(आरम्भ) से रहित है। अब प्रश्न होता है कि वहाँ तो प्रकृतिको भी अनादि कहा है? इसलिये प्रकृति और पुरुष -- दोनोंमें,क्या फरक रहा इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं -- निर्गुणत्वात् अर्थात् यह पुरुष गुणोंसे रहित है। प्रकृति अनादि तो है? पर वह गुणोंसे रहित नहीं है? प्रत्युत गुणों और विकारोंवाली है। उससे सात्त्विक? राजस और तामस -- ये तीनों गुण तथा विकार पैदा होते हैं। परन्तु पुरुष इन तीनों गुणोँ और विकारोंसे सर्वथा रहित (निर्गुण और निर्विकार) है। ऐसा यह पुरुष साक्षात् अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है अर्थात् यह पुरुष विनाशरहित परम शुद्ध आत्मा है।शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते -- यह पुरुष शरीरमें रहता हुआ भी न कुछ करता है और न किसी कर्मसे लिप्त ही होता है। तात्पर्य है कि इस पुरुष(स्वयं) ने न तो पहले किसी भी अवस्थामें कुछ किया है? न वर्तमानमें कुछ करता है और न आगे ही कुछ कर सकता है अर्थात् यह पुरुष सदासे ही प्रकृतिसे निर्लिप्त? असङ्ग है तथा गुणोंसे रहित और अविनाशी है। इसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व है ही नहीं।यहाँ शरीरस्थोऽपि कहनेका तात्पर्य है कि यह पुरुष जिस समय अपनेको शरीरमें स्थित मानकर अपनेको कार्यका कर्ता और सुखदुःखका भोक्ता मानता है? उस समय भी वास्तवमें यह तटस्थ? प्रकाशमात्र ही रहता है। सुखदुःखका भान इसीसे होता है अतः इसको प्रकाशक कह सकते हैं? पर इसमें प्रकाशकधर्म नहीं है।यहाँ अपि पदसे ऐसा मालूम होता है कि अनादिकालसे अपनेको शरीरमें स्थित माननेवाला हरेक (चींटीसे ब्रह्मापर्यन्त) प्राणी स्वरूपसे सदा ही निर्लिप्त? असङ्ग है। उसकी शरीरके साथ एकता कभी हुई ही नहीं क्योंकि शरीर तो प्रकृतिका कार्य होनेसे सदा प्रकृतिमें ही स्थित रहता है और स्वयं परमात्माका अंश होनेसे सदा परमात्मामें ही स्थित रहता है। स्वयं परमात्मासे कभी अलग हो सकता ही नहीं। शरीरके साथ एकात्मता माननेपर भी? शरीरके साथ कितना ही घुलमिल जानेपर भी? शरीरको ही अपना स्वरूप माननेपर भी उसकी निर्लिप्तता कभी नष्ट नहीं होती? वह स्वरूपसे सदा ही निर्लिप्त रहता है। अपनी निर्लिप्तताका अनुभव न होनेपर भी उसके स्वरूपमें कुछ भी विकृति नहीं होती। अतः उसने अपने स्वरूपसे न कभी कुछ किया है और न करता ही है तथा वह स्वयं न कभी लिप्त हुआ है और न लिप्त होता ही है।यद्यपि पुरुष अपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही कर्ता और भोक्ता बनता है? तथापि इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही भोक्ता बनता है और यहाँ कहते हैं कि शरीर में स्थित होनेपर भी पुरुष कर्ताभोक्ता नहीं है। ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि प्रकृति और उसका कार्य शरीर -- दोनों एक ही हैं। अतः पुरुषको चाहे प्रकृतिमें स्थित कहो? चाहे शरीरमें स्थित कहो? एक ही बात है। एक शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे मात्र प्रकृतिके साथ? मात्र शरीरोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है। वास्तवमें पुरुषका सम्बन्ध न तो व्यष्टि शरीरके साथ है और न समष्टि प्रकृतिके साथ ही है। अपना सम्बन्ध शरीरके साथ माननेसे ही वह अपनेको कर्ताभोक्ता मान लेता है। वास्तवमें वह न कर्ता है और न भोक्ता है। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें कहा गया कि वह पुरुष न करता है और न लिप्त होता है? तो अब प्रश्न होता है कि वह कैसे लिप्त नहीं होता और कैसे नहीं करता इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।13.32।। यद्यपि चैतन्य आत्मा के सान्निध्य मात्र से देहेन्द्रियादि उपाधियाँ स्वक्रियाओं में प्रवृत्त होती हैं? तथापि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। शास्त्रों के इस प्रतिपादन को समझना वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को कठिन प्रतीत होता है। इसलिए? उपनिषदों के ऋषियों ने विशेष परिश्रमपूर्वक हमें यह समझाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार एकमेव अद्वितीय? परिपूर्ण सर्वव्यापी परमात्मा अकर्ता है। पहले भीगीता में कहा जा चुका है कि आत्मा क्षेत्र के साथ तादात्म्य करके जीवरूपक्षेत्रज्ञ बन जाता है? जो कर्मों का कर्ता और फलों का भोक्ता है।शरीरों में स्थित होने पर भी आत्मा के दोषमुक्तत्व को सिद्ध करने के लिए यहाँ कुछ हेतु दिये गये हैं। जब एक न्यायाधीश श्रीगोपाल राव किसी हत्यारे अपराधी को मृत्युदण्ड सुनाते हैं? तब उसकी मृत्यु का पातक न्यायाधीश को प्रभावित नहीं कर सकता। श्रीगोपाल राव न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन होकर निर्णय देते हैं? न कि अपनी व्यक्तिगत क्षमता में।अनादि जिस वस्तु का कारण होता है? उसी का प्रारम्भ भी हो सकता है। प्रारम्भ रहित का अर्थ कारणरहित होगा। परम सत्य वह है जिससे सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है। अत परमात्मा कारण रहित कारण होने से अनादि कहा गया है। इसी कारण से वह अव्यय? अविनाशी भी है।निर्गुण गुणवान् वस्तु ही विकारी होती है। हमने देखा कि जगत्कारण परमात्मा अविकारी है? अत उसका निर्गुण होना भी आवश्यक है।यह परमात्मा अव्यय है जगत्कारण? अनादि और निर्गुण होने से परमात्मा का अव्ययत्व सिद्ध हो जाता है।यह परमात्मा अपने सान्निध्य मात्र से जड़ उपाधियों को चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम करता है? परन्तु वह स्वयं किसी प्रकार की क्रिया नहीं,करता।उपर्युक्त सिद्धांत वेदान्त के कुछ सूक्ष्म सिद्धांतों में से एक है? और दुर्बल मति के विद्यार्थियों को प्राय इसे समझने में कठिनाई अनुभव होती है। यद्यपि यह वेदान्त साहित्य का कठिन भाग माना गया है? तथापि प्रयत्नपूर्वक इस पर मनन करने से सन्देह और कठिनाई दूर हो सकती हैं।उपाधियों के सभी निषिद्ध और आसुरी कर्मों में भी आत्मा के अकर्तृत्वऔर निर्गुणत्व को दर्शाने के लिए? भगवान् कुछ दृष्टान्त देते हैं