Download Bhagwad Gita 13.32 Download BG 13.32 as Image

⮪ BG 13.31 Bhagwad Gita Swami Chinmayananda BG 13.33⮫

Bhagavad Gita Chapter 13 Verse 32

भगवद् गीता अध्याय 13 श्लोक 32

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.32।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।13.32।। हे कौन्तेय अनादि और निर्गुण होने से यह परमात्मा अव्यय है। शरीर में स्थित हुआ भी? वस्तुत? वह न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त होता है।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।13.32।। यद्यपि चैतन्य आत्मा के सान्निध्य मात्र से देहेन्द्रियादि उपाधियाँ स्वक्रियाओं में प्रवृत्त होती हैं? तथापि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। शास्त्रों के इस प्रतिपादन को समझना वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को कठिन प्रतीत होता है। इसलिए? उपनिषदों के ऋषियों ने विशेष परिश्रमपूर्वक हमें यह समझाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार एकमेव अद्वितीय? परिपूर्ण सर्वव्यापी परमात्मा अकर्ता है। पहले भीगीता में कहा जा चुका है कि आत्मा क्षेत्र के साथ तादात्म्य करके जीवरूपक्षेत्रज्ञ बन जाता है? जो कर्मों का कर्ता और फलों का भोक्ता है।शरीरों में स्थित होने पर भी आत्मा के दोषमुक्तत्व को सिद्ध करने के लिए यहाँ कुछ हेतु दिये गये हैं। जब एक न्यायाधीश श्रीगोपाल राव किसी हत्यारे अपराधी को मृत्युदण्ड सुनाते हैं? तब उसकी मृत्यु का पातक न्यायाधीश को प्रभावित नहीं कर सकता। श्रीगोपाल राव न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन होकर निर्णय देते हैं? न कि अपनी व्यक्तिगत क्षमता में।अनादि जिस वस्तु का कारण होता है? उसी का प्रारम्भ भी हो सकता है। प्रारम्भ रहित का अर्थ कारणरहित होगा। परम सत्य वह है जिससे सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है। अत परमात्मा कारण रहित कारण होने से अनादि कहा गया है। इसी कारण से वह अव्यय? अविनाशी भी है।निर्गुण गुणवान् वस्तु ही विकारी होती है। हमने देखा कि जगत्कारण परमात्मा अविकारी है? अत उसका निर्गुण होना भी आवश्यक है।यह परमात्मा अव्यय है जगत्कारण? अनादि और निर्गुण होने से परमात्मा का अव्ययत्व सिद्ध हो जाता है।यह परमात्मा अपने सान्निध्य मात्र से जड़ उपाधियों को चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम करता है? परन्तु वह स्वयं किसी प्रकार की क्रिया नहीं,करता।उपर्युक्त सिद्धांत वेदान्त के कुछ सूक्ष्म सिद्धांतों में से एक है? और दुर्बल मति के विद्यार्थियों को प्राय इसे समझने में कठिनाई अनुभव होती है। यद्यपि यह वेदान्त साहित्य का कठिन भाग माना गया है? तथापि प्रयत्नपूर्वक इस पर मनन करने से सन्देह और कठिनाई दूर हो सकती हैं।उपाधियों के सभी निषिद्ध और आसुरी कर्मों में भी आत्मा के अकर्तृत्वऔर निर्गुणत्व को दर्शाने के लिए? भगवान् कुछ दृष्टान्त देते हैं