यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते।।13.33।।
।।13.33।।जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे कहीं भी लिप्त नहीं होता? ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता।
।।13.33।। जिस प्रकार सर्वगत आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता? उसी प्रकार सर्वत्र देह में स्थित आत्मा लिप्त नहीं होता।।
।।13.33।। व्याख्या -- [पूर्वश्लोकमें भगवान्ने न करोति पदोंसे पहले कर्तृत्वका और फिर न लिप्यते पदोंसे भोक्तृत्वका अभाव बताया है। परन्तु उन दोनोंका विवेचन करते हुए इस श्लोकमें पहले भोक्तृत्वके अभावकी बात बतायी है और आगेके श्लोकमें कर्तृत्वके अभावकी बात बतायेंगे। अतः यहाँ ऐसा व्यतिक्रम रखनेमें भगवान्का क्या भाव है इसका उत्तर यह है कि यद्यपि कर्तृत्वके बाद ही भोक्तृत्व होता है अर्थात् कर्म करनेके बाद ही उस कर्मके फलका भोग होता है? तथापि मनुष्य जो कुछ भी करता है? पहले किसी फल(सिद्धि) का उद्देश्य मनमें रखकर ही करता है। अतः मनमें पहले भोक्तृत्व आता है? फिर उसके अनुसार काम करता है अर्थात् फिर कर्तृत्व आता है। इस दृष्टिसे भगवान् यहाँ सबसे पहले भोक्तृत्वका निषेध करते हैं। भोक्तृत्व(लिप्तता) का त्याग होनेपर कर्तृत्वका त्याग स्वतः हो जाता है अर्थात् फलेच्छाका त्याग,होनेपर क्रिया करनेपर भी कर्तृत्व नहीं होता।]यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते -- आकाशका कार्य वायु? तेज? जल और पृथ्वी है। अतः आकाश अपने कार्य वायु आदि चारों भूतोंमें व्यापक है? पर ये चारों आकाशमें व्यापक नहीं हैं? प्रत्युत व्याप्य हैं। ये चारों आकाशके अन्तर्गत हैं? पर आकाश इन चारोंके अन्तर्गत नहीं है। इसका कारण यह है कि आकाशकी अपेक्षा ये चारों स्थूल हैं और आकाश इनकी अपेक्षा सूक्ष्म है। ये चारों सीमित हैं? सान्त हैं और आकाश असीम है? अनन्त है। इन चारों भूतोंमें विकार होते हैं? पर आकाशमें विकार नहीं होता।सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते -- जैसे आकाश वायु आदि चारों भूतोंमें रहता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता? ऐसे ही सब जगह? सब शरीरोंमें रहनेवाला आत्मा किसी भी शरीरमें लिप्त नहीं होता। आत्मा सबमें परिपूर्ण रहता हुआ भी किसीमें घुलतामिलता नहीं। वह सदासर्वदा सर्वथा निर्लिप्त रहता है क्योंकि आत्मा स्वयं नित्य? सर्वगत? स्थाणु? अचल? सनातन? अव्यक्त? अचिन्त्य और अविकारी है (गीता 2। 24 25) तथा इस अविनाशी आत्मासे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है (गीता 2। 17)। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने आत्मामें भोक्तृत्वका अभाव बताया? अब आगेके श्लोकमें आत्मामें कर्तृत्वका अभाव बताते हैं।
।।13.33।। यहाँ प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध को दर्शाने के लिए आकाश का दृष्टान्त दिया गया है। अवकाशात् आकाश? अर्थात् जो वस्तुओं को रहने के लिए स्थान प्रदान करे वह आकाश है। पंचमहाभूतों में यह सूक्ष्मतम है? और इस कारण से सर्वगत है। सूक्ष्म आकाश उसमें स्थित सभी स्थूल वस्तुओं को व्याप्त किये हुए है? किन्तु उनमें से कोई भी वस्तु उसे मर्यादित या अपने दोष से लिप्त नहीं कर सकती।परमात्मा आकाश का भी कारण होने से उससे भी सूक्ष्मतर और उसे व्याप्त किये हुए है। वह सबको व्याप्ता है? परन्तु उसे कोई व्याप नहीं सकता। अत वह परमात्मा देह में स्थित होकर भी उससे लिप्त नहीं होता।स्वप्नावस्था के हत्यारे के हाथ जागृत पुरुष को रक्तरञ्जित नहीं कर सकते। प्रेत के रक्तरञ्जित वस्त्र स्तम्भ पर अपने चिन्ह नहीं छोड़ सकते। मृगमारीचिका से रेत गीली नहीं हो जाती। ये सब उदाहरण भ्रम और अध्यास के हैं। यह जगत् परम सत्य के अज्ञान से प्रक्षेपित होने के कारण किसी भी प्रकार से परमात्मा को दूषित नहीं कर सकता।तब? इस आत्मा का देह में क्या कार्य है सुनो
13.33 As the all-pervading space is not defiled, because of its subtlety, similarly the Self, present everywhere in the body [The singular number is used to denote a class, i.e. all bodies. See S.-Tr.], is not defiled.
13.33 As the all-pervading ether is not tainted, because of its subtlety, so the Self seated everywhere in the body is not tainted.
13.33. Just as the all-pervading Ether is not stained because of its subtleness, in the same fashion the Self, abiding in the body everywhere, is not stained.
13.33 यथा as? सर्वगतम् the allpervading? सौक्ष्म्यात् because of its subtlety? आकाशम् ether? न not? उपलिप्यते is tainted? सर्वत्र everywhere? अवस्थितः seated? देहे in the body? तथा so? आत्मा the Self? न not? उपलिप्यते is tainted.Commentary Ether pervades everything. All are immersed in it. There is no point whereunto ether does not penetrate and pervade and yet it is not tainted by anything. Even so the Self pervades the whole body and the whole world. Being subtler than the body the Self is never tainted by it or anything else. It is unattached and actionless. It has no parts or limbs. So virtuous and vicious actions cannot contaminate the Self. It is ever pure and stainless.
13.33 Yatha, as; sarva-gatam, the all-pervading; akasam, space;-though pervasive, still, na upalipyate, is not defiled, does not come into contact; saukmyat, because of its subtlety; tatha, similarly; atma, the Self; avasthitah, present, sarvatra, everywhere; dehe, in the body; na, is not; upalipyate, defiled. Further,
13.33 See Comment under 13.34
13.33 As the all-pervading ether, though in contact with all substances, is not tainted by the alities of all these substances, as it is subtle - even so the self, though present in all the bodies, everywhere, namely, in divinities, men etc., is not contaminated by these bodies by reason of Its extreme subtleness.
In this verse the Lord gives an example. Just as the ether, situated in mud and other places, is not contaminated because it is most subtle – not contacting the mud at all, the paramatma is not connected with the gunas or faults of the material body, and therefore is not contaminated.
An example is being given by Lord Krishna that just as the akasam or ether existing everywhere being supra-subtle is not contaminated by anything and unaffected; so is the atma or immortal soul although abiding in all jivas or embodied beings some superior like demigods and some inferior as animals it is unaffected and not implicated by the activities performed by any jiva and never subject to any reactions of merit or demerit.
Lord Krishna uses the word akasam which means ether and denotes space. As space prevails everywhere and encompasses all objects, yet by its extremely subtle nature the properties of any object are not able to influence, taint or modify it. In the same way the atma or individual immortal soul being subatomic resides within the bodies of all jivas or embodied beings but the physical properties, attributes and qualities that pertain to such bodies be they demigods, human, animal, etc. are unable to influence, taint or modify it.
Lord Krishna uses the word akasam which means ether and denotes space. As space prevails everywhere and encompasses all objects, yet by its extremely subtle nature the properties of any object are not able to influence, taint or modify it. In the same way the atma or individual immortal soul being subatomic resides within the bodies of all jivas or embodied beings but the physical properties, attributes and qualities that pertain to such bodies be they demigods, human, animal, etc. are unable to influence, taint or modify it.
Yathaa sarvagatam saukshmyaadaakaasham nopalipyate; Sarvatraavasthito dehe tathaatmaa nopalipyate.
yathā—as; sarva-gatam—all-pervading; saukṣhmyāt—due to subtlety; ākāśham—the space; na—not; upalipyate—is contaminated; sarvatra—everywhere; avasthitaḥ—situated; dehe—the body; tathā—similarly; ātmā—the soul; na—not; upalipyate—is contaminated