यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.34।।
।।13.34।। हे भारत जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है? उसी प्रकार एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ) सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।।
।।13.34।। आध्यात्मिक साहित्य में भगवान् पार्थसारथि का दिया हुआ यह दृष्टान्त ध्यानाकर्षित करने वाला है। यह दृष्टान्त क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के सम्बन्ध को बोधगम्य बना देता है। जैसे सुदूर आकाश में स्थित एक ही सूर्य सदैव इस जगत् को प्रकाशित करता रहता है? वैसे ही एक आत्मा वस्तुओं? शरीर? मन और बुद्धि को केवल प्रकाशित करता है।यद्यपि? लौकिक भाषा में सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है? इस प्रकार कह कर हम सूर्य पर प्रकाशित करने की क्रिया के कर्तृत्व का आरोप करते हैं तथापि विचार करने पर ज्ञात होगा कि इस प्रकार का हमारा आरोप सर्वथा निराधार है। कर्म वह है? जो किसी क्षण विशेष में प्रारम्भ होकर अन्य क्षण में समाप्त होता है तथा सामान्यत वह किसी दृढ़ इच्छा या मूक प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया जाता है। इस दृष्टि से सूर्य जगत् को प्रकाशित नहीं करता। प्रकाश तो उसका धर्म है और प्रत्येक वस्तु उसकी उपस्थिति में प्रकाशित होती है। इसी प्रकार? चैतन्य तो आत्मा का स्वरूप है और उसकी उपस्थिति में सब वस्तुएं ज्ञात होती हैं।जगत् के शुभ और अशुभ? सदाचारी और दुराचारी? सुरूप और कुरूप इन सबको एक ही सूर्य प्रकाशित करता है? किन्तु उनमें से किसी के भी गुण या दोष से वह लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार? सच्चिदानन्द आत्मा उपाधियों में व्यक्त होने पर भी मन के पाप? बुद्धि के विकार और शरीर के अपराधों से असंस्पृष्ट ही रहता है।इस अध्याय में विवेचित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विषय का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं