तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।13.4।।
।।13.4।।वह क्षेत्र जो है? जैसा है? जिन विकारोंवाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है? वह सब संक्षेपमें मेरेसे सुन।
।।13.4।। इसलिये? वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है? और जिस (कारण) से जो (कार्य) हुआ है तथा वह (क्षेत्रज्ञ) भी जो है और जिस प्रभाव वाला है? वह संक्षेप में मुझसे सुनो।।
।।13.4।। व्याख्या -- तत्क्षेत्रम् -- तत् शब्द दोका वाचक होता है -- पहले कहे हुए विषयका और दूरीका। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें जिसको इदम् पदसे कहा गया है? उसीको यहाँ तत् पदसे कहा है। क्षेत्र सब देशमें नहीं है? सब कालमें नहीं है और अभी भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है -- यह क्षेत्रकी (स्वयंसे) दूरी है।यच्च -- उस क्षेत्रका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें हुआ है।यादृक् च -- उस क्षेत्रका जैसा स्वभाव है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके छब्बीसवेंसत्ताईसवें श्लोकोंमें उसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाला बताकर किया गया है।यद्विकारि -- यद्यपि प्रकृतिका कार्य होनेसे इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें आये तेईस तत्त्वोंको भी विकार कहा गया है? तथापि यहाँ उपर्युक्त पदसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके माने हुए सम्बन्धके कारण क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले इच्छाद्वेषादि विकारोंको ही विकार कहा गया है? जिनका वर्णन छठे श्लोकमें हुआ है।यतश्च यत् -- यह क्षेत्र जिससे पैदा होता है अर्थात् प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सात विकार और तीन गुण? जिनका वर्णन इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें हुआ है।स च -- पहले श्लोकके उत्तरार्धमें जिस क्षेत्रज्ञका वर्णन हुआ है? उसी क्षेत्रज्ञका वाचक यहाँ सः पद है और उसीके विषयमें यहाँ सुननेके लिये कहा जा रहा है।यः -- इस क्षेत्रज्ञका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके बीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें और बाईसवें श्लोकमें किया गया है।यत्प्रभावश्च -- वह क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाववाला है जिसका वर्णन इसी अध्यायके इकतीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक किया गया है।तत्समासेन मे श्रृणु -- यहाँ तत् पदके अन्तर्गत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ -- दोनोंको लेना चाहिये। तात्पर्य है कि वह क्षेत्र जो है? जैसा है? जिन विकारोंवाला और जिससे पैदा हुआ है -- इस तरह क्षेत्रके विषयमें चार बातें और वह क्षेत्रज्ञ जो है और जिस प्रभाववाला है -- इस तरह क्षेत्रज्ञके विषयमें दो बातें तू मेरेसे संक्षेपमें सुन।यद्यपि इस अध्यायके आरम्भमें पहले दो श्लोकोंमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञका सूत्ररूपसे वर्णन हुआ है? जिसको भगवान्ने,ज्ञान भी कहा है तथापि क्षेत्रक्षेत्रज्ञके विभागका स्पष्टरूपसे विवेचन (विकारसहित क्षेत्र और निर्विकार क्षेत्रज्ञके स्वरूपका प्रभावसहित विवेचन) इस तीसरे श्लोकसे आरम्भ किया गया है। इसलिये भगवान् इसको सावधान होकर सुननेकी आज्ञा देते हैं।इस श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रके विषयमें तो चार बातें सुननेकी आज्ञा दी है? पर क्षेत्रज्ञके विषयमें केवल दो बातें -- स्वरूप और प्रभाव ही सुननेकी आज्ञा दी है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्षेत्रका प्रभाव भी क्यों नहीं कहा गया और साथ ही क्षेत्रज्ञके स्वभाव? विकार और जिससे जो पैदा हुआ -- इन विषयोंपर भी क्यों नहीं कहा गया इसका समाधान यह है कि एक क्षण भी एक रूपमें स्थिर न रहनेवाले क्षेत्रका प्रभाव हो ही क्या सकता है प्रकृतिस्थ (संसारी) पुरुषके अन्तःकरणमें धनादि जड पदार्थोंका महत्त्व रहता है? इसीलिये उसको संसारमें क्षेत्रका (धनादि जड पदार्थोंका) प्रभाव दीखता है। वास्तवमें स्वतन्त्ररूपसे क्षेत्रका कुछ भी प्रभाव नहीं है। अतः उसके प्रभावका कोई वर्णन नहीं किया गया।क्षेत्रज्ञका स्वरूप उत्पत्तिविनाशरहित है? इसलिये उसका स्वभाव भी उत्पत्तिविनाशरहित है। अतः भगवान्ने उसके स्वभावका अलगसे वर्णन न करके स्वरूपके अन्तर्गत ही कर दिया। क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही क्षेत्रज्ञमें इच्छाद्वेषादि विकारोंकी प्रतीति होती है? अन्यथा क्षेत्रज्ञ (स्वरूपतः) सर्वथा निर्विकार ही है। अतः निर्विकार क्षेत्रज्ञके विकारोंका वर्णन सम्भव ही नहीं। क्षेत्रज्ञ अद्वितीय? अनादि और नित्य है। अतः इसके विषयमें कौन किससे पैदा हुआ -- यह प्रश्न ही नहीं बनता। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें जिसको संक्षेपसे सुननेके लिये कहा गया है? उसका विस्तारसे वर्णन कहाँ हुआ है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।13.4।। भगवान् श्रीकृष्ण न केवल क्षेत्र की वस्तुओं का उल्लेख ही करेंगे? वरन् क्षेत्र के गुण धर्म? उसके विकार तथा कौन से कारण से ऋ़ौन सा कार्य उत्पन्न हुआ है? इसका भी वर्णन करेंगे। उसी प्रकार? क्षेत्रज्ञ का स्वरूप तथा उपाधियों से सम्बद्ध उसके प्रभाव को भी इस अध्याय में बतायेंगे। ये सब? मुझसे संक्षेप में सुनो।अनन्त आत्मा के स्वरूप को दर्शाने वाले विशेषणों को पुन दोहराने मात्र से अथवा उस पर विशेष बल देकर कहने से एक निष्ठावान् साधक को कोई विशेष लाभ भी नहीं होता और न उसके विकास में कोई सहायता मिलती है। जिन कारणों से हमारे जीवन की समस्यायें उत्पन्न होती हैं उनकी ओर से दृष्टि फेर लेने का अर्थ है? समस्या को नहीं सुलझाना। हमारे आसपास का यह जगत्? जिसे हमने ही प्रेक्षित किया है? तथा वे ही प्रक्रियायें जिनके द्वारा हम कार्य करते हुये असंख्य विषयों? भावनाओं और विचारों की विविधता को देखते हैं इन सबका हमें सूक्ष्म निरीक्षण तथा अध्ययन करना चाहिये। इसकी उपेक्षा करने का अर्थ स्वयं को विशाल आवश्यक सारभूत ज्ञान से वंचित रखना है। यह अपनी ही प्रवंचना है।शत्रुओं के विरुद्ध युद्धनीति सम्बन्धी योजना बनाने के लिए शत्रुपक्ष की रणनीति का कमसेकम सामान्य ज्ञान होना आवश्यक होता है। इसी प्रकार? क्षेत्र से युद्ध करके उस पर विजय पाकर उसके बन्धनों से स्वयं को मुक्त करने के लिये यह जानना आवश्यक है कि क्षेत्र क्या है तथा परिस्थिति विशेष में ये उपाधियाँ किस प्रकार कार्य और व्यवहार करती हैं।इस प्रकार? शरीरशास्त्र? जीवशास्त्र? मनोविज्ञान तथा अन्य प्राकृतिक विज्ञान की शाखायें भी जीवन को समझने में अपना योगदान देती हैं। अध्यात्म का ज्ञानमार्ग समस्त लौकिक विज्ञानों का चरम बिन्दु है और उसकी पूर्तिस्वरूप है। इस बात की पुष्टि इसी तथ्य से होती है कि? युद्धभूमि पर भी अर्जुन को इस ज्ञान का उपदेश देते समय? भगवान् इस बात पर बल देने के लिए भूलते नहीं कि इस क्षेत्र का सम्पूर्ण ज्ञान होना महत्व की बात है। इसका हमें सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिये।क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के याथात्म्य को देखने? अध्ययन करने और समझने में शिष्य की अभिरुचि उत्पन्न करने के लिए भगवान् इस विषय वस्तु की स्तुति करते हुये कहते हैं