इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.7।।
।।13.7।।इच्छा? द्वेष? सुख? दुःख? संघात? चेतना (प्राणशक्ति) और धृति -- इन विकारोंसहित यह क्षेत्र संक्षेपसे कहा गया है।
।।13.7।। इच्छा? द्वेष? सुख? दुख? संघात (स्थूलदेह)? चेतना (अन्तकरण की चेतन वृत्ति) तथा धृति इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित संक्षेप में कहा गया है।।
।।13.7।। व्याख्या -- इच्छा -- अमुक वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति आदि मिले -- ऐसी जो मनमें चाहना रहती है? उसको इच्छा कहते हैं। क्षेत्रके विकारोंमें भगवान् सबसे पहले इच्छारूप विकारका नाम लेते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इच्छा मूल विकार है क्योंकि ऐसा कोई पाप और दुःख नहीं है? जो सांसारिक इच्छाओंसे,पैदा न होता हो अर्थात् सम्पूर्ण पाप और दुःख सांसारिक इच्छाओंसे ही पैदा होते हैं।द्वेषः -- कामना और अभिमानमें बाधा लगनेपर क्रोध पैदा होता है। अन्तःकरणमें उस क्रोधका जो सूक्ष्म रूप रहता है? उसको द्वेष कहते हैं। यहाँ द्वेषः पदके अन्तर्गत क्रोधको भी समझ लेना चाहिये।सुखम् -- अनुकूलताके आनेपर मनमें जो प्रसन्नता होती है अर्थात् अनुकूल परिस्थिति जो मनको सुहाती है? उसको सुख कहते हैं।दुःखम् -- प्रतिकूलताके आनेपर मनमें जो हलचल होती है अर्थात् प्रतिकूल परिस्थिति जो मनको सुहाती नहीं है? उसको दुःख कहते हैं।संघातः -- चौबीस तत्त्वोंसे बने हुए शरीररूप समूहका नाम संघात है। शरीरका उत्पन्न होकर सत्तारूपसे दीखना भी विकार है तथा उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहना भी विकार है।चेतना -- चेतना नाम प्राणशक्तिका है अर्थात् शरीरमें जो प्राण चल रहे हैं? उसका नाम चेतना है। इस चेतनामें परिवर्तन होता रहता है जैसे -- सात्त्विकवृत्ति आनेपर प्राणशक्ति शान्त रहती है और चिन्ता? शोक? भय? उद्वेग आदि होनेपर प्राणशक्ति वैसी शान्त नहीं रहती? क्षुब्ध हो जाती है। यह प्राणशक्ति निरन्तर नष्ट होती रहती है। अतः यह भी विकाररूप ही है।साधारण लोग प्राणवालोंको चेतन और निष्प्राणवालोंको अचेतन कहते हैं? इस दृष्टिसे यहाँ प्राणशक्तिको,चेतना कहा गया है।धृतिः -- धृति नाम धारणशक्तिका है। यह धृति भी बदलती रहती है। मनुष्य कभी धैर्यको धारण करता है और कभी (प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर) धैर्यको छोड़ देता है। कभी धैर्य ज्यादा रहता है और कभी धैर्य कम रहता है। मनुष्य कभी अच्छी बातको धारण करता है और कभी विपरीत बातको धारण करता है। अतः धृति भी क्षेत्रका विकार है।[अठारहवें अध्यायके तैंतीसवेंसे पैंतीसवें श्लोकतक धृतिके सात्त्विकी? राजसी और तामसी -- इन तीन भेदोंका वर्णन किया गया है। परमात्माकी तरफ चलनेमें सात्त्विकी धृतिकी बड़ी आवश्यकता है।]एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् -- जैसे पहले श्लोकमें इदं शरीरम् कहकर व्यष्टि शरीरसे अपनेको अलग देखनेके लिये कहा? ऐसे ही दृश्य(क्षेत्र और उसमें होनेवाले विकार) से द्रष्टाको अलग दिखानेके लिये यहाँ एतत् पद आया है।पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने समष्टि संसारका वर्णन किया और यहाँ छठे श्लोकमें व्यष्टि शरीरके विकारोंका वर्णन किया क्योंकि समष्टि संसारमें इच्छाद्वेषादि विकार होते ही नहीं। तात्पर्य यह है कि व्यष्टि शरीर समष्टि संसारसे और समष्टि संसार व्यष्टि शरीरसे अलग नहीं है अर्थात् ये दोनों एक हैं। जैसे इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रज्ञके साथ अपनी एकता बतायी? ऐसे ही यहाँ व्यष्टि शरीर और उसमें होनेवाले विकारोंकी समष्टि संसारके साथ एकता बताते हैं। आगे इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने पुरुषकी स्थिति शरीरमें न बताकर प्रकृतिमें बतायी है -- पुरुषः प्रकृतिस्थो हि। इससे भी सिद्ध होता है कि पुरुषकी स्थिति (सम्बन्ध) व्यष्टि शरीरमें हो जानेसे उसकी स्थिति समष्टि प्रकृतिमें हो जाती है क्योंकि व्यष्टि शरीर और समष्टि प्रकृति -- दोनों एक ही हैं। वास्तवमें देखा जाय तो व्यष्टि है ही नहीं? केवल समष्टि ही है। व्यष्टि केवल भूलसे मानी हुई है। जैसे समुद्रकी लहरोंको समुद्रसे अलग मानना भूल है? ऐसे ही व्यष्टि,शरीरको समष्टि संसारसे अलग (अपना) मानना भूल ही है।विशेष बात -- क्षेत्रज्ञ जब अविवेकसे क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है? तब क्षेत्रमें इच्छाद्वेषादि विकार पैदा हो जाते हैं। क्षेत्रज्ञका वास्तविक स्वरूप तो सर्वथा निर्विकार ही है। क्षेत्रक्षेत्रज्ञके संयोगसे पैदा होनेवाले विकार सर्वथा मिटाये जा सकते हैं क्योंकि क्षेत्रज्ञका क्षेत्रके साथ संयोग केवल माना हुआ है। इस माने हुए संयोगको मिटानेके लिये भगवान् इस अध्यायके पहले श्लोकमें शरीरको अपनेसे पृथक् देखनेके लिये और फिर दूसरे श्लोकमें परमात्मासे अपने नित्यसंयोग(एकता) का अनुभव करनेके लिये कहते हैं। ऐसा अनुभव होनेपर क्षेत्रके साथ मानी हुई एकताका सर्वथा अभाव हो जाता है और फिर विकार उत्पन्न हो ही नहीं सकते।बोध होनेपर अर्थात् क्षेत्र(शरीर) से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर इच्छा और द्वेष सदाके लिये सर्वथा मिट जाते हैं। सुख और दुःख अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका ज्ञान तो होता है? पर उससे अन्तःकरणमें कोई विकार पैदा नहीं होता अर्थात् अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होनेपर जीवन्मुक्त महापुरुष सुखीदुःखी नहीं होता। सुखदुःखका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत उसका असर पड़ना (विकार होना) दोषी है (टिप्पणी प0 675)।जीवन्मुक्त महापुरुषका संघात अर्थात् शरीरसे किञ्चिन्मात्र भी मैंमेरेपनका सम्बन्ध न रहनेके कारण उसका कहा जानेवाला शरीर यद्यपि महान् पवित्र हो जाता है? तथापि प्रारब्धके अनुसार उसका यह शरीर रहता ही है। जबतक शरीर रहता है? तबतक चेतना (प्राणशक्ति) भी रहती है। परिश्रम होनेपर उसमें चञ्चलता आती है? नहीं तो वह शान्त रहती है। साधनावस्थामें जो सात्त्विकी धृति थी? वह बोध होनेपर भी रहती है। परन्तु अन्तःकरणसे तादात्म्य न रहनेसे तत्त्वज्ञ महापुरुषका चेतना और धृतिरूप विकारोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता।तात्पर्य यह हुआ कि शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे जो विकार होते हैं? वे विकार बोध होनेपर नहीं होते। संघात? चेतना और धृतिरूप विकारोंके रहनेपर भी उनका स्वयंपर कुछ भी असर नहीं पड़ता। सम्बन्ध -- शरीरके साथ तादात्म्य कर लेनेसे ही इच्छा? द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं और उन विकारोंका स्वयंपर असर पड़ता है। इसलिये भगवान् शरीरके साथ किये हुए तादात्म्यको मिटानेके लिये आवश्यक बीस साधनोंका ज्ञान के नामसे आगेके पाँच श्लोकोंमें वर्णन करते हैं।
।।13.7।। अब यहाँ मुख्य विषय का प्रारम्भ होता है जिसे भगवान् ने पहले केवल यह शरीर कहकर निर्देशित किया था? उस क्षेत्र के तत्त्वों का यहाँ नामोल्लेख करके गणना की गई है।महाभूतानि आकाश? वायु? अग्नि? जल और पृथ्वी ये पंचमहाभूत हैं। ये महाभूत अपने सूक्ष्म रूप में तन्मात्रा कहलाते हैं। इन्हीं तन्मात्राओं के परस्पर मिलन से पाँच स्थूल महाभूत उत्पन्न होते हैं? जिनका निर्देश यहाँ इन्द्रियों के पाँच विषय कहकर किया गया है।अहंकार चैतन्य का उपाधियों के साथ तादात्म्य होने पर अहंभाव या अहंकार की उत्पत्ति होती है। यही उपाधियों द्वारा कर्मों का कर्ता और फलों का भोक्ता बनता है। संसार के सुखदुखादिक इसी के लिए होते हैं।बुद्धि समष्टि की दृष्टि से यहाँ बुद्धि शब्द प्रयुक्त है? जिसे सांख्यदर्शन में महत्तत्त्व कहते हैं। अन्तकरण की निश्चयात्मिका वृत्ति बुद्धि कहलाती है। जीवन में वस्तु की यथार्थता? अनुभवों का शुभ और अशुभ रूप में निर्धारण करना ही बुद्धि का कार्य है।अव्यक्त मनुष्य के मन और बुद्धि जिससे प्रेरित होते हैं? वह अव्यक्त वासनाएं हैं। जगत् में हम जो कर्म करते हैं तथा फल भोगते हैं? उनसे हमारे मन में संस्कार उत्पन्न होते हैं? जो हमारे भावी कर्म? विचार एवं भावनाओं को दिशा प्रदान करते हैं।एक व्यष्टि जीव के समस्त कर्मों का स्रोत उसकी वासनाएं होती हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि समष्टि की दृष्टि से सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का स्रोत समष्टि वासनाएं ही होनी चाहिए। इसी समष्टि वासना को सांख्यदर्शन में मूलप्रकृति कहा गया है? तो वेदान्त ने इसे माया कहा है। माया या मूलप्रकृति की उपाधि से विशिष्ट परमात्मा ही सृष्टिकर्ता ईश्वर है और वही परमात्मा व्यष्टि वासना की उपाधि (अविद्या) से विशिष्ट जीव बनता है।इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि अव्यक्त ही वह अदृष्ट कारण है? जिससे यह दृश्य जगत् कार्यरूप में व्यक्त हुआ है।दस इन्द्रियाँ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं? जिनके द्वारा प्रत्येक मनुष्य क्रमश विषय ग्रहण करके अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है।एक (मन) प्रस्तुत प्रकरण के सन्दर्भ में एक शब्द से निर्दिष्ट वस्तु मन है। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय केवल एक ही विषय का ग्रहण करती है। पाँचों इन्द्रियों से सम्बद्ध मन समस्त विषय संवेदनाओं को एकत्र कर बुद्धि के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात् उस निर्णय को वह पाँच कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्यान्वित करता है। इस प्रकार? विषय ग्रहण तथा प्रतिक्रिया का व्यक्त होना इन दोनों का कार्य एक मन ही करता है? इसलिए उसे यहाँ एक शब्द से इंगित करते हैं।पाँच इन्द्रियगोचर विषय पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले पाँच विषय हैं शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध। यही सम्पूर्ण जगत् है।इस प्रकार? इस श्लोक में सांख्य दर्शन के प्रसिद्ध चौबीस तत्त्वों की गणना की गयी है।क्षेत्र के तत्त्वों को बताने के पश्चात्? भगवान् उसके विकारों को बताते हैं। वे विकार हैं इच्छा? द्वेष? सुख? दुख? स्थूल देह? अन्तकरण वृत्ति तथा धृति अर्थात् धैर्य। संक्षेपत केवल शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि ही क्षेत्र नहीं है? वरन् उसमें इन उपाधियों द्वारा अनुभूत विषय? भावनाएं और विचार भी समाविष्ट हैं।द्रष्टा से भिन्न जो कुछ भी है? वह सब दृश्य है? क्षेत्र है। इस द्रष्टा आत्मचैतन्य की दृष्टि से जो कुछ भी दृश्य? ज्ञात तथा अनुभूत वस्तु है? वह सब क्षेत्र है। इसे गीता में अत्यन्त संक्षिप्त वाक्य यह शरीर के द्वारा दर्शाया गया है।इस सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला चैतन्यस्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहलाता है। अविद्या दशा में यह जीव? शरीर आदि क्षेत्र को ही अपना स्वरूप अर्थात् क्षेत्रज्ञ समझता है? इस कारण उसे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का बोध कराने के लिए? सर्वप्रथम? जड़ और चेतन का विवेक कराना आवश्यक है। इसीलिए? यहाँ क्षेत्र को इतने विस्तार पूर्वक बताया गया है।अब अगले पाँच श्लोकीय प्रकरण में ज्ञान को बताया गया है जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है? यहाँ ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस अन्तकरण से है? जो आत्मज्ञान के लिए आवश्यक गुणों से सम्पन्न हो? क्योंकि शुद्ध अन्तकरण के द्वारा ही आत्मा का अनुभव सम्भव होता है। अत? अब प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् श्रीकृष्ण बीस गुणों को बताते हैं? जो सदाचार और नैतिक नियम हैं।वे गुण हैं