अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।13.8।।
।।13.8।।मानित्व(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव) का न होना? दम्भित्व(दिखावटीपन) का न होना? अहिंसा? क्षमा? सरलता? गुरुकी सेवा? बाहरभीतरकी शुद्धि? स्थिरता और मनका वशमें होना।
।।13.8।। अमानित्व? अदम्भित्व? अहिंसा? क्षमा? आर्जव? आचार्य की सेवा? शुद्धि? स्थिरता और आत्मसंयम।।
।।13.8।। व्याख्या -- अमानित्वम् -- अपनेमें मानीपनके अभावका नाम अमानित्व है। वर्ण? आश्रम? योग्यता? विद्या? गुण? पद आदिको लेकर अपनेमें श्रेष्ठताका भाव होता है कि मैं मान्य हूँ? आदरणीय हूँ? परन्तु यह भाव उत्पत्तिविनाशशील शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे ही होता है। अतः इसमें जडताकी ही मुख्यता रहती है। इस मानीपनके रहनेसे साधकको वास्तविक ज्ञान नहीं होता। यह मानीपन साधकमें जितना कम रहेगा? उतना ही जडताका महत्त्व कम होगा। जडताका महत्त्व जितना कम होगा? जडताको लेकर अपनेमें मानीपनका भाव भी उतना ही कम होगा? और साधक उतना ही चिन्मयताकी तरफ तेजीसे लगेगा।उपाय -- जब साधक खुद बड़ा बन जाता है? तब उसमें मानीपन आ जाता है। अतः साधकको चाहिये कि जो श्रेष्ठ पुरुष हैं? साधनमें अपनेसे बड़े हैं? तत्त्वज्ञ (जीवन्मुक्त) हैं? उनका सङ्ग करे? उनके पासमें रहे? उनके अनुकूल बन जाय। इससे मानीपन दूर हो जाता है। इतना ही नहीं? उनके सङ्गसे बहुतसे दोष सुगमतापूर्वक दूर हो जाते हैं।गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं -- सबहि मानप्रद आपु अमानी (मानस 7। 38। 2) अर्थात् संत सभीको मान देनेवाले और स्वयं अमानी -- मान पानेकी इच्छासे रहित होते हैं। इसी तरह साधकको भी मानीपन दूर करनेके लिये सदा दूसरोंको मान? आदर? सत्कार? बड़ाई आदि देनेका स्वभाव बनाना चाहिये। ऐसा स्वभाव तभी बन सकता है? जब वह दूसरोंको किसीनकिसी दृष्टिसे अपनेसे श्रेष्ठ माने। यह नियम है कि प्रत्येक मनुष्य भिन्नभिन्न स्थितिवाला होते हुए भी कोईनकोई विशेषता रखता ही है। यह विशेषता वर्ण? आश्रम? गुण? विद्या? बुद्धि? योग्यता? पद? अधिकार आदि किसी भी कारणसे हो सकती है। अतः साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी विशेषताकी तरफ दृष्टि रखकर उनका सदा सम्मान करे। इस प्रकार दूसरोंको मान देनेका भीतरसे स्वभाव बन जानेसे स्वयं मान पानेकी इच्छाका स्वतः अभाव होता चला जाता है। हाँ? दूसरोंको मान देते समय साधकका उद्देश्य अपनेमें मानीपन मिटानेका होना चाहिये? बदलेमें दूसरोंसे मान पानेका नहीं।विशेष बात गीतामें भगवान्ने भक्तिमार्गके साधकमें सबसे पहले भयका अभाव बताया है -- अभयम् (16। 1)? और अन्तमें मानीपनका अभाव बताया है -- नातिमानिता (16। 3)। परन्तु ज्ञानमार्गके साधनमें मानीपनका अभाव सबसे पहले बताया है -- अमानित्वम् (13। 7) और भयका अभाव सबसे अन्तमें बताया है -- तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (13। 11)। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे बालक अपनी माँको देखकर अभय हो जाता है? ऐसे ही भक्तिमार्गमें साधक प्रह्लादजीकी तरह आरम्भसे ही सब जगह अपने प्रभुको ही देखता है? इसलिये वह आरम्भमें ही अभय हो जाता है। भक्तमें स्वयं अमानी रहकर दूसरोंको मान देनेकी आदत शुरूसे ही रहती है। अन्तमें उसका देहाध्यास अर्थात् शरीरसे मानी हुई एकता अपनेआप मिट जाती है? तो वह सर्वथा अमानी हो जाता है। परन्तु ज्ञानमार्गमें साधक आरम्भसे ही शरीरके साथ अपनी एकता नहीं मानता (13। 1)? इसलिये वह आरम्भमें ही अमानी हो जाता है क्योंकि शरीरसे एकता माननेसे ही मानीपन आता है। अन्तमें वह तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सब जगह देखकर अभय हो जाता है।अदम्भित्वम् -- दम्भ नाम दिखावटीपनका है। लोग हमारेमें अच्छे गुण देखेंगे तो वे हमारा आदर करेंगे? हमें माला पहनायेंगे? हमारी पूजा करेंगे? हमें ऊँचे आसनपर बैठायेंगे आदिको लेकर अपनेमें वैसा गुण न होनेपर भी गुण दिखाना? अपनेमें गुण कम होनेपर भी उसे बाहरसे ज्यादा प्रकट करना -- यह सब दम्भ है।अपनेमें सदाचार है? शुद्धि है? पवित्रता है? पर अगर लोगोंके सामने हम पवित्रता रखेंगे तो वे हमारी हँसी उड़ायेंगे? हमारी निन्दा करेंगे -- ऐसा सोचकर अपनी पवित्रता छोड़ देना और सामनेवालेकी तरह बन जाना ही दम्भ है। जैसे? आजकल विवाह आदिके अवसरोंपर? क्लबोंहोटलोंके स्वागतसमारोहोंमें अथवा वायुयान आदिपर यात्रा करते समय पवित्र आचरणवाले सज्जन भी मानसत्कार आदिके लिये अपवित्र खाद्य पदार्थ लेते देखे जाते हैं। यह भी दम्भ ही है। इसी तरह दुराचारी पुरुष भी अच्छे लोगोंके समुदायमें आनेपर मान? सत्कार? कीर्ति? प्रतिष्ठा आदिकी प्राप्तिकी इच्छासे अपनेको बाहरसे धर्मात्मा? भक्त? सेवक? दानी आदि प्रकट करने लगते हैं? तो यह भी दम्भ ही है।कोई साधक एकान्तमें? बंद कमरेमें बैठकर जप? ध्यान? चिन्तन कर रहा है और साथमें आलस्य? नींद भी ले रहा है। परन्तु जब बाहरसे उसपर श्रद्धा? पूज्यभाव रखनेवाले आदमीकी आवाज आती है? तब उस आवाजको सुनते ही वह सावधान होकर जपध्यान करने लग जाता है और उसके नींदआलस्य भाग जाते हैं। यह भी एक सूक्ष्म दम्भ है। इसमें भी देखा जाय तो आवाज सुनकर सावधान हो जाना कोई दोष नहीं है? पर उसमें जो दिखावटीपनका भाव आ जाता है कि यह आदमी मेरेमें अश्रद्धा न कर ले? यह भाव आना दोष है। इस भावके स्थानपर ऐसा भाव आना चाहिये कि भगवान्ने बड़ा अच्छा किया कि मेरेको सावधान करके जपध्यानमें लगा दिया। इन सब प्रकारके दम्भोंका अभाव होना अदम्भित्व है।उपाय -- साधकको अपना उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्तिका ही रखना चाहिये? लोगोंको दिखानेका किञ्चिन्मात्र भी नही। अगर उसमें दिखावटीपन आ जायगा तो उसके साधनमें शिथिलता आ जायगी? जिससे उद्देश्यकी सिद्धिमें बाधा लग जायेगी। अतः उसको कोई अच्छा? बुरा? ऊँच? नीच जो कुछ भी समझे? इसकी तरफ खयाल न करके वह अपने साधनमें लगा रहे। ऐसी सावधानी रखनेसे दम्भ मिट जाता है।अहिंसा -- मन? वाणी और शरीरसे कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न देनेका नाम अहिंसा है। कर्ताभेदसे हिंसा तीन प्रकारकी होती है -- कृत (स्वयं हिंसा करना)? कारित (किसीसे हिंसा करवाना) और अनुमोदित (हिंसाका अनुमोदनसमर्थन करना)।उपर्युक्त तीन प्रकारकी हिंसा तीन भावोंसे होती है -- क्रोधसे? लोभसे और मोहसे। तात्पर्य है कि क्रोधसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है लोभसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है तथा मोहसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है। इसी तरह हिंसा नौ प्रकारकी हो जाती है।उपर्युक्त नौ प्रकारकी हिंसामें तीन मात्राएँ होती हैं -- मृदुमात्रा? मध्यमात्रा और अधिमात्रा। किसीको थोड़ा दुःख देना मृदुमात्रामें हिंसा है? मृदुमात्रासे अधिक दुःख देना मध्यमात्रामें हिंसा है और बहुत अधिक घायल कर देना अथवा खत्म कर देना अधिमात्रामें हिंसा है। इस तरह मृदु? मध्य और अधिमात्राके भेदसे हिंसा सत्ताईस प्रकारकी हो जाती है।उपर्युक्त सत्ताईस प्रकारकी हिंसा तीन करणोंसे होती है -- शरीरसे? वाणीसे और मनसे। इस तरह हिंसा इक्यासी प्रकारकी हो जाती है। इनमेंसे किसी भी प्रकारकी हिंसा न करनेका नाम अहिंसा है।अहिंसा भी चार प्रकार की होती है -- देशगत? कालगत? समयगत और व्यक्तिगत। अमुक तीर्थमें? अमुक मन्दिरमें? अमुक स्थानमें किसीको दुःख नहीं देना है -- यह देशगत अहिंसा है। अमावस्या? पूर्णिमा? व्यतिपात आदि पर्वोंके दिन किसीको दुःख नहीं देना है -- यह कालगत अहिंसा है। सन्तके मिलनेपर? पुत्रके जन्मदिनपर? पिताके निधनदिवसपर किसीको दुःख नहीं देना है -- यह समयगत अहिंसा है। गाय? हरिण आदिको तथा गुरुजन? मातापिता? बालक आदिको दुःख नहीं देना है -- यह व्यक्तिगत अहिंसा है।किसी भी देश? काल आदिमें क्रोधलोभमोहपूर्वक किसीको भी शरीर? वाणी और मनसे किसी भी प्रकारसे दुःख न देनेसे यह सार्वभौम अहिंसा महाव्रत कहलाती है।उपाय -- जैसे साधारण प्राणी अपने शरीरका सुख चाहता है? ऐसे ही साधकको सबके सुखमें अपना सुख? सबके हितमें अपना हित और सबकी सेवामें अपनी सेवा माननी चाहिये अर्थात् सबके सुख? हित और सेवासे अपना सुख? हित और सेवा अलग नहीं माननी चाहिये। सब अपने ही स्वरूप हैं -- ऐसा विवेक जाग्रत् रहनेसे उसके द्वारा किसीको दुःख देनेकी क्रिया होगी ही नहीं और उसमें अहिंसाभाव स्वतः आ जायगा।क्षान्तिः -- क्षान्ति नाम सहनशीलता अर्थात् क्षमाका है। अपनेमें सामर्थ्य होते हुए भी अपराध करनेवालेको कभी किसी प्रकारसे किञ्चिन्मात्र भी दण्ड न मिले -- ऐसा भाव रखना तथा उससे बदला लेने अथवा किसी दूसरेके द्वारा दण्ड दिलवानेका भाव न रखना ही क्षान्ति है।उपाय -- (1) सहनशीलता अपने स्वरूपमें स्वतःसिद्ध है क्योंकि अपने स्वरूपमें कभी विकृति होती ही नहीं। अतः कभी अमुकने दुःख दिया है? अपराध किया है -- ऐसी कोई वृत्ति आ भी जाय? तो उस समय यह,विचार स्वतः आना चाहिये कि हमारा कोई बिगाड़ कर ही नहीं सकता? हमारेमें कोई विकृति आ ही नहीं सकती? वह हमारे स्वरूपतक पहुँच ही नहीं सकती। ऐसा विचार करनेसे क्षमाभावः स्वतः आ जाता है।(2) जैसे भोजन करते समय अपने ही दाँतोंसे अपनी जीभ कट जाय? तो हम दाँतोंपर क्रोध नहीं करते? दाँतोंको दण्ड नहीं देते। हाँ? जीभ ठीक हो जाय -- यह बात तो मनमें आती है? पर दाँतोंको तोड़ दें -- यह भाव मनमें कभी आता ही नहीं। कारण कि दाँतोंको तोड़ेंगे तो एक नयी पीड़ा और होगी अर्थात् पीड़ा दुगुनी होगी? जिससे हमारेको ही दुःख होगा? हमारा ही अनिष्ट होगा। ऐसे ही बिना कारण कोई हमारा अपराध करता है? हमें दुःख देता है? उसको अगर हम दण्ड देंगे? दुःख देंगे तो वास्तवमें हमारा ही अनिष्ट होगा क्योंकि वह भी तो अपना ही स्वरूप है (गीता 6। 29)।आर्जवम् -- सरलसीधेपनके भावको आर्जव कहते हैं। साधकके शरीर? मन और वाणीमें सरलसीधापन होना चाहिये। शरीरकी सजावटका भाव न होना? रहनसहनमें सादगी तथा चालढालमें स्वाभाविक सीधापन होना? ऐंठअकड़ न होना -- यह शरीरकी सरलता है। छल? कपट? ईर्ष्या? द्वेष आदिका न होना तथा निष्कपटता? सौम्यता? हितैषिता? दया आदिका होना -- यह मनकी सरलता है। व्यंग्य? निन्दा? चुगली आदि न करना? चुभनेवाले एवं अपमानजनक वचन न बोलना तथा सरल? प्रिय और हितकारक वचन बोलना -- यह वाणीकी सरलता है।उपाय -- अपनेको एक देशमें माननेसे अर्थात् स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरके साथ सम्बन्ध रखनेसे अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दीखती है। इससे व्यवहारमें भी चलतेफिरते? उठतेबैठते? आदि क्रिया करते हुए कुछ टेढ़ापन? अकड़ आ जाती है। अतः शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे और अपने स्वरूपकी तरफ दृष्टि रखनेसे यह अकड़ मिट जाती है और साधकमें स्वतः सरलता? नम्रता आ जाती है।आचार्योपासनम् -- विद्या और सदुपदेश देनेवाले गुरुका नाम भी आचार्य है और उनकी सेवासे भी लाभ होता है परन्तु यहाँ आचार्य पद परमात्मतत्त्वको प्राप्त जीवन्मुक्त महापुरुषका ही वाचक है। आचार्यको दण्डवत्प्रणाम करना? उनका आदरसत्कार करना और उनके शरीरको सुख पहुँचानेकी शास्त्रविहित चेष्टा करना भी उनकी उपासना है? पर वास्तवमें उनके सिद्धान्तों और भावोंके अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी सच्ची उपासना है। कारण कि देहाभिमानीकी सेवा तो उसके देहकी सेवा करनेसे ही हो जाती है? पर गुणातीत महापुरुषके केवल देहकी सेवा करना उनकी पूर्ण सेवा नहीं है।भगवान्ने दैवी सम्पत्तिके लक्षणोंमें आचार्योपासनम् पद न देकर यहाँ ज्ञानके साधनोंमें उसे दिया है। इसमें एक विशेष रहस्यकी बात मालूम देती है कि ज्ञानमार्गमें गुरुकी जितनी आवश्यकता है? उतनी आवश्यकता भक्तिमार्गमें नहीं है। कारण कि भक्तिमार्गमें साधक सर्वथा भगवान्के आश्रित रहकर ही साधन करता है? इसलिये भगवान् स्वयं उसपर कृपा करके उसके योगक्षेमका वहन करते हैं (गीता 9। 22)? उसकी कमियोंको? विघ्नबाधाओंको दूर कर देते हैं (गीता 18। 58) और उसको तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति करा देते हैं (गीता 10। 11)। परन्तु ज्ञानमार्गमें साधक अपनी साधनाके बलपर चलता है? इसलिये उसमें कुछ सूक्ष्म कमियाँ रह सकती हैं जैसे -- (1) शास्त्रों एवं संतोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करके जब साधक शरीरको (अपनी धारणासे) अपनेसे अलग मानता है? तब उसे शान्ति मिलती है। ऐसी दशामें वह यह मान लेता है कि मेरेको तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया परन्तु जब मानअपमानकी स्थिति सामने आती है अथवा अपनी इच्छाके अनुकूल या प्रतिकूल घटना घटती है? तब अन्तःकरणमें हर्षशोक पैदा हो जाते हैं? जिससे सिद्ध होता है कि अभी तत्त्वज्ञान हुआ नहीं।(2) किसी आदमीके द्वारा अचानक अपना नाम सुनायी पड़नेपर अन्तःकरणमें इस नामवाला शरीर मैं हूँ, -- ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है? तो समझना चाहिये कि अभी मेरी शरीरमें ही स्थिति है।(3) साधनाकी ऊँची स्थिति प्राप्त होनेपर जाग्रत्अवस्थामें तो साधकको जडचेतनका विवेक अच्छी तरह रहता है? पर निद्रावस्थामें उसकी विस्मृति हो जाती है। इसलिये नींदसे जगनेपर साधक उस विवेकको पकड़ता है? जब कि सिद्ध महापुरुषका विवेक स्वाभाविक रूपसे रहता है।(4) साधकमें पूज्यजनोंसे भी मानआदर पानेकी इच्छा हो जाती है जैसे -- जब वह संतों या गुरुजनोंकी सेवा करता है? सत्सङ्ग आदिमें मुख्यतासे भाग लेता है? तब उसके भीतर ऐसा भाव पैदा होता है कि वे संत या गुरुजन मेरेको दूसरोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ मानें। यह उसकी सूक्ष्म कमी ही है।इस प्रकार साधकमें कई कमियोंके रहनेकी सम्भावना रहती है? जिनकी तरफ खयाल न रहनेसे वह अपने अधूरे ज्ञानको भी पूर्ण मान सकता है। इसलिये भगवान् आचार्योपासनम् पदसे यह कह रहे हैं कि ज्ञानमार्गके साधकको आचार्यके पास रहकर उनकी अधीनतामें ही साधन करना चाहिये। चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि तू तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके पास जा? उनको दण्डवत्प्रणाम कर? उनकी सेवा कर और अपनी जिज्ञासापूर्तिके लिये नम्रतापूर्वक प्रश्न कर तो वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महात्मा तेरेको ज्ञानका उपदेश देंगे। इस प्रकार साधन करनेपर वे महापुरुष उसकी उन सूक्ष्म कमियोंको? जिनको वह खुद भी नहीं जानता? दूर करके उसको सुगमतासे परमात्मतत्त्वका अनुभव करा सकते हैं।साधकको शुरूमें ही सोचसमझकर आचार्य? संतमहापुरुषके पास जाना चाहिये। आचार्य (गुरु) कैसा हो इस सम्बन्धमें ये बातें ध्यानमें रखनी चाहिये -- (1) अपनी दृष्टिमें जो वास्तविक बोधवान्? तत्त्वज्ञ दीखते हों।(2) जो कर्मयोग? ज्ञानयोग? भक्तियोग आदि साधनोंको ठीकठीक जाननेवाले हों।(3) जिनके सङ्गसे? वचनोंसे हमारे हृदयमें रहनेवाली शङ्काएँ बिना पूछे ही स्वतः दूर हो जाती हों।(4) जिनके पासमें रहनेसे प्रसन्नता? शान्तिका अनुभव होता हो।(5) जो हमारे साथ केवल हमारे हितके लिये ही सम्बन्ध रखते हुए दीखते हों।(6) जो हमारेसे किसी भी वस्तुकी किञ्चिन्मात्र भी आशा न रखते हों।(7) जिनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल साधकोंके हितके लिये ही होती हों।(8) जिनके पासमें रहनेसे लक्ष्यकी तरफ हमारी लगन स्वतः बढ़ती हो।(9) जिनके सङ्ग? दर्शन? भाषण? स्मरण आदिसे हमारे दुर्गुणदुराचार दूर होकर स्वतः सद्गुणसदाचाररूप दैवी सम्पत्ति आती हो।(10) जिनके सिवाय और किसीमें वैसी अलौकिकता? विलक्षणता न दीखती हो।ऐसे आचार्य? संतके पास रहना चाहिये और केवल अपने उद्धारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये। वे क्या करते हैं? क्या नहीं करते वे ऐसी क्रिया नहीं करते हैं वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं आदिमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये। साधकको तो उनके अधीन होकर रहना चाहिये? उनकी आज्ञा? रुखके अनुसार मात्र क्रियाएँ करनी चाहिये और श्रद्धाभावपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिये। अगर वे महापुरुष न चाहते हों तो उनसे गुरुशिष्यका व्यावहारिक सम्बन्ध भी जोड़नेकी आवश्यकता नहीं है। हाँ? उनको हृदयसे गुरु मानकर उनपर श्रद्धा रखनेमें कोई आपत्ति नहीं है।अगर ऐसे महापुरुष न मिलें तो साधकको चाहिये कि वह केवल परमात्माके परायण होकर उनके ध्यान? चिन्तन आदिमें लग जाय और विश्वास रखे कि परमात्मा अवश्य गुरुकी प्राप्ति करा देंगे। वास्तवमें देखा जाय तो पूर्णतया परमात्मापर निर्भर हो जानेके बाद गुरुका काम परमात्मा ही पूर्ण कर देते हैं क्योंकि गुरुके द्वारा भी वस्तुतः परमात्मा ही साधकका मार्गदर्शन करते हैं।उपाय -- जिस साधकका परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य है? उसमें यह भाव रहना चाहिये कि आजतक जिसकिसीको जो कुछ भी मिला है? वह गुरुकी? सन्तोंकी सेवासे उनकी प्रसन्नतासे? उनके अनुकूल बननेसे ही मिला है (टिप्पणी प0 679) अतः मेरेको भी सच्चे हृदयसे सन्तोंकी सेवा करनी है।विशेष बात शिष्यका कर्तव्य है -- गुरुकी सेवा करना। अगर शिष्य अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करे तो उसका संसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और वह गुरुतत्त्वके साथ एक हो जाता है अर्थात् उसमें गुरुत्व आ जाता है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर मुक्ति और गुरुतत्त्वसे एक होनेपर भक्ति प्राप्त होती है। शिष्यमें गुरुत्व आनेसे उसमें शिष्यत्व नहीं रहता। उसपर शास्त्र आदिका शासन नहीं रहता। अगर शिष्य अपने कर्तव्यका पालन न करे तो उसका नाम तो शिष्य रहेगा? पर उसमें शिष्यत्व नहीं रहेगा। शिष्यत्व न रहनेसे उसका संसारसे सम्बन्धविच्छेद नहीं होगा और उसमें गुरुत्व भी नहीं आयेगा। अतः उसमें संसारकी दासता रहेगी।गुरु केवल मेरा ही कल्याण करे -- ऐसा भाव रखना भी शिष्यके लिये बन्धन है। शिष्यको चाहिये कि वह अपने लिये कुछ भी न चाहकर सर्वथा गुरुके समर्पित हो जाय? उनकी मरजीमें ही अपनी मरजी मिला दे।गुरुका कर्तव्य है -- शिष्यका कल्याण करना। अगर गुरु अपने कर्तव्यका पालन न करे तो उसका नाम तो गुरु रहेगा? पर उसमें गुरुत्व नहीं रहेगा। गुरुत्व न रहनेसे उसमें शिष्यका दासत्व रहेगा। जबतक गुरु शिष्यसे कुछ भी (धन? मान? बड़ाई आदि) चाहता है? तबतक उसमें गुरुत्व न रहकर शिष्यकी दासता रहती है।शौचम् -- बाहरभीतरकी शुद्धिका नाम शौच है। जल? मिट्टी आदिसे शरीरकी शुद्धि होती है और दया? क्षमा? उदारता आदिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है।उपाय -- शरीर बना ही ऐसे पदार्थोंसे है कि इसको चाहे जितना शुद्ध करते रहें? यह अशुद्ध ही रहता है। इससे बारबार अशुद्धि ही निकलती रहती है। अतः इसको बारबार शुद्ध करतेकरते इसकी वास्तविक अशुद्धिका ज्ञान होता है? जिससे शरीरसे अरुचि (उपरामता) हो जाती है।वर्ण? आश्रम आदिके अनुसार सच्चाईके साथ धनका उपार्जन करना झूठ? कपट आदि न करना पराया हक न आने देना खानपानमें पवित्र चीजें काममें लाना आदिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है।स्थैर्यम् -- स्थैर्य नाम स्थिरताका? विचलित न होनेका है। जो विचार कर लिया है? जिसको लक्ष्य बना लिया है? उससे विचलित न होना स्थैर्य है। मेरेको तत्त्वज्ञान प्राप्त करना ही है -- ऐसा दृढ़ निश्चय करना और विघ्नबाधाओंके आनेपर भी उनसे विचलित न होकर अपने निश्चयके अनुसार साधनमें तत्परतापूर्वक लगे रहना -- इसीको यहाँ स्थैर्यम् पदसे कहा गया है।उपाय -- (1) सांसारिक भोग और संग्रहमें आसक्त पुरुषोंकी बुद्धि एक निश्चयपर दृढ़ नहीं रहती (गीता 2। 44)। अतः साधकको भोग और संग्रहकी आसक्तिका त्याग कर देना चाहिये।(2) साधक अगर किसी छोटेसेछोटे कार्यका भी विचार कर ले? तो उस विचारकी हिंसा न करे अर्थात् उसपर दृढ़तासे स्थिर रहे। ऐसा करनेसे उसका स्थिर रहनेका स्वभाव बन जायगा।(3) साधकका संतों और शास्त्रोंके वचनोंपर जितना अधिक विश्वास होगा? उतनी ही उसमें स्थिरता आयेगी।आत्मविनिग्रहः -- यहाँ आत्मा नाम मनका है? और उसको वशमें करना ही आत्मविनिग्रहः है। मनमें दो तरहकी चीजें पैदा होती हैं -- स्फुरणा और संकल्प। स्फुरणा अनेक प्रकारकी होती है और वह आतीजाती रहती हैं। पर जिस स्फुरणामें मन चिपक जाता है? जिसको मन पकड़ लेता है? वह संकल्प बन जाती है। संकल्पमें दो चीजें रहती हैं -- राग और द्वेष। इन दोनोंको लेकर मनमें चिन्तन होता है। स्फुरणा तो दर्पणके दृश्यकी तरह होती है। दर्पणमें दृश्य दीखता तो है? पर कोई भी दृश्य चिपकता नहीं अर्थात् दर्पण किसी भी दृश्यको पकड़ता नहीं। परन्तु संकल्प कैमरेकी फिल्मकी तरह होता है? जो दृश्यको पकड़ लेता है। अभ्याससे अर्थात् मनको बारबार ध्येयमें लगानेसे स्फुरणाएँ नष्ट हो जाती हैं और वैराग्यसे अर्थात् किसी वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ आदिमें राग? महत्त्व न रहनेसे संकल्प नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्यसे मन वशमें हो जाता है (गीता 6। 35)।उपाय -- (मनको वशमें करनेके उपाय छठे अध्यायके छब्बीसवें श्लोककी व्याख्यामें देखने चाहिये)।
।।13.8।। अमानित्व स्वयं को पूजनीय व्यक्ति समझना मान कहलाता है। उसका अभाव अमानित्व है।अदम्भित्व अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन न करने का स्वभाव।अहिंसा शरीर? मन और वाणी से किसी को पीड़ा न पहुँचाना।क्षान्ति किसी के अपराध किये जाने पर भी मन में विकार का न होना क्षान्ति अर्थात् सहनशक्ति है।आर्जव हृदय का सरल भाव? अकुटिलता।आचार्योपासना गुरु की केवल शारीरिक सेवा ही नहीं? वरन् उनके हृदय की पवित्रता और बुद्धि के तत्त्वनिश्चय के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न ही वास्तविक आचार्योपासना है।शौचम् शरीर? वस्त्र? बाह्य वातावरण तथा मन की भावनाओं? विचारों? उद्देश्यों तथा अन्य वृत्तियों की शुद्धि भी इस शब्द से अभिप्रेत है।स्थिरता जीवन के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय और एकनिष्ठ प्रयत्न।आत्मसंयम जगत् के साथ व्यवहार करते समय इन्द्रियों तथा मन पर संयम होना।
13.8 Humility, unpretentiousness, non-injury, for-bearance, sincerity, service of the teacher, cleanliness, steadiness, control of body and organs;
13.8 Humility, unpretentiousness, non-injury, forgiveness, uprightness, service of the teacher, purity, steadfastness, self-control.
13.8. Absence of pride; absence of hypocricy; harm-lessness; patience; uprightness; service to the preceptor; purity [of mind and body]; steadfastness; self-control;
13.8 अमानित्वम् humility? अदम्भित्वम् unpretentiousness? अहिंसा noninjury? क्षान्तिः forgiveness? आर्जवम् uprightness? आचार्योपासनम् service of the teacher? शौचम् purity? स्थैर्यम् steadiness? आत्मविनिग्रहः selfcontrol.Commentary These are the alities that constitute wisdom or lead to wisdom. These are the attributes of the man whose mind is turned towards the inner wisdom. If these characteristics are seen in a man in their entirety? you can infer that the knowledge of the Self has dawned in him.Humility It is the negation of vanity. It is absence of selfesteem or selfpraise. The basis of pride is the consciousness of possessing something (wealth? knowledge? strength? beauty and virtuous alities) in a larger measure than others. A proud man possesses at least something but a man of vanity possesses nothing and yet he thinks he is superior to others. Vanity is exaggerated pride. A humble man dislikes respect? honour and praise. He shuns fame and distinction. He never shows his knowledge? ability? prowess? etc. He never praises himself.Absence of hypocrisy Hypocrisy is the desire to appear what one is not. A Sannyasi has some virtues and a little theoretical knowledge derived from books. He pretends to be a liberated sage. This is religious hypocrisy. A man in whom this is absent is simple and modest. He never advertises his own virtuous alities in order to get respect? name and worship from others. He will never disclose any meritorious or charitable act done by him. He is free from pedantry. He will never sell his knowledge in order to achieve fame.Ahimsa Noninjuring of any living being in thought? word and deed. He who practises Ahimsa places his feet very carefully on the ground and avoids stepping on any living creature. If he perceives any living creature in front of him he stops and turns to the other side. His heart is full of compassion.Kshanti Forbearance? patience? forgiveness. This is a true symptom of knowledge. The man of wisdom puts up with everything. He is not affected a bit when others injure him. He never retaliates. He bears insult and injury calmly.Arjavam Straightforwardness. The man of wisdom is upright or straightforward. He is free from cunningness or diplomacy? doubledealing or crookedness. He is ite frank? candid or openhearted. He does not hide anything. His thoughts and words agree. He speaks his mind openly to the people. He is as simple as a child in his speech. He has a heart as pure as a crystal. He never cheats others.Service of the teacher Devotion to the preceptor? worship of the Guru doing acts of service to him who teaches BrahmaVidya or the means of attaining liberation. Acharya is the Master in whom the divine wisdom is embodied. Service of the Guru enables the aspirant to attain Selfrealisation. The aspirant adores his Guru as Brahman? God Himself. He worships him as Lord Vishnu. He superimposes on him all the attributes of Brahman or Lord Vishnu. He realises Brahman in and through his Guru. This is the fruit of devotion to the Guru. For a student of Vedanta devotion to the Guru is absolutely necessary. Even for a correct understanding of the scriptures the guidance of a Guru is necessary.Purity is of two kinds? external and internal purity. External purity is cleansing of the physical body with earth and water. Internal purity is cleansing of the mind of the dirt of attachment? hatred and other passions? by the method of Pratipaksha Bhavana? i.e.? by cultivating the opposite positive virtues? and by the recognition of the evil in all objects of the senses.Steadfastness The aspirant never leaves his efforts on the path of salvation even though he comes across many stumbling blocks on the path. This is steadfastness or firmness. No meditation on Brahman is possible with a fickle mind.Selfcontrol is control of the aggregate of the body and the senses. The senses and the body which naturally run externally towards the sensual objects are checked and directed on to the path of salvation. No meditation is possible in a body wherein the senses are out of control and distract attention.
13.8 Amanitvam, humility-the ality of a vain person is manitvam, boasting about oneself; the absence of that is amanitvam. Adambhitvam, unpretentiousness- proclaming ones own virtues is dambhitvam; the absence of that is adambhitvam. Ahimsa, non-injury, absence of cruely towards creatures; ksantih, for-bearance, remaining undisturbed when offened by others; arjavam, sincerity, uprightness, absence of crookedness; acarya-upasanam, service of the teacher, attending on the teacher who instructs in the disciplines for Liberation, through acts of service etc.; saucam, cleanliness-washing away the dirt from the body with earth and water, and internally, removing the dirt of the mind such as attachment etc. by thinking of their opposites; sthairyam, steadiness, perseverance in the path to Liberation alone; atma-vinigrahah, control of the aggregate of body and organs which is referred to by the word self, but which is inimical to the Self; restricting only to the right path that (aggregate) which naturally strays away in all directions. Further,
13.8 See Comment under 13.12
13.8 Amanitva means freedom from superiority complex towards eminent people. Adambhitva: Dambha is the practice of Dharma for winning fame as a virtuous person; freedom from it is Adambhitva. Ahima is absence of tendency to injure others by speech, mind and body. Ksanti is the tendency of keeping the mind unmodified even when harmed by others. Arjava means having a uniform disposition towards others in speech, mind and body. Acaryopasana means being intent in prostrating, estioning, performing service etc., in regard to the teacher who imparts the knowledge of the self. Sauca is the competence of the mind, speech and body, as enjoined by the Sastras, for the knowledge of the self and the means of this attainment. Sthairya is possessing unshakable faith in the Sastras concerning the self. Atma-vinigraha means the turning away from all objects that are different in nature from the self.
The two knowers of the field, the jiva and paramatma, which are to be known by distinguishing them from the field just mentioned will be described in detail. The twenty factors to be used for gaining that knowledge are mentioned in five verses. Of these, eighteen are common to both the devotees and the jnanis. However the devotees zealously engage in the one element mentioned in the eleventh verse, mayi cananya-yogena bhaktir avyabhicarini. The other seventeen items manifest automatically for those who engage in that one item. The bhaktas do not devote effort to the seventeen items individually. This is the tradition. The last two items are especially for the jnanis. The meaning of the items such as amanitva is clear, therefore no comments are given. Sauca refers to both internal and external cleanliness. The smrti says: saucam ca dvividham proktam bahyam abhyantaram tatha mrj-jalabhyam smrtam bahyam bhava-suddhis tathantaram There are two types of cleanliness described, internal and external. External cleanliness is by water and earth. Internal cleanliness is purity of mind. Anudarsanam means to observe constantly the detrimental effect of sorrow, caused by birth, death, old age and disease. Asakti means to give up affection for sons and others. Anabhisvanga means of lack of identification with the happiness and distress of sons and others. Sama-cittatvam means to remain calm in the face of receiving either favorable or unfavorable treatment or events. One should have bhakti, unmixed with karma, jnana, tapa or yoga (mayi ananya yogena bhaktir avyabhicarini), unto me, Syamasundara. The word ca here indicates that bhakti may also be performed with a slight mixture of jnana or other elements (jnana misra bhakti). The first, the unmixed type, will be executed by the devotees. The second type will be executed by the jnanis. Some devotees say however that this statement, being in the last six chapters, is for showing that just as ananya bhakti produces prema, it is also useful for realization of paramatma. And if the sentence refers only to jnanls, then the phrase ananya yogena means “by thinking of everything as atma.” Avyabhicarini means that one should do it daily. Madhusudana Sarasvati says the word avyabhicarini refers to bhakti which cannot be stopped by any means at all. Adhyatma jnana means knowledge related to the atma. One should engage in that knowledge constantly (nityam), in order to maintain purity of the objects of meditation (adhyatma-jnana-nityatvam). One should always keep in mind one’s goal of moksa in ones cultivation of knowledge of truth (tattva-jnanartha-darsanam). These twenty elements are the means of attaining knowledge of jiva and paramatma in a general way (jnanam here refers to the means of knowledge rather than knowledge itself). The special means of knowledge for realizing paramatma will be explained later. Doing the opposite of this, such as having pride instead of lack of pride, is called ignorance.
Now in order to elucidate at length the purely spiritual ksetra-jna as the object to be realised and its distinct difference from the previously described ksetra; Lord Krishna will enumerate in these five verses the means and path to realisation of the ksetra-jna beginning with the word amanitvam meaning humility not seeking recognition, adambhitvam means to be without pride, ahimsa is not causing pain to other living beings, ksanti is tolerance in the face of insults, arjava is uprightness and straightforwardness, acaryapasana means unreserved and unmotivated service to the Vaisnava spiritual master, sauca means purity both internal and external. In the Sandilya Upanisad beginning saucam ca dvividham prohitam refers to two types of purity. External purity is obtained by rubbing earth and water while internal purity is obtained by purification of the mind. The word sthairya means steadfastness on the path of righteousness by one who has accepted it, atma-vinigraha or control over the body and the senses which uncontrolled hinder realisation of the atma or immortal soul, vairagya indriyartha means renunciation of sense objects, ahankarah means relinquishing false ego and identification of the physical body as the self, dukha-dosa-anudarsanam means dispassion by pondering the misery of samsara or the perpetual cycle of birth and death in material existence, asakti means equipoise and non-attachment to wife, sons and other loved ones, anabhisvanga means remaining even minded to s what life gives whether evil or excellence befalls one, sama-citta means to avoid both happiness or distress by temporary external circumstances. The compound words avyabhicarini bhakti means unwavering, unalloyed loving devotion to the Supreme Lord Krishna and realising the atma in all living beings, vivekta- desa-sevitam is fondness for performing austerities in solitary places, aratir jana-samsadt means indifference to mundane topics and mundane association. The words adhyatma-jnana nityatvam means always interested in spiritual knowledge and self-realisation and atma-tattva or knowledge of the immortal soul within. Continuously reflecting, contemplating and engaging ones total being in understanding the purpose and goal of human existence by comprehending the precise significance of various verses and conceptions in the Vedic scriptures to learn and realise the ultimate truth and upon achieving moksa or liberation from material existence to further attain the ultimate consciousness and eternal association with the Supreme Lord which is the highest apex of all existence. Thus these 20 virtues that have been described by Lord Krishna constitute the essence of knowledge for their attributes are the means which opens the way to this highest existence. Whatever is contrary to these 20 virtues of renowned excellence should always be rejected as it is understood to be ignorance and emphatically antagonistic to truth. This has been confirmed in by gone ages by great sages and seers such as Vyasa, Vasistha and Parasara.
In these five verses Lord Krishna defines the quintessential qualities and attributes to achieve the means to fulfil the highest purpose of human existence. Realisation of these 24 essential principles means knowledge through the experience of living them in conjunction with the injunctions of the Vedic scriptures. The Supreme Lord Krishna is the object of attainment for these essential principles and is the ultimate goal to be attained. Realisation through experience equates to imbibing and living these 20 principles. That by which things become realised is known as knowledge. Thus knowledge is known to be a means of realisation. Emphasis on jnana or knowledge is herein given as the goal for self-realisation.
Amanitvam is absence of desire for honour due to reverence and humilty. Adambhitva is lack of pride due to simplicity and absence of duplicity. Ahimsa is non-violence to others by thought, word or action. Ksantih is tolerance, forbearance even when antagonised. Arjavam is sincerity and straightforwardness even to those duplicitous. Acaryopasana is unmotivated devotion to the guru who imparts spiritual knowledge. Saucam is purity in thought, word and action to enable to qualify for spiritual knowledge. Sthairya is unwavering faith in the spiritual masters teachings from the Vedic scriptures. Atma-vinigriha is self control by withdrawing the mind from pursuits other than spiritual. Vairagyam is renunciation of activities unrelated to the soul. Anahankara is absence of false ego or misidentification of the physical body as the self. Anudarsanam is reflecting on the evils of birth and inevitable old age, disease and death. Asakti is detachment from over attraction to wife, sons and family members. Anabhisvangah is neutrality in both happiness and distress. Sama-citta is equipoise of mind in both favourable and unfavourable circumstances. Bhaktih is rendering exclusive loving devotion to the Supreme Lord Krishna. Vivikta-desa-sevitvam is fondness for solitary places out in nature for inhabiting. Adhyatma-jnana-nityatvam is to be permanently established in knowledge of the soul. Tattva-jnana-darsana is contemplating the spiritual teachings of the Vedas to gain insight. Jnana refers to that knowledge where one can achieve atma tattva or realisation of the soul. The aggregate of imbibing these 20 most excellent attributes facilitates atma tattva within the jiva or embodied being. Whatever is contrary and opposed to these 20 attributes is to be considered ignorance and detrimental to any real knowledge of the soul. Next the nature of the ksetra-jna or knower of the field will be delineated by Lord Krishna as was alluded to in chapter 10, verse 3 where He states: One who knows Me.
Amanitvam is absence of desire for honour due to reverence and humilty. Adambhitva is lack of pride due to simplicity and absence of duplicity. Ahimsa is non-violence to others by thought, word or action. Ksantih is tolerance, forbearance even when antagonised. Arjavam is sincerity and straightforwardness even to those duplicitous. Acaryopasana is unmotivated devotion to the guru who imparts spiritual knowledge. Saucam is purity in thought, word and action to enable to qualify for spiritual knowledge. Sthairya is unwavering faith in the spiritual masters teachings from the Vedic scriptures. Atma-vinigriha is self control by withdrawing the mind from pursuits other than spiritual. Vairagyam is renunciation of activities unrelated to the soul. Anahankara is absence of false ego or misidentification of the physical body as the self. Anudarsanam is reflecting on the evils of birth and inevitable old age, disease and death. Asakti is detachment from over attraction to wife, sons and family members. Anabhisvangah is neutrality in both happiness and distress. Sama-citta is equipoise of mind in both favourable and unfavourable circumstances. Bhaktih is rendering exclusive loving devotion to the Supreme Lord Krishna. Vivikta-desa-sevitvam is fondness for solitary places out in nature for inhabiting. Adhyatma-jnana-nityatvam is to be permanently established in knowledge of the soul. Tattva-jnana-darsana is contemplating the spiritual teachings of the Vedas to gain insight. Jnana refers to that knowledge where one can achieve atma tattva or realisation of the soul. The aggregate of imbibing these 20 most excellent attributes facilitates atma tattva within the jiva or embodied being. Whatever is contrary and opposed to these 20 attributes is to be considered ignorance and detrimental to any real knowledge of the soul. Next the nature of the ksetra-jna or knower of the field will be delineated by Lord Krishna as was alluded to in chapter 10, verse 3 where He states: One who knows Me.
Amaanitwam adambhitwam ahimsaa kshaantiraarjavam; Aachaaryopaasanam shaucham sthairyamaatmavinigrahah.
amānitvam—humbleness; adambhitvam—freedom from hypocrisy; ahinsā—non-violence; kṣhāntiḥ—forgiveness; ārjavam—simplicity; āchārya-upāsanam—service of the Guru; śhaucham—cleanliness of body and mind; sthairyam—steadfastness; ātma-vinigrahaḥ—self-control; indriya-artheṣhu—toward objects of the senses; vairāgyam—dispassion; anahankāraḥ—absence of egotism; eva cha—and also; janma—of birth; mṛityu—death; jarā—old age; vyādhi—disease; duḥkha—evils; doṣha—faults; anudarśhanam—perception; asaktiḥ—non-attachment; anabhiṣhvaṅgaḥ—absence of craving; putra—children; dāra—spouse; gṛiha-ādiṣhu—home, etc; nityam—constant; cha—and; sama-chittatvam—even-mindedness; iṣhṭa—the desirable; aniṣhṭa—undesirable; upapattiṣhu—having obtained; mayi—toward Me; cha—also; ananya-yogena—exclusively united; bhaktiḥ—devotion; avyabhichāriṇī—constant; vivikta—solitary; deśha—places; sevitvam—inclination for; aratiḥ—aversion; jana-sansadi—for mundane society; adhyātma—spiritual; jñāna—knowledge; nityatvam—constancy; tat