श्री भगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।14.1।।
।।14.1।। श्री भगवान् ने कहा -- समस्त ज्ञानों में उत्तम परम ज्ञान को मैं पुन कहूंगा? जिसको जानकर सभी मुनिजन इस (लोक) से जाकर (इस जीवनोपरान्त) परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।।
।।14.1।। किसी भयंकर मनोवेग से विक्षुब्ध होने पर एक अत्यन्त बुद्धिमान पुरुष को भी बारम्बार सांत्वना की आवश्यकता होती है। जीवभाव को प्राप्त पुरुष अपने जीवन के दुखों के कारण उपदेश के पश्चात भी अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को सरलता से नहीं ग्रहण कर पाता। इसलिए? जब तक शिष्यों की विद्रोही बुद्धि इस तत्त्व को समझ नहीं लेती? तब तक आचार्यों को इन आध्यात्मिक सत्यों का बारंबार पुनरावृत्ति करना आवश्यक हो जाता है। अपने छोटेसे शिशु को भोजन करा रही माता इसका आदर्श उदाहरण है। जब तक वह शिशु पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं कर लेता? तब तक उसकी माँ उसे बहलाती फुसलाती रहती है। इसी प्रकार? शिष्य को निश्चयात्मक ज्ञान हो जाने तक आचार्य को इस ज्ञान को बारंबार दोहराना पड़ता है।इसलिए? इस अध्याय का प्रारम्भ भगवान् के इस कथन से होता है? मैं तुम्हें पुन परम ज्ञान कहूंगा। ऐसा नहीं है कि पहले परम ज्ञान नहीं बताया गया था? किन्तु उसके और अधिक स्पष्टीकरण तथा यथार्थ ग्रहण के लिए उसकी पुनरावृत्ति अपरिहार्य है।इस अध्याय की विषय वस्तु को भगवान् परम उत्तम ज्ञान कहते हैं? जिसका शब्दश अर्थ नहीं लेना चाहिए। इस अध्याय का विषय प्रकृति के गुणों का मनुष्य के अन्तकरण पर पड़ने वाले प्रभाव का तथा उसके व्यवहार का अध्ययन है। इसे दर्शनशास्त्र की सर्वोच्च विषयवस्तु की संज्ञा नहीं दी जा सकती। तथापि इसके सम्यक् ज्ञान के बिना साधक अपने आन्तरिक दोषों को समझ कर उन्हें सुधार नहीं सकता और ऐसी स्थिति में वह परम पुरुषार्थ को भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए इन त्रिगुणों के ज्ञान को ही यहाँ परम ज्ञान कहा गया है।जिसको जानकर मुनिजन परम सिद्धि को प्राप्त हुए यहाँ वचन दिया गया है कि त्रिगुणों के यथार्थ ज्ञान से साधक की तीर्थयात्रा सरल हो जायेगी। लक्ष्य के मार्ग का तथा सभी संभाव्य संकटों और कठिनाइयों का सम्पूर्ण ज्ञान पहले से ही प्राप्त होने पर उन संकटों के निवारण की तैयारी करने में यात्री को सहायता मिलती है। इस प्रकार अध्यात्म मार्ग में भी अपने मन की दुष्टप्रवृत्तियों का पूर्ण और पूर्व ज्ञान होने पर एक परिश्रमी साधक आन्तरिक समस्या के उत्पन्न होने पर उसका हल स्वयं ही कुशलतापूर्वक खोजने में समर्थ हो जाता है।मुनि शब्द से हमें किसी जटाजूटधारी वृद्ध पुरुष की कल्पना नहीं करनी चाहिए? जो अरण्यवास करते हुए कन्दमूलों के आहार पर अपना जीवनयापन करता हो। मननशील पुरुष को मुनि कहते हैं। संक्षेप में समस्त मननशील साधकों को इस अध्याय के विषय का ज्ञान अपनी आध्यात्मिक साधना के साध्य को सम्पादित करने में सहायक होगा।अनेक उपनिषदों के अनुसार यहाँ भी परम सिद्धि की प्राप्ति मरणोपरान्त कही गयी है। कुछ तत्त्वचिन्तक पुरुष इसका वाच्यार्थ ही स्वीकार करके यह मत प्रतिपादित करते हैं कि इसी जीवन में रहते हुए मोक्षसिद्धि नहीं हो सकती। देह त्याग के बाद ही मुक्ति संभव है। शास्त्रीय भाषा में इसे विदेहमुक्ति कहते हैं। परन्तु? श्री शंकराचार्य अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रामाणिक तर्कों के द्वारा इस मत का खण्डन करके जीवन्मुक्ति के सिद्धांत का मण्डन करते हैं। उनका मत है कि साधन सम्पन्न जिज्ञासु साधक को यहाँ और अभी इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। इस जीवन के पश्चात् का अर्थ देह के मरण से नहीं? वरन् अविद्याजनित अहंकार केन्द्रित जीवन के नाश से है। अर्थात् यहाँ अहंकार का नाश अभिप्रेत है? देह का नहीं।लौकिक जीवन में भी हम देखते हैं कि गृहस्थ बनने के लिए अविवाहित पुरुष का मरण आवश्यक है और माँ बनने के लिए कुमारी का। इन उदाहरणों में? व्यक्ति का मरण नहीं होता? किन्तु ब्रह्मचर्य और कौमार्य का ही अन्त होता है? जिससे कि उन्हें पतित्व और मातृत्व प्राप्त हो सके। इस प्रकार? व्यक्ति तो वही रहता है परन्तु उसकी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। युक्तियुक्त मनन और यथार्थ ज्ञान के द्वारा हमारे असत् जीवन मूल्यों का अन्त हो जाता है और इस प्रकार नवार्जित ज्ञान के प्रकाश में हम श्रेष्ठतर? आनन्दमय जीवन जी सकते हैं। इस नवजीवन का साधन है? स्वस्वरूप का निदिध्यासन। साधनाकाल में? संभव है कि इन त्रिगुणों के विनाशकारी प्रभाववश बुद्धिमान और परिश्रमी साधक का भी मन विचलित होकर ध्यान की शान्ति खो दे। इसलिए? इन्हें भलीभाँति जानकर इनके कुप्रभावों को दूर रखने पर शतप्रतिशत सफलता निश्चित हो जाती है।अब? भगवान् इस ज्ञान के निश्चित फल को बताते हैं