सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।।14.11।।
।।14.11।।जब इस मनुष्यशरीरमें सब द्वारों(इन्द्रियों और अन्तःकरण) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है? तब जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है।
।।14.11।। व्याख्या -- सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् ৷৷. ज्ञानं यदा -- जिस समय रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियोंको दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है? उस समय सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें तथा अन्तःकरणमें स्वच्छता? निर्मलता प्रकट हो जाती है। जैसे सूर्यके प्रकाशमें सब वस्तुएँ साफसाफ दीखती हैं? ऐसे ही स्वच्छ बहिःकरण और अन्तःकरणसे शब्दादि पाँचों विषयोंका यथार्थरूपसे ज्ञान होता है। मनसे किसी भी विषयका ठीकठीक मननचिन्तन होता है।इन्द्रियों और अन्तःकरणमें स्वच्छता? निर्मलता होनेसे सत् क्या है और असत् क्या है कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है लाभ किसमें है और हानि किसमें है हित किसमें है और अहित किसमें है आदि बातोंका स्पष्टतया ज्ञान (विवेक) हो जाता है।यहाँ देहेऽस्मिन् कहनेका तात्पर्य है कि सत्त्वगुणके बढ़नेका अर्थात् बहिःकरण और अन्तःकरणमें स्वच्छता? निर्मलता और विवेकशक्ति प्रकट होनेका अवसर इस मनुष्यशरीरमें ही है? अन्य शरीरोंमें नहीं। भगवान्ने तमोगुणसे बँधनेवालोंके लिये सर्वदेहिनाम् (14। 8) पदका प्रयोग किया है? जिसका तात्पर्य है कि रजोगुणतमोगुण तो अन्य शरीरोंमें भी बढ़ते हैं? पर सत्त्वगुण मनुष्यशरीरमें ही बढ़ सकता है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह रजोगुण और तमोगुणपर विजय प्राप्त करके सत्त्वगुणसे भी ऊँचा उठे। इसीमें मनुष्यजीवनकी सफलता है। भगवान्ने कृपापूर्वक मनुष्यशरीर देकर इन तीनों गुणोंपर विजय प्राप्त करनेका पूरा अवसर? अधिकार? योग्यता? सामर्थ्य? स्वतन्त्रता दी है।तदा विद्याद् विवृद्धं सत्त्वमित्युत -- इन्द्रियों और अन्तःकरणमें स्वच्छता और विवेकशक्ति आनेपर साधकको यह जानना चाहिये कि अभी सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ बढ़ी हुई हैं और रजोगुणतमोगुणकी वृत्तियाँ दबी हुई हैं। अतः साधक कभी भी अपनेमें यह अभिमान न करे कि मैं जानकार हो गया हूँ? ज्ञानी हो गया हूँ अर्थात् वह सत्त्वगुणके कार्य प्रकाश और ज्ञानको अपना गुण न माने? प्रत्युत सत्त्वगुणका ही कार्य? लक्षण माने।यहाँ इति विद्यात् पदोंका तात्पर्य है कि तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका पैदा होना? बढ़ना और एक गुणकी प्रधानता होनेपर दूसरे दो गुणोंका दबना आदिआदि परिवर्तन गुणोंमें ही होते हैं? स्वरूपमें नहीं -- इस बातको मनुष्यशरीरमें ही ठीक तरहसे समझा जा सकता है। परन्तु मनुष्य भगवान्के दिये विवेकको महत्त्व न देकर गुणोंके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है और अपनेको सात्त्विक? राजस या तामस मानने लगता है। मनुष्यको चाहिये कि अपनेको ऐसा न मानकर सर्वथा निर्विकार? अपरिवर्तनशील जाने।तीनों गुणोंकी वृत्तियाँ अलगअलग बनतीबिगड़ती हैं -- इसका सबको अनुभव है। स्वयं परिवर्तनरहित और इन सब वृत्तियोंको देखनेवाला है। यदि स्वयं भी बदलनेवाला होता तो इन वृत्तियोंके बननेबिगड़नेको कौन देखता परिवर्तनको परिवर्तनरहित ही जान सकता है।जब सात्त्विक वृत्तियोंके बढ़नेसे इन्द्रियों और अन्तःकरणमें स्वच्छता? निर्मलता आ जाती है और विवेक जाग्रत् हो जाता है? तब संसारसे राग हट जाता है और वैराग्य हो जाता है। अशान्ति मिट जाती है और शान्ति आ जाती है। लोभ मिट जाता है और उदारता आ जाती है। प्रवृत्ति निष्कामभावपूर्वक होने लगती है (गीता 18। 9)। भोग और संग्रहके लिये नयेनये कर्मोंका आरम्भ नहीं होता। मनमें पदार्थों? भोगोंकी आवश्यकता पैदा नहीं होती? प्रत्युत निर्वाहमात्रकी दृष्टि रहती है। हरेक विषयको समझनेके लिये बुद्धिका विकास होता है। हरेक कार्य सावधानीपूर्वक और सुचारुरूपसे होता है। कार्योंमें भूल कम होती है। कभी भूल हो भी जाती है तो उसका सुधार होता है? लापरवाही नहीं होती। सत्असत्? कर्तव्यअकर्तव्यका विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है। अतः जिस समय सात्त्विक वृत्तियाँ बढ़ी हों? उस समय साधकको विशेषरूपसे भजनध्यान आदिमें लग जाना चाहिये। ऐसे समयमें किये गये थोड़ेसे साधनसे भी शीघ्र ही बहुत लाभ हो सकता है।, सम्बन्ध -- बढ़े हुए रजोगुणके क्या लक्षण होते हैं -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।