लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।14.12।।
।।14.12।। हे भरतश्रेष्ठ रजोगुण के प्रवृद्ध होने पर लोभ? प्रवृत्ति (सामान्य चेष्टा) कर्मों का आरम्भ? शम का अभाव तथा स्पृहा? ये सब उत्पन्न होते हैं।।
।।14.12।। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ रजोगुण के मुख्य लक्षणों की गणना करते हैं। जिस क्रम में उनका उल्लेख किया गया है? उसमें हम यह देखते हैं कि उत्तरोत्तर लक्षण पूर्व के लक्षण से उत्पन्न होता है। परद्रव्य की इच्छा का नाम है लोभ जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता। लोभी पुरुष में आ जाती है प्रवृत्ति अर्थात् फिर वह क्रियाशील हो जाता है? शान्त नहीं बैठ सकता। लोभाधिक्य होने पर उसके किये गये कर्म स्वार्थपूर्वक ही होते हैं? जिनका निर्देश यहाँ कर्मों का आरम्भ इस शब्द से किया गया है। स्वार्थ और लोभ के वशीभूत पुरुष को शम अर्थात् शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। श्री शंकराचार्य अशम शब्द का अर्थ बताते हैं? हर्ष रागादि प्रवृत्ति। इसका अर्थ यह हुआ? कि ऐसा पुरुष सदैव इष्टानिष्ट की प्राप्ति होने पर हर्ष विषाद को प्राप्त होता रहता है? ऐसी स्थिति में उसे शान्ति कैसे मिल सकती है वह अपने ही कर्मों के फलस्वरूप स्वयं को ऐसी स्थिति में पाता है? जो उसे अधिकाधिक कटुतर क्रूरता? नीच अनैतिकता और हत्या जैसे अपराध करने में प्रवृत्त करती है उसकी आन्तरिक शान्ति को छिन्नभिन्न कर देती है। रजोगुण से अभिभूत यह पुरुष स्पृहा अर्थात् विषयोपभोग की लालसा के वश में भी आ जाता है। अप्राप्त वस्तुओं तथा लाभ को पाने की कभी न समाप्त होने वाली यह कामना ही स्पृहा कहलाती है।संक्षेप में? रजोगुण के स्पर्शजन्य रोग के प्रभाव से हमारा मानसिक व्यक्तित्व अपनी ही चंचल प्रवृत्तियों से उत्पीड़ित होता रहता है? जो अन्तहीन योजनाओं? थका देने वाले कर्मों? व्यथित करने वाली इच्छाओं पीड़ादायक लालसाओं? उन्मत्त करने वाले लोभ और व्यथापूर्ण व्याकुलताओं के रूप में व्यक्त होती हैं। जब ऐसा व्यक्ति समाज मे कार्य करता है तब उसके दुख उस तक ही सीमित नहीं रहते? वरन् स्पर्शजन्य रोग के समान? उसके आसपास के सहस्रों लोगों को भी व्यथित करते हैं।