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Bhagavad Gita Chapter 14 Verse 16

भगवद् गीता अध्याय 14 श्लोक 16

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।।14.16।।

हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद

।।14.16।। शुभ कर्म का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है रजोगुण का फल दुख और तमोगुण का फल अज्ञान है।।

हिंदी टीका - स्वामी चिन्मयानंद जी

।।14.16।। इस श्लोक में संभाषण कुशल भगवान् श्रीकृष्ण पूर्व के श्लोकों में कथित विषय को ही साररूप से वर्णन करते हैं। प्रत्येक गुण के प्रवृद्ध होने पर जो फल प्राप्त होते हैं उनका निर्देश यहाँ एक ही स्थान पर किया गया है।शुभ कर्मों का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है। सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होगा कि अन्तकरण का विचार ही समस्त कर्मों का जनक है विचार बोये गये बीज हैं? तो कर्म हैं अर्जित की गयी उपज। घासपात के बीजों से मात्र घास ही उत्पन्न होगी वैसे ही अशुभ संकल्पों से अशुभ कर्म ही होंगे। बाह्य जगत् में व्यक्त हुए ये अशुभ कर्म दुष्प्रवृत्तियों का संवर्धन करते हैं और इस प्रकार मन के विक्षेप शतगुणित हो जाते हैं।यदि कोई पुरुष सेवा और भक्ति? स्नेह और दया? क्षमा और करुणा का शान्त? सन्तुष्ट? प्रसन्न और पवित्र जीवन जीता है? तो निश्चय ही ऐसा जीवन उसके सात्विक स्वभाव का ही परिचायक है। यह तथ्य जैसे सिद्धान्तत सत्य है वैसे ही लौकिक अनुभव के द्वारा भी सिद्ध होता है। ऐसे आदर्श जीवन जीने वाले पुरुष को अवश्य ही अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त होती है।यहाँ यह प्रश्न सम्भव हो सकता है कि यदि वर्तमान जीवन में कोई व्यक्ति अत्यन्त अधपतित है? तो किस प्रकार वह अपना उद्धार प्रारम्भ कर सकता है। यदि कर्म विचारों की अभिव्यक्ति हैं? और अन्तकरण में स्थित विचारों का स्वरूप अशुभ है? तो ऐसे व्यक्ति के विचारों के आमूल परिवर्तन की अपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं विश्व के सभी धर्मों में अपनी विधि और निषेध की भाषा में इस प्रश्न का उत्तर एक मत से यही दिया गया है कि सत्य के साधकों? भगवान् के भक्तों और संस्कृति के समुपासकों को सदाचार और नैतिकता का आदर्श जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए। वैचारिक परिवर्तन का यह प्रथम चरण है।इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन को अनुशासित करना और विचारों के स्वरूप को परिवर्तित करना सरल कार्य नहीं है किन्तु कर्मों के प्रकार को परिवर्तित करना और अपने बाह्य आचरण और व्यवहार को संयमित करना अपेक्षाकृत सरल कार्य है। इसलिए? सदाचार और अनुशासित व्यवहार आत्मोत्थान की महान् योजना के प्रारम्भिक चरण माने गये हैं। सदाचार के पालन से शनैशनै सद्विचारों का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है।यही कारण है कि सभी राष्ट्रों की संस्कृतियों में बालकों से कुछ नियमों के पालन का आग्रह किया जाता है? जैसे श्रेष्ठजनों का आदर? आज्ञाओं का पालन? असत्य का त्याग? शास्त्रों का स्वाध्याय? शिक्षा? स्वच्छता आदि। जब बालक से इन नियमों का पालन करने को कहा जाता है? तब सम्भवत उन्हें ये सब नियम क्रूर नियम प्रतीत होते हैं? जिनका पालन करते हुए उन्हें जीने के लिए बाध्य किया जाता है। तथापि? दीर्घकाल की अवधि में अनजाने ही ये नियम बालकों के विचारों को अनुशासित करते हैं।सदाचार से मन सात्विक और निर्मल बन जाता है। इससे प्राप्त होने वाले फल? मनप्रसाद? न्यूनतम विक्षेप? चित्त की एकाग्रता? श्रद्धा? भक्ति? जिज्ञासा इत्यादि है। विकार और विक्षेप ये मन की अशुद्धियां हैं? जो अशुभ कर्मों से और अधिक प्रवृद्ध होती हैं। सत्कर्म अपने स्वभाव से ही मनोद्वेगों को नष्ट करके मन को शान्त और प्रसन्न करते हैं।रजोगुण का फल दुख और तमोगुण का फल अज्ञान है।पूर्वोक्त विवेचन के प्रकाश में भगवान् के इस कथन को समझना कठिन नहीं है। सत्त्व? रज और तम इन तीन गुणों का लक्षण क्रमश विवेक? विक्षेप और आवरण है। अत साधक का अधिक से अधिक प्रयत्न सत्वगुण में स्थिति की प्राप्ति के लिए होना चाहिए क्योंकि सक्रिय शान्ति की स्थिति ही सत्त्व है? जो मनुष्य के आन्तरिक जीवन का रचनात्मक क्षण होता है।इन गुणों से क्या उत्पन्न होता है सुनो