कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।।14.16।।
।।14.16।।(विवेकी पुरुषोंने) शुभकर्मका तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है? राजस कर्मका फल दुःख कहा है और तामस कर्मका फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।
।।14.16।। व्याख्या -- [वास्तवमें कर्म न सात्त्विक होते हैं? न राजस होते हैं और न तामस ही होते हैं। सभी कर्म क्रियामात्र ही होते हैं। वास्तवमें उन कर्मोंको करनेवाला कर्ता ही सात्त्विक? राजस और तामस होता है। सात्त्विक कर्ताके द्वारा किया हुआ कर्म सात्त्विक? राजस कर्ताके द्वारा किया हुआ कर्म राजस और तामस कर्ताके द्वारा किया हुआ कर्म तामस कहा जाता है।]कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् -- सत्त्वगुणका स्वरूप निर्मल? स्वच्छ? निर्विकार है। अतः सत्त्वगुणवाला कर्ता जो कर्म करेगा? वह कर्म सात्त्विक ही होगा क्योंकि कर्म कर्ताका ही रूप होता है। इस सात्त्विक कर्मके फलरूपमें जो परिस्थिति बनेगी? वह भी वैसे ही शुद्ध? निर्मल? सुखदायी होगी।फलेच्छारहित होकर कर्म करनेपर भी जबतक सत्त्वगुणके साथ कर्ताका सम्बन्ध रहता है? तबतक उसकी,सात्त्विक कर्ता संज्ञा होती है और तभीतक उसके कर्मोंका फल बनता है। परन्तु जब गुणोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है? तब उसकी सात्त्विक कर्ता संज्ञा नहीं होती और उसके द्वारा किये हुए कर्मोंका फल भी नहीं बनता? प्रत्युत उसके द्वारा किये हुए कर्म अकर्म हो जाते हैं।रजसस्तु फलं दुःखम् -- रजोगुणका स्वरूप रागात्मक है। अतः रागवाले कर्ताके द्वारा जो कर्म होगा? वह कर्म भी राजस ही होगा और उस राजस कर्मका फल भोग होगा। तात्पर्य है कि उस राजस कर्मसे पदार्थोंका भोग होगा? शरीरमें सुखआराम आदिका भोग होगा? संसारमें आदरसत्कार आदिका भोग होगा? और मरनेके बाद स्वर्गादि लोकोंके भोगोंकी प्राप्ति होगी। परन्तु ये जितने भी सम्बन्धजन्य भोग हैं? वे सबकेसब दुःखोंके ही कारण हैं -- ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते (गीता 5। 22) अर्थात् जन्ममरण देनेवाले हैं। इसी दृष्टिसे भगवान्ने यहाँ राजस कर्मका फल दुःख कहा है।रजोगुणसे दो चीजें पैदा होती हैं -- पाप और दुःख। रजोगुणी मनुष्य वर्तमानमें पाप करता है और परिणाममें उन पापोंका फल दुःख भोगता है। तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनके द्वारा मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ऐसा पूछनेपर उत्तरमें भगवान्ने रजोगुणसे उत्पन्न होनेवाली कामनाको ही पाप करानेमें हेतु बताया हैअज्ञानं तमसः फलम् -- तमोगुणका स्वरूप मोहनात्मक है। अतः मोहवाला तामस कर्ता परिणाम? हिंसा? हानि? और सामर्थ्यको न देखकर मूढ़तापूर्वक जो कुछ कर्म करेगा? वह कर्म तामस ही होगा और उस तामस कर्मका फल अज्ञान अर्थात् अज्ञानबहुल योनियोंकी प्राप्ति ही होगा। उस कर्मके अनुसार उसका पशु? पक्षी? कीट? पतङ्ग? वृक्ष? लता? पहाड़ आदि मूढ़योनियोंमें जन्म होगा? जिनमें अज्ञान(मूढ़ता) की मुख्यता रहती है।इस श्लोकका निष्कर्ष यह निकला कि सात्त्विक पुरुषके सामने कैसी परिस्थिति आ जाय? पर उसमें उसको दुःख नहीं हो सकता। राजस पुरुषके सामने कैसी ही परिस्थिति आ जाय? पर उसमें उसको सुख नहीं हो,सकता। तामस पुरुषके सामने कैसी ही परिस्थिति आ जाय ? पर उसमें उसका विवेक जाग्रत् नहीं हो सकता? प्रत्युत उसमें उसकी मूढ़ता ही रहेगी।गुण (भाव) और परिस्थिति तो कर्मोंके अऩुसार ही बनती है। जबतक गुण (भाव) और कर्मोंके साथ सम्बन्ध रहता है? तबतक मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें सुखी नहीं हो सकता। जब गुण और कर्मोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता? तब मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें कभी दुःखी नहीं हो सकता और बन्धनमें भी नहीं पड़ सकता।जन्मके होनेमें अन्तकालीन चिन्तन ही मुख्य होता है और अन्तकालीन चिन्तनके मूलमें गुणोंका बढ़ना होता है तथा गुणोंका बढ़ना कर्मोंके अनुसार होता है। तात्पर्य है कि मनुष्यका जैसा भाव (गुण) होगा? वैसा यह कर्म करेगा और जैसा कर्म करेगा? वैसा भाव दृढ़ होगा तथा उस भावके अनुसार अन्तिम चिन्तन होगा। अतः आगे जन्म होनेमें अन्तकालीन चिन्तन ही मुख्य रहा। चिन्तनके मूलमें भाव और भावके मूलमें कर्म करता है। इस दृष्टिसे गतिके होनेमें अन्तिम चिन्तन? भाव (गुण) और कर्म -- ये तीनों कारण हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने गुणोंकी तात्कालिक वृत्तियोंके बढ़नेपर जो गतियाँ होती हैं? उनके मूलमें सात्त्विक? राजस और तामस कर्म बताये। अब सात्त्विक? राजस और तामस कर्मोंके मूलमें गुणोंको बतानेके लिये भगवान् आगेका श्लोक बताते हैं।