सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।।14.17।।
।।14.17।। सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है। रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद? मोह और अज्ञान उत्पन्न होता है।।
।।14.17।। मन और बुद्धि के रंगमञ्च पर प्रवेश करने पर ये तीन गुण जिस भूमिका का निर्वाह करते हैं? उसका निर्देश इस श्लोक में किया गया है। इनका विस्तृत वर्णन पहले किया जा चुका है।सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है स्वयं चैतन्यस्वरूप आत्मा में विषयों का अभाव होने से उसका किसी विषय को जानने का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु चैतन्य से युक्त अन्तकरण की बुद्धिवृत्तियों विषयों को प्रकाशित करती है। यदि अन्तकरण शुद्ध और शान्त अर्थात् सात्त्विक हो तो उसकी ज्ञानक्षमता अधिक होती है। ऐसे शुद्ध मन के द्वारा ही नित्यशुद्धबुद्धमुक्त आत्मा का अपरोक्षानुभव हो सकता है।रजोगुण से लोभ तथा तज्जनित अनेक प्रकार की स्वार्थमूलक प्रवृत्तियां और विक्षेप उत्पन्न होते हैं।तमोगुण से प्रमाद? मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं। विषय को किसी प्रकार से भी नहीं जानना अज्ञान है? जब कि दो वस्तुओं या कर्मों में विवेक का अभाव होना मोह कहलाता है। धर्मअधर्म? सत्यअसत्य? आत्माअनात्मा इत्यादि का विवेक न होना मोह है। किसी भी कर्म में सावधानी न रखना या वस्तु को अन्य प्रकार से समझना प्रमाद कहलाता है। इसके कारण बाह्य जगत् में सुख की कल्पना करके मनुष्य उसी में भटकता रहता है। सम्पूर्ण समुद्र में क्या एक पात्र भर मधुर जल मिल सकता है वस्तुत नहीं? परन्तु तमोगुण के वशीभूत पुरुष उसी के लिए प्रयत्न करता रहता है और जब उसे दुख भोगने पड़ते हैं? तो इसका दोष वह जगत् को देता है यह सब्ा तमोगुण का कार्य़ है।आगे कहते हैं