सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।।14.17।।
।।14.17।।सत्त्वगुणसे ज्ञान और रजोगुणसे लोभ आदि ही उत्पन्न होते हैं तमोगुणसे प्रमाद? मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होता है।
।।14.17।। व्याख्या -- सत्त्वात्संजायते ज्ञानम् -- सत्त्वगुणसे ज्ञान होता है अर्थात् सुकृतदुष्कृत कर्मोंका विवेक जाग्रत् होता है। उस विवेकसे मनुष्य सुकृत? सत्कर्म ही करता है। उन सुकृत कर्मोंका फल सात्त्विक? निर्मल होता है।रजसो लोभ एव च -- रजोगुणसे लोभ आदि पैदा होते हैं। लोभको लेकर मनुष्य जो कर्म करता है? उन कर्मोंका फल दुःख होता है।जितना मिला है? उसकी वृद्धि चाहनेका नाम लोभ है। लोभके दो रूप हैं -- उचित खर्च न करना और अनुचित रीतिसे संग्रह करना। उचित कामोंमें धन खर्च न करनेसे? उससे जी चुरानेसे मनुष्यके मनमें अशान्ति? हलचल रहती है और अनुचित रीतिसे अर्थात् झूठ? कपट आदिसे धनका संग्रह करनेसे पाप बनते हैं? जिससे नरकोंमें तथा चौरासी लाख योनियोंमें दुःख भोगना पड़ता है। इस दृष्टिसे राजस कर्मोंका फल दुःख होता है।प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च -- तमोगुणसे प्रमाद? मोह और अज्ञान पैदा होता है। इन तीनोंके बुद्धिमें आनेसे विवेकविरुद्ध काम होते हैं (गीता 18। 32)? जिससे अज्ञान ही बढ़ता है? दृढ़ होता है।यहाँ तो तमोगुणसे अज्ञानका पैदा होना बताया है और इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें अज्ञानसे तमोगुणका पैदा होना बताया है। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे वृक्षसे बीज पैदा होते हैं और उन बीजोंसे आगे बहुतसे वृक्ष पैदा होते हैं? ऐसे ही तमोगुणसे अज्ञान पैदा होता है और अज्ञानसे तमोगुण बढ़ता है? पुष्ट होता है।पहले आठवें श्लोकमें भगवान्ने प्रमाद? आलस्य और निद्रा -- ये तीन बताये। परन्तु तेरहवें श्लोकमें और यहाँ प्रमाद तो बताया? पर निद्रा नहीं बतायी। इससे यह सिद्ध होता है कि आवश्यक निद्रा तमोगुणी नहीं है और निषिद्ध भी नहीं है तथा बाँधनेवाली भी नहीं है। कारण कि शरीरके लिये आवश्यक निद्रा तो सात्त्विक पुरुषको भी आती है और गुणातीत पुरुषको भी वास्तवमें अधिक निद्रा ही बाँधनेवाली? निषिद्ध और तमोगुणी है क्योंकि अधिक निद्रासे शरीरमें आलस्य बढ़ता है? पड़े रहनेका ही मन करता है? बहुत समय बरबाद हो जाता है।विशेष बातयह जीव साक्षात् परमात्माका अंश होते हुए भी जब प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है? तब इसका प्रकृतिजन्य गुणोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। फिर गुणोंके अनुसार उसके अन्तःकरणमें वृत्तियाँ पैदा होती हैं। उन वृत्तियोंके अनुसार कर्म होते हैं और इन्हीं कर्मोंका फल ऊँचनीच गतियाँ होती हैं। तात्पर्य है कि जीवितअवस्थामें अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं और मरनेके बाद ऊँचनीच गतियाँ होती हैं। वास्तवमें उन कर्मोंके मूलमें भी गुणोंकी वृत्तियाँ ही होती हैं? जो कि पुनर्जन्मके होनेमें खास कारण हैं (गीता 13। 21)। तात्पर्य है कि गुणोंका सङ्ग कर्मोंसे कमजोर नहीं है। जैसे कर्म शुभअशुभ फल देते हैं? ऐसे ही गुणोंका सङ्ग भी शुभअशुभ फल देता है (गीता 8। 6)। इसीलिये पाँचवेंसे अठारहवें श्लोकतकके इस प्रकरणमें पहले चौदहवेंपन्द्रहवें श्लोकोंमें गुणोंकी तात्कालिक वृत्तियोंके बढ़नेका फल बताया और जीवितअवस्थामें जो परिस्थितियाँ आती हैं? उनको सोलहवें श्लोकमें बताया तथा आगे अठारहवें श्लोकमें गुणोंकी स्थायी वृत्तियोंका फल बतायेंगे। अतः वृत्तियों और कर्मोंके होनेमें गुण ही मुख्य हैं। इस पूरे प्रकरणमें गुणोंकी मुख्य बात इसी (सत्रहवें) श्लोकमें कही गयी है।जिसका उद्देश्य संसार नहीं है? प्रत्युत परमात्मा है? वह साधारण मनुष्योंकी तरह प्रकृतिमें स्थित नहीं है। अतः उसमें प्रकृतिजन्य गुणोंकी परवशता नहीं रहती और साधन करतेकरते आगे चलकर जब अहंता परिवर्तित होकर लक्ष्यकी दृढ़ता हो जाती है? तब उसको अपने स्वतःसिद्ध गुणातीत स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इसीका नाम बोध है। इस बोधके विषयमें भगवान्ने इस अध्यायका पहलादूसरा श्लोक कहा और गुणातीतके विषयमें बाईसवेंसे छब्बीसवेंतकके पाँच श्लोक कहे। इस तरह यह पूरा अध्याय गुणोंसे अतीत स्वतःसिद्ध स्वरूपका अनुभव करनेके लिये ही कहा गया है। सम्बन्ध -- तात्कालिक गुणोंके बढ़नेपर मरनेवालोंकी गतिका वर्णन तो चौदहवेंपन्द्रहवें श्लोकोंमें कर दिया परन्तु जिनके जीवनमें सत्त्वगुण? रजोगुण अथवा तमोगुणकी प्रधानता रहती है? उनकी (मरनेपर) क्या गति होती है -- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।