नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।14.19।।
।।14.19।।जब विवेकी (विचारकुशल) मनुष्य तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता और अपनेको गुणोंसे पर अनुभव करता है? तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है।
।।14.19।। व्याख्या -- नान्यं गुणेभ्यः ৷৷. मद्भावं सोऽधिगच्छति -- गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंसे ही हो रही हैं? सम्पूर्ण परिवर्तन गुणोंमें ही हो रहा है। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण क्रियाओं और परिवर्तनोंमें गुण ही कारण हैं? और कोई कारण नहीं है। वे गुण जिससे प्रकाशित होते हैं? वह तत्त्व गुणोंसे पर है। गुणोंसे पर होनेसे वह कभी गुणोंसे लिप्त नहीं होता अर्थात् गुणों और क्रियाओँका उसपर कोई असर नहीं पड़ता। ऐसे उस तत्त्वको जो विचारकुशल साधक जान लेता है अर्थात् विवेकके द्वारा अपनेआपको गुणोंसे पर? असम्बद्ध? निर्लिप्त अनुभव कर लेता है कि गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध न कभी,हुआ है? न है? न होगा और न हो ही सकता है। कारण कि गुण परिवर्तनशील हैं और स्वयंमें कभी परिवर्तन होता ही नहीं। वह फिर मेरे भावको? मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि वह जो भूलसे गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मानता था? वह मान्यता मिट जाती है और मेरे साथ उसका जो स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है? वह ज्योंकात्यों रह जाता है।