इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।14.2।।
।।14.2।।इस ज्ञानका आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मताको प्राप्त हो गये हैं? वे महासर्गमें भी पैदा नहीं होते और महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते।
।।14.2।। इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे स्वरूप (सार्धम्यम्) को प्राप्त पुरुष सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते और प्रलयकाल में व्याकुल भी नहीं होते हैं।।
।।14.2।। व्याख्या -- इदं ज्ञानमुपाश्रित्य -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने उत्तम और पर -- इन दो विशेषणोंसे जिस ज्ञानकी महिमा कही थी? उस ज्ञानका अनुभव करना ही उसका आश्रय लेना है। उस ज्ञानका अनुभव होनेसे मनुष्यके सम्पूर्ण संशय मिट जाते हैं और वह ज्ञानस्वरूप हो जाता है।मम साधर्म्यमागताः -- उस ज्ञानका आश्रय लेकर मनुष्य मेरी सधर्मताको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् जैसे मेरेमें कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं है? ऐसे ही उनमें भी कर्तृत्वभोक्तृत्व नहीं रहता। जैसे मैं सदा ही निर्लिप्तनिर्विकार रहता हूँ? ऐसे ही उनको भी अपनी निर्लिप्ततानिर्विकारताका अनुभव हो जाता है।ज्ञानी महापुरुष भगवान्के समान निर्लिप्तनिर्विकार तो हो जाते हैं? पर वे भगवान्के समान संसारकी उत्पत्ति? पालन और संहारका कार्य नहीं कर सकते। हाँ? योगाभ्यासके बलसे किसी योगीमें कुछ सामर्थ्य आ जाती है? पर वह सामर्थ्य भी भगवान्की सामर्थ्यके समान नहीं होती। कारण कि वह युञ्जान योगी है अर्थात् उसने अभ्यास करके कुछ सामर्थ्य प्राप्त की है। परन्तु भगवान् युक्त योगी हैं अर्थात् भगवान्में सामर्थ्य सदासे स्वतःसिद्ध है। भगवान् सब कुछ करनेमें समर्थ हैं -- कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः। योगीकी सामर्थ्य तो,सीमित होती है? पर भगवान्की सामर्थ्य असीम होती है।सर्गेऽपि नोपजायन्ते -- यहाँ अपिपदसे यह मालूम होता है कि वे ज्ञानी महापुरुष महासर्गके आरम्भमें भी उत्पन्न नहीं होते। महासर्गके आदिमें चौदह लोकोंकी तथा उन लोकोंके अधिकारियोंकी उत्पत्ति होती है? पर वे महापुरुष उत्पन्न नहीं होते अर्थात् उनको फिर कर्मपरवश होकर शरीर धारण नहीं करना पड़ता।प्रलये न व्यथन्ति च -- महाप्रलयमें संवर्तक अग्निसे चरअचर सभी प्राणी भस्म हो जाते हैं। समुद्रके बढ़ जानेसे पृथ्वी डूब जाती है। चौदह लोकोंमें हलचल? हाहाकार मच जाता है। सभी प्राणी दुःखी होते हैं? नष्ट होते हैं। परन्तु महाप्रलयमें उन ज्ञानी महापुरुषोंको कोई दुःख नहीं होता? उनमें कोई हलचल नहीं होती? विकार नहीं होता। वे महापुरुष जिस तत्त्वको प्राप्त हो गये हैं? उस तत्त्वमें हलचल? विकार है ही नहीं? तो फिर वे महापुरुष व्यथित कैसे हो सकते हैं नहीं हो सकते।महासर्गमें भी उत्पन्न न होने और महाप्रलयमें भी व्यथित न होनेका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुषका प्रकृति और प्रकृतिजन्य गुणोंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। इसलिये प्रकृतिका सम्बन्ध रहनेसे जो जन्ममरण होता है? दुःख होता है? हलचल होती है? प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित महापुरुषमें वह जन्ममरण? दुःख आदि नहीं होते। सम्बन्ध -- जो भगवान्की सधर्मताको प्राप्त हो जाते हैं? वे तो महासर्गमें भी पैदा नहीं होते परन्तु जो प्राणी महासर्गमें पैदा होते हैं? उनके उत्पन्न होनेकी क्या प्रक्रिया है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।14.2।। इस अध्याय में उपदिष्ट ज्ञान की महत्ता सैद्धान्तिक दृष्टि से उतनी अधिक नहीं है? जितनी कि साधना में उसके द्वारा होने वाले लाभ से है। इस अध्याय के गम्भीर अभिप्रायों को सम्यक् रूप से जानने वाला साधक पूर्णत्व की स्थिति को प्राप्त होता है। भगवान् कहते हैं? वे मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं।गीता में? भगवान् श्रीकृष्ण मैं शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक पूर्णत्व की दृष्टि से ही करते हैं। इस अध्याय का विषय उन गुणों की क्रीड़ा का अध्ययन करना है? जो हमें उपाधियों ओर अहंभाव के साथ बांध देते हैं। यदि एक बार हम उनसे मुक्त होकर अपने मन पर होने वाले उनके प्रभाव को समाप्त कर दें? तो तत्क्षण ही जीव भाव से मुक्त होकर हम अपने पारमार्थिक स्वरूप का अनुभव कर सकते हैं।स्वप्नद्रष्टा को स्वप्नावस्था में सत्य प्रतीत होने वाले दुख जाग्रत् अवस्था में असत् हो जाते हैं। नियम यह है कि एक अवस्था के सुखदुखादि अनुभव अन्य अवस्था में प्रभावशील नहीं होते हैं। अत? आत्म अज्ञान की अवस्था का उपाधि तादात्म्य तथा तज्जनित संसार का बन्धन जीव को ही सत्य प्रतीत होता है आत्मज्ञानी पुरुष को नहीं। ज्ञानी पुरुष अपने उस सर्वत्र व्याप्त सत्यस्वरूप को पहचानता है? जिसकी न उत्पत्ति है और न प्रलय।इसे यहाँ एक वाक्य से इंगित किया गया है? वे सृष्टि के आदि में जन्म नहीं लेते हैं सृष्टि मन का एक खेल है। जब हम मन से तादात्म्य नहीं करेंगे? तब हम उससे अविच्छिन्न भी नहीं होंगे? और इस प्रकार हमें सृष्टि का कोई अनुभव भी नहीं होगा। उदाहरणार्थ? जब कोई व्यक्ति क्रोधावेश में आ जाता है? तब वह एक क्रोधी व्यक्ति के रूप में व्यवहार करता है परन्तु क्रोध से निवृत्त होने और मन के शान्त हो जाने पर वह वैसा व्यवहार नहीं कर सकता। मन की युक्ति यह है कि वह विचारों के द्वारा एक सृष्टि की कल्पना करता है? और फिर उसी के साथ तादात्म्य कर स्वयं को इस प्रकार बन्धन में अनुभव करता है मानो उससे मुक्ति पाना कदापि संभव ही न हो। जब तक हम मन में ही डूबे रहेंगे तब तक उसके क्षोभ से उद्वेलित भी होते रहेंगे। मन से अतीत अर्थात् मुक्त होने पर शुद्ध आत्मा में कोई सृष्टि नहीं है? तब हमें जन्म का अनुभव कैसे हो सकता है और उस स्थिति में प्रलय से भय कैसा वह पूर्ण मुक्ति की स्थिति है।परन्तु अपने मन पर विजय पाने के लिये? साधक को मन की उन युक्तियों (योजनाओं) का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है? जिनके द्वारा यह प्राय उसे छलता रहता है। शत्रु पर आक्रमण करने के पूर्व उसकी रणनीति का ज्ञान प्राप्त करना अपरिहार्य होता है। इस दृष्टि से? भगवान् का यह कथन भी समीचीन है कि इन तीन गुणों का सम्पूर्ण ज्ञान साधक को अपने मन पर विजय प्राप्त कराने में सहायक होगा और इस प्रकार वह अपनी समस्त प्रकार की अपूर्णताओं से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा।अब? भगवान् कहते हैं कि किस प्रकार जड़ और चेतन के सम्बन्ध में इस दुखपूर्ण संसार की उत्पत्ति होती है
14.2 Those who attain identity with Me by resorting of this Knowledge are not born even during creation, nor do they suffer pain during dissolution.
14.2 They who, having taken refuge in this knowledge, have attained to unity with Me, are neither born at the time of creation nor are they disturbed at the time of dissolution.
14.2. Holding on to this knowledge, they have attained the state of having attributes common with Me; [and] they are neither born even at the time of creation [of the world], nor do they come to grief at the time of dissolution [of it].
14.2 इदम् this? ज्ञानम् knowledge? उपाश्रित्य having taken refuge in? मम My? साधर्म्यम् unity? आगताः have attained to? सर्गे at the time of creation? अपि also? न not? उपजायन्ते are born? प्रलये at the time of dissolution? न not? व्यथन्ति are (they) disturbed? च and.Commentary Having resorted to this knowledge they (the sages) are assimilated into My own nature. They have attained to My Being. They have become identical with Me. They live in Me with no thought of thou or I. They go beyond birth and death. There is no birth for them when creation begins and there is no death for them at the time of dissolution. Having reached Me they attain eternity? immortality and perfection. Having become identical with Me through the attainment of the knowledge of the Self by practising the necessary means? they are neither born at the time of creation nor are they disited at the time of dissolution. Knowledge of the Self is eulogised by the Lord in this verse.
14.2 Agatah, those who attain; mama sadharmyam, identity with Me the supreme God, unity with My real nature-sadharmyam, however, does not mean similarity of attributes, for, in the scripture Gita, distinction between the Knower of the field and God is not admitted; and this statement of the result is by way of eulogy-; upasritya, by resorting to i.e. by following; idam, this; jnanam, Knowledge as described, i.e., by following the means to Knowledge; na, are not; upajayante, born, produced; api, even; sarge, during creation; nor do they vyathanti, suffer pain, i.e. they do not perish; pralaye, during dissolution, when even Brahma perishes. The Lord says that association of this kind between the field and the Knower of the field is the origin of all beings:
14.2 Idam etc. Vyathanti : The suffix tip (Personal Termination, Third person, Singular) is due to Vedism. The same may be stated in other [similar] instances of the suffixes of Case Terminations and Personal Terminations. Now to begin with, [the Bhagavat] speaks of the seence in the cycle of birth and death. For, if what is to be abandoned is understood along with its cause then it is easy to abandon that -
14.2 They, resorting to this knowledge which will be expounded later, come to partake of My nature, and they attain My status. They are not born at the time of creation, they are not subjected to the process of creation, and they suffer not at the time of dissolution, i.e. they are not subjected to the distress involved in dissolution of the universe. In order to show how the Gunas of Prakrti constitute the cause of bondage, Sri Krsna now declares that, the aggregation of beings, born from the conjunction of Purusa and Prakrti as stated already in the passages, Whatever being is born (13.26), is brought about by the Lord Himself:
He who has taken shelter of this knowledge and attained liberation of sarupya, similarity of form with mine (sa dharmyam), does not experience pain at the time of death. The form vyathayanti is used instead of vyathayante (atmanepada).
By becoming immersed in this wisdom that Lord Krishna is prepared to reveal the jiva or embodied being attains identity with the Supreme Lord and are no longer subject to samsara or the perpetual cycle of birth and death. Nor are they born again at the time of universal creation even though Brahma is created; neither do they expire at the time of universal dissolution. They have achieved freedom from the bondage of transmigration.
This knowledge and wisdom which the great sages possess is what Lord Krishna is elaborating about in this chapter. The words mama sadharmyam means endowed with a similar divine eternality like the Supreme Lord. The word sarge meaning creation denotes the time of beginning and the word pralaye denotes the time of dissolution. Those who have acquired this knowledge and realised its wisdom having transcended are exempt from both and subject to neither birth or death. The explanation of how all existing beings result in their forms by the combination of matter and spirit and how the qualities of prakriti or the material substratum pervading physical existence come to manifest was already eloquently delineated in chapter 13 verse 22.
This knowledge and wisdom which the great sages possess is what Lord Krishna is elaborating about in this chapter. The words mama sadharmyam means endowed with a similar divine eternality like the Supreme Lord. The word sarge meaning creation denotes the time of beginning and the word pralaye denotes the time of dissolution. Those who have acquired this knowledge and realised its wisdom having transcended are exempt from both and subject to neither birth or death. The explanation of how all existing beings result in their forms by the combination of matter and spirit and how the qualities of prakriti or the material substratum pervading physical existence come to manifest was already eloquently delineated in chapter 13 verse 22.
Idam jnaanam upaashritya mama saadharmyam aagataah; Sarge’pi nopajaayante pralaye na vyathanti cha.
idam—this; jñānam—wisdom; upāśhritya—take refuge in; mama—mine; sādharmyam—of similar nature; āgatāḥ—having attained; sarge—at the time of creation; api—even; na—not; upajāyante—are born; pralaye—at the time of dissolution; na-vyathanti—they will not experience misery; cha—and