गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।14.20।।
।।14.20।।देहधारी (विवेकी मनुष्य) देहको उत्पन्न करनेवाले इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण करके जन्म? मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखोंसे रहित हुआ अमरताका अनुभव करता है।
।।14.20।। यह देही पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों से अतीत होकर जन्म? मृत्यु? जरा और दुखों से विमुक्त हुआ अमृतत्व को प्राप्त होता है।।
।।14.20।। व्याख्या -- गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् -- यद्यपि विचारकुशल मनुष्यका देहके साथ सम्बन्ध नहीं होता? तथापि लोगोंकी दृष्टिमें देहवाला होनेसे उसको यहाँ देही कहा गया है।देहको उत्पन्न करनेवाले गुण ही हैं। जिस गुणके साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है? उसके अनुसार उसको ऊँचनीच योनियोंमें जन्म लेना ही पड़ता है (गीता 13। 21)।अभी इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकसे अठारहवें श्लोकतक जिनका वर्णन हुआ है? उन्हीं तीनों गुणोंके लिये यहाँ एतान् त्रीन् गुणान् पद आये हैं। विचारकुशल मनुष्य इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् इनके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता? इनके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है। कारण कि उसको यह स्पष्ट विवेक हो जाता है कि सभी गुण परिवर्तनशील हैं? उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं और अपना स्वरूप गुणोंसे कभी लिप्त हुआ नहीं? हो सकता भी नहीं। ध्यान देनेकी बात है कि जिस प्रकृतिसे ये गुण उत्पन्न होते हैं? उस प्रकृतिके साथ भी स्वयंका किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है? फिर गुणोंके साथ तो उसका सम्बन्ध हो ही कैसे सकता हैजन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते -- जब इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है? तो फिर उसको जन्म? मृत्यु और वृद्धावस्थाका दुःख नहीं होता। वह जन्ममृत्यु आदिके दुःखोंसे छूट जाता है क्योंकि जन्म आदिके होनेमें गुणोंका सङ्ग ही कारण है। ये गुण आतेजाते रहते हैं इनमें परिवर्तन होता रहता है। गुणोंकी वृत्तियाँ कभी सात्त्विकी? कभी राजसी और कभी तामसी हो जाती हैं परन्तु स्वयंमें कभी सात्त्विकपना? राजसपना और तामसपना आता ही नहीं। स्वयं (स्वरूप) तो स्वतः असङ्ग रहता है। इस असङ्ग स्वरूपका कभी जन्म नहीं होता। जब जन्म नहीं होता? तो मृत्यु भी नहीं होती। कारण कि जिसका जन्म होता है? उसीकी मृत्यु होती है तथा उसीकी वृद्धावस्था भी होती है। गुणोंका सङ्ग रहनेसे ही जन्म? मृत्यु और वृद्धावस्थाके दुःखोंका अनुभव होता है। जो गुणोंसे सर्वथा निर्लिप्तताका अनुभव कर लेता है? उसको स्वतःसिद्ध अमरताका अनुभव हो जाता है।देहसे तादात्म्य (एकता) माननेसे ही मनुष्य अपनेको मरनेवाला समझता है। देहके सम्बन्धसे होनेवाले सम्पूर्ण दुःखोंमें सबसे बड़ा दुःख मृत्यु ही माना गया है। मनुष्य स्वरूपसे है तो अमर ही किन्तु भोग और संग्रहमें आसक्त होनेसे और प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले शरीरको अमर रखनेकी इच्छासे ही इसको अमरताका अनुभव नहीं होता। विवेकी मनुष्य देहसे तादात्म्य नष्ट होनेपर अमरताका अनुभव करता है।पूर्वश्लोकमें मद्भावं सोऽधिगच्छति पदोंसे भगवद्भावकी प्राप्ति कही गयी एवं यहाँ अमृतमश्नुते पदोंसे अमरताका अनुभव करनेको कहा गया -- वस्तुतः दोनों एक ही बात है।गीतामें जरामरणमोक्षाय (7। 29)? जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् (13। 8) और यहाँ जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तः (14। 20) -- इन तीनों जगह बाल्य और युवाअवस्थाका नाम न लेकर जरा (वृद्धावस्था) का ही नाम लिया गया है? जबकि शरीरमें बाल्य? युवा और वृद्ध -- ये तीनों ही अवस्थाएँ होती हैं। इसका कारण यह है कि बाल्य और युवाअवस्थामें मनुष्य अधिक दुःखका अनुभव नहीं करता क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओंमें शरीरमें बल रहता है। परन्तु वृद्धावस्थामें शरीरमें बल न रहनेसे मनुष्य अधिक दुःखका अनुभव करता है। ऐसे ही जब मनुष्यके प्राण छूटते हैं? तब वह भयंकर दुःखका अनुभव करता है।,परन्तु जो तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है? वह सदाके लिये जन्म? मृत्यु और वृद्धावस्थाके दुःखोंसे मुक्त हो जाता है।इस मनुष्यशरीरमें रहते हुए जिसको बोध हो जाता है? उसका फिर जन्म होनेका तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। हाँ? उसके अपने कहलानेवाले शरीरके रहते हुए वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही? पर उसको वृद्धावस्था और मृत्युका दुःख नहीं होगा।वर्तमानमें शरीरके साथ स्वयंकी एकता माननेसे ही पुनर्जन्म होता है और शरीरमें होनेवाले जरा? व्याधि आदिके दुःखोंको जीव अपनेमें मान लेता है। शरीर गुणोंके सङ्गसे उत्पन्न होता है। देहके उत्पादक गुणोंसे रहित होनेके कारण गुणातीत महापुरुष देहके सम्बन्धसे होनेवाले सभी दुःखोंसे मुक्त हो जाता है।अतः प्रत्येक मनुष्यको मृत्युसे पहलेपहले अपने गुणातीत स्वरूपका अनुभव कर लेना चाहिये। गुणातीत होनेसे जरा? व्याधि? मृत्यु आदि सब प्रकारके दुःखोंसे मुक्ति हो जाती है और मनुष्य अमरताका अनुभव कर लेता है। फिर उसका पुनर्जन्म होता ही नहीं। सम्बन्ध -- गुणातीत पुरुषं दुःखोंसे मुक्त होकर अमरताको प्राप्त कर लेता है -- ऐसा सुनकर अर्जुनके मनमें गुणातीत मनुष्यके लक्षण जाननेकी जिज्ञासा हुई। अतः वे आगेके श्लोकमें भगवान्से प्रश्न करते हैं।
।।14.20।। पाठशाला में कार्यकर रहे व्यक्ति को अग्नि की उष्णता और धुंए का कष्टसहना पड़ता है? तो ग्रीष्म काल की धूप में खड़े व्यक्ति को सूर्य के ताप और चमक को सहन करना पड़ता है। यदि ये दोनों व्यक्ति अपने उन स्थानों से हटकर अन्य शीतल स्थान पर चले जायें? तो उनके कष्टों की निवृत्ति हो जायेगी। इसी प्रकार? हम अपनी उपाधियों में क्रीड़ा कर रहे तीन गुणों के साथ तादात्म्य करके सांसारिक जीवन के बन्धनों और दुखों को भोग रहे हैं। इनसे अतीत हो जाने पर इनकी क्रूरता का अन्त हो जाता है? क्योंकि परिपूर्ण सच्चिदानन्द आत्मा में इन सबका कोई अस्तित्व नहीं है।यहाँ सत्त्वादि गुणों को शरीर की उत्पत्ति का कारण बताया गया है। वेदान्त की भाषा में आत्मस्वरूप के अज्ञान को कारण शरीर कहते हैं जिसका अनुभव हमें अपनी निद्रावस्था में होता है। इन तीनों गुण से भिन्न यह अज्ञान कोई वस्तु नहीं है। इस कारण अवस्था से ये त्रिगुण? सूक्ष्म शरीर अर्थात् अन्तकरण की विभिन्न वृत्तियों और भावनाओं के रूप में व्यक्त होते हैं। विचाररूप में परिणत ये गुण शुभ या अशुभ कर्मों के रूप में व्यक्त होने के लिये स्थूल शरीर का रूप ग्रहण करते हैं।प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को प्रगट करने के लिए एक उपयुक्त माध्यम की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ? चित्रकार को एक पट? तूलिका और रंगों की? तो संगीतज्ञ को वाद्यों की आवश्यकता होती है। चित्रकार को वाद्य और संगीतज्ञ के हाथ में तूलिका देने से दोनों को कोई लाभ नहीं होगा। इसी प्रकार? पशु की वृत्तियों वाले जीव को पशु का देह धारण करना मनुष्य शरीर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होगा। यह सब कार्य इन तीन गुणों का ही है।इससे स्पष्ट हो जाता है कि त्रिगुणों से परे पहुँचा हुआ व्यक्ति सूक्ष्म और कारण शरीरों के दुखों से भी मुक्त हो जाता है।विकार और परिवर्तन जड़ पदार्थ के धर्म हैं। अत भौतिक तत्त्वों से बने हुये सभी स्थूल शरीर विकारों को प्राप्त होते हैं? जिनका क्रम है जन्म? वृद्धि? व्याधि? जरा (क्षय) और मृत्यु। इनमें से प्रत्येक विकार दुखदायक होता है। जन्म में पीड़ा है वृद्धि व्यथित करने वाली है? वृद्धावस्था विचलित करने वाली है? व्याधि अत्यन्त क्रूर है तो मृत्यु अत्यन्त भयंकर परन्तु ये समस्त दुख देहाभिमानी अज्ञानी जीव को ही होते हैं? आत्म स्वरूप में स्थित आत्मज्ञानी को नहीं? क्योंकि वह अपने उपाधियों से परे स्वरूप को पहचान लेता है। बाढ़? अकाल? युद्ध? महामारी? अन्त्येष्टि? विवाह एवं अन्य सहस्र घटनाओं को सूर्य प्रकाशित करता है? किन्तु सूर्य में इनमें से एक भी घटना का अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार आत्मचैतन्य हमारी उपाधियों को तथा तत्संबंधित अनुभवों को प्रकाशित करता है? परन्तु उसका इन सबके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। अत आत्मवित् पुरुष इन सभी संघर्षों से मुक्त हो जाता है।और वह अमृतत्त्व को प्राप्त होता है आत्मज्ञान का फल केवल दुख निवृत्ति ही नहीं वरन् परमानन्द प्राप्त भी है। भगवान् के कथन में इसी तथ्य का निर्देश है। निद्रावस्था में रोगी व्यक्ति अपनी पीड़ा को भूल जाता है निराश व्यक्ति अपनी निराशाओं से मुक्त हो जाता है क्षुधा से व्याकुल पुरुष को क्षुधा का अनुभव नहीं होता और दुखी को दुख का विस्मरण हो जाता है। परन्तु? इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि रोगोपशम हो गया? निराशा निवृत्त हो गयी? क्षुधा शांत हो गयी और दुख का शमन हो गया। निद्रा तो वर्तमान दुख के साथ होने वाली अस्थायी सन्धिमात्र है। जाग्रत अवस्था में आने पर पुन ये सब दुख भी लौटकर आ जाते हैं। परन्तु आत्मानुभूति में दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। इसलिये यहाँ कहा गया है कि अमृतत्त्व अर्थात् मोक्ष की इस स्थिति को इसी जगत् में? इसी जीवन में और इसी देह में रहते हुये प्राप्त किया जा सकता है। इस पृथ्वी पर ईश्वरीय पुरुष बनने का अनुभव वास्तव में विरला है। ऐसे मुक्त पुरुष के लक्षण क्या हैं? जिन्हें जानकर हम उसे समझ सकें और अपने में भी उस स्थिति को पाने का प्रयत्न कर सकें वह जगत् में किस प्रकार व्यवहार करेगा तथा जगत् के साथ उस ज्ञानी का संबंध किस प्रकार का होगा प्रश्न पूछने के लिये एक अवसर पाकर अर्जुम पूछता है