उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।14.23।।
।।14.23।।जो उदासीनकी तरह स्थित है और जो गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही (गुणोंमें) बरत रहे हैं -- इस भावसे जो अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता।
।।14.23।। जो उदासीन के समान आसीन होकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही व्यवहार करते हैं ऐसा जानकर स्थित रहता है और उस स्थिति से विचलित नहीं होता।।
।।14.23।। व्याख्या -- उदासीनवदासीनः -- दो व्यक्ति परस्पर विवाद करते हों? तो उन दोनोंमेंसे किसी एकका पक्ष लेनेवाला पक्षपाती कहलाता है और दोनोंका न्याय करनेवाला मध्यस्थ कहलाता है। परन्तु जो उन दोनोंको देखता तो है? पर न तो किसीका पक्ष लेता है और न किसीसे कुछ कहता ही है? वह उदासीन कहलाता है। ऐसे ही संसार और परमात्मा -- दोनोंको देखनेसे गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।वास्तवमें देखा जाय तो संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। सत्स्वरूप परमात्माकी सत्तासे ही संसार सत्तावाला दीख रहा है। अतः जब गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है ही नहीं? केवल एक परमात्माकी सत्ता ही है? तो फिर वह उदासीन किससे हो परन्तु जिनकी दृष्टिमें संसार और परमात्माकी सत्ता है? ऐसे लोगोंकी दृष्टिमें वह गुणातीत मनुष्य उदासीनकी तरह दीखता है।गुणैर्यो न विचाल्यते -- उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें सत्त्व? रज? और तम -- इन गुणोंकी वृत्तियाँ तो आती हैं? पर वह इनसे विचलित नहीं होता। तात्पर्य है कि जैसे अपने सिवाय दूसरोंके अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर अपनेमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता? ऐसे ही उसके कहलानेवाले अन्तःकरणमें गुणोंकी वृत्तियाँ आनेपर उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता अर्थात् वह उन वृत्तियोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। कारण कि उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारका अत्यन्त अभाव एवं परमात्मतत्त्वका भाव निरन्तर स्वतःस्वाभाविक जाग्रत् रहता है।गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति -- गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (गीता 3। 28) अर्थात् गुणोंमें ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं -- ऐसा समझकर वह अपने स्वरूपमें निर्विकाररूपसे स्थित रहता है।न इङ्गते -- पहले गुणा वर्तन्त इत्येव पदोंसे उसका गुणोंके साथ सम्बन्धका निषेध किया? अब न ईङ्गते पदोंसे उसमें क्रियाओँका अभाव बताते हैं। तात्पर्य है कि गुणातीत पुरुष खुद कुछ भी चेष्टा नहीं करता। कारण कि अविनाशी शुद्ध स्वरूपमें कभी कोई क्रिया होती ही नहीं।[बाईसवें और तेईसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी तटस्थता? निर्लिप्तताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध -- इक्कीसवें श्लोकमें अर्जुनने दूसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत मनुष्यके आचरण पूछे थे। उसका उत्तर अब आगेके दो श्लोकोंमें देते हैं।
।।14.23।। भगवान् श्रीकृष्ण तीन श्लोकों में जगत् की वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ ज्ञानी पुरुष जो सम्बन्ध रखता है? उसका विस्तृत वर्णन करते हैं। मनुष्य की संस्कृति एक मिथ्या मुखौटा हो सकती है। जब तक पर्याप्त रूप से प्रलोभित करने वाली परिस्थितियां हमारे समक्ष उपस्थित नहीं होती? तब तक हममें से बहुत से लोग ईश्वर के समान व्यवहार कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में जब तक सत्ता नहीं आती? तब तक हो सकता है कि वह क्रूर न हो वह जब तक दरिद्री है? तब तक शान्त जीवन व्यतीत करता हो और प्रलोभनों के अभाव में वह भ्रष्टाचार से ऊपर हो। इस प्रकार? अनेक ऐसे सद्गुण जिनसे अनेक व्यक्तियों को हम सम्पन्न समझते हैं? वे सब केवल कृत्रिम सौन्दर्य के ही होते हैं। उनका वास्तविक हीन स्वरूप उस मुखौटे से छिपा रहता है।सम्भावित दुष्ट पुरुष ऋण लिये सद्गुणों के कृत्रिम परिधानों को धारण करके जगत् में विचरण करते रहते हैं। इसलिए? ज्ञानी पुरुष की वास्तविक परीक्षा या पहचान जंगलों या गिरिकन्दराओं में नहीं? वरन् बीच बाजार में हो सकती है? जहाँ वह जगत् की दुष्टताओं से पीड़ित किया जाता है। ईसा मसीह इतने महान् कभी नहीं थे जितने वे सूली पर चढ़ाये जाने के समय हुए जगत् के द्वारा कुचले जाने पर ही हमारा वास्तविक स्वभाव प्रगट होता है। घर्षण से ही चन्दन की सुगन्ध प्रगट होती है। जिन उँगलियों से हम तुलसी दल को पीसते हैं वह उन्हीं पर अपना सुगन्ध छोड़ जाता है।ज्ञानी पुरुष उदासीन के समान आसीन हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता है। जगत् के सभी शुभ? अशुभ और उपेक्ष्य अनुभवों में वह उदासीन के समान रहता है? क्योंकि वह जानता है कि यह सब मन का खेल मात्र है। चित्रपट ग्रह में दर्शाये जा रहे चलचित्र के सुखान्त अथवा दुखान्त से हम विचलित नहीं होते? क्योंकि हम जानते हैं कि यह छायाचित्र का खेल हमारे मनोरंजन के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानी पुरुष जगत् की घटनाओं से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं रखता है। व्यासजी अत्यन्त सावधानीपूर्वक शब्दों को चुनते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष ऐसा प्रतीत होता है? मानो वह उदासीन्ा हो उदासीनवत् आसीन। इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह अपने जीवन में तथा बाह्य जगत् में होने वाली घटनाओं से विक्षुब्ध या उत्तेजित नहीं हो जाता।वह भलीभाँति जानता है कि उसके अन्तकरण में होने वाले ये निरन्तर परिवर्तन केवल गुणों के ही हैं और फिर बाह्य जगत् का अनुभव भी मनस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। सम्यक्दर्शी पुरुष अपने आन्तरिक तथा बाह्य जगत् में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को जानकर उनसे अविचलित रहता है।इन गुणों की क्रीड़ा देखने के लिये स्वयं साक्षी बनकर रहना होता है। अपने आत्मस्वरूप में स्थित रहकर वह गुणों की अन्तर्बाह्य क्रीड़ा को देखते हुये उसका आनन्द उठाता है। गली में हो रहे लड़ाईझगड़े को ऊपर छज्जे पर से देखने वाला व्यक्ति उस लड़ाई से प्रभावित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी अपनी समत्व की स्थिति से गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है।पूर्व श्लोक को और अधिक स्पष्ट करते हुये कहते हैं