समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।14.24।।
।।14.24।।जो धीर मनुष्य सुखदुःखमें सम तथा अपने स्वरूपमें स्थित रहता है जो मिट्टीके ढेले? पत्थर और सोनेमें सम रहता है जो प्रियअप्रियमें तथा अपनी निन्दास्तुतिमें सम रहता है जो मानअपमानमें तथा मित्रशत्रुके पक्षमें सम रहता है जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है? वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।
।।14.24।। जो स्वस्थ (स्वरूप में स्थित)? सुखदुख में समान रहता है तथा मिट्टी? पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है ऐसा वीर पुरुष प्रिय और अप्रिय को तथा निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य समझता है।।
।।14.24।। व्याख्या -- धीरः? समदुःखसुखः -- नित्यअनित्य? सारअसार आदिके तत्त्वको जानकर स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित होनेसे गुणातीत मनुष्य धैर्यवान् कहलाता है।पूर्वकर्मोंके अनुसार आनेवाली अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिका नाम सुखदुःख है अर्थात् प्रारब्धके अनुसार शरीर? इन्द्रियों आदिके अनुकूल परिस्थितिको सुख कहते हैं और शरीर? इन्द्रियों आदिके प्रतिकूल परिस्थितिको दुःख कहते हैं। गुणातीत मनुष्य इन दोनोंमें सम रहता है। तात्पर्य है कि सुखदुःखरूप बाह्य परिस्थितियाँ उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणमें विकार पैदा नहीं कर सकतीं? उसको सुखीदुःखी नहीं कर सकतीं।स्वस्थः -- स्वरूपमें सुखदुःख है ही नहीं। स्वरूपसे तो सुखदुःख प्रकाशित होते हैं। अतः गुणातीत मनुष्य आनेजानेवाले सुखदुःखका भोक्ता नहीं बनता? प्रत्युत अपने नित्यनिरन्तर रहनेवाले स्वरूपमें स्थिर रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चनः -- उसका मिट्टीके ढेले? पत्थर और स्वर्णमें न तो आकर्षण (राग) होता है और न विकर्षण (द्वेष) होता है। परन्तु व्यवहारमें वह ढेलेको ढेलेकी जगह रखता है? पत्थरको पत्थरकी जगह रखता है और स्वर्णको स्वर्णकी जगह (तिजोरी आदिमें) रखता है। तात्पर्य है कि यद्यपि उनकी प्राप्तिअप्राप्तिमें उसको हर्षशोक नहीं होते? वह सम रहता है? तथापि उनसे व्यवहार तो यथायोग्य ही करता है।ढेले? पत्थर और स्वर्णका ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनोंका ज्ञान होते हुए भी इनमें रागद्वेष न हों। ज्ञान कभी दोषी नहीं होता? विकार ही दोषी होते हैं।तुल्यप्रियाप्रियः -- क्रियमाण कर्मोंकी सिद्धिअसिद्धिमें अर्थात् उनके तात्कालिक फलकी प्राप्तिअप्राप्तिमें भी वह सम रहता है।तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः -- निन्दा और स्तुतिमें नामकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका नामके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता अतः कोई निन्दा करे तो उसके चित्तमें खिन्नता नहीं होती और कोई स्तुति करे तो उसके चित्तमें प्रसन्नता नहीं होती। इसी प्रकार निन्दा करनेवालोंके प्रति उसका द्वेष नहीं होता और स्तुति करनेवालोंके प्रति उसका राग नहीं होता।साधारण मनुष्योंकी यह एक आदत बन जाती है कि उनको अपनी निन्दा बुरी लगती है और स्तुति अच्छी लगती है। परन्तु जो गुणोंसे ऊँचे उठ जाते हैं? उनको निन्दास्तुतिका ज्ञान तो होता है और वे बर्ताव भी सबके साथ यथोचित ही करते हैं? पर उनमें निन्दास्तुतिको लेकर खिन्नताप्रसन्नता नहीं होती। कारण कि वे जिस तत्त्वमें स्थित हैं? वहाँ गुणोंवाली परकृत निन्दास्तुति पहुँचती ही नहीं।निन्दा और स्तुति -- ये दोनों ही परकृत क्रियाएँ हैं। उन क्रियाओंसे राजीनाराज होना गलती है। कारण कि जिसका जैसा स्वभाव है? जैसी धारणा है? वह उसके अनुसार ही बोलता है। वह हमारे अनुकूल ही बोले? हमारी निन्दा न करे -- यह न्याय नहीं है अर्थात् उसको बोलनेमें बाध्य करनेका भाव न्याय नहीं है? अन्याय है। दूसरोंपर हमारा क्या अधिकार है कि तुम हमारी निन्दा मत करो हमारी स्तुति ही करो दूसरी बात? कोई निन्दा करता है तो उसमें साधकको प्रसन्न होना चाहिये कि इससे मेरे पाप कट रहे हैं? मैं शुद्ध हो रहा हूँ। अगर कोई हमारी प्रशंसा करता है? तो उससे हमारे पुण्य नष्ट होते हैं। अतः प्रशंसामें राजी नहीं होना चाहिये क्योंकि राजी होनेमें खतरा हैमानापमानयोस्तुल्यः -- मान और अपमान होनेमें शरीरकी मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्यका शरीरके साथ तादात्म्य नहीं रहता। अतः कोई उसका आदर करे या निरादर करे? मान करे या अपमान करे? इन परकृत क्रियाओंका उसपर कोई असर नहीं पड़ता।निन्दास्तुति और मानअपमान -- इन दोनों ही परकृत क्रियाओंमें गुणातीत मनुष्य सम रहता है। इन दोनों परकृत क्रियाओंका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत निन्दा और अपमानमें दुःखी होना तथा स्तुति और मानमें हर्षित होना दोषी है क्योंकि ये दोनों ही प्रकृतिके विकार हैं। गुणातीत पुरुषको निन्दास्तुति और मानअपमानका ज्ञान तो होता है? पर गुणोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेसे? नाम और शरीरके साथ तादात्म्य न रहनेसे वह सुखीदुःखी नहीं होता। कारण कि वह जिस तत्त्वमें स्थित है? वहाँ ये विकार नहीं हैं। वह तत्त्व गुणरहित है? निर्विकार है।तुल्यो मित्रारिपक्षयोः -- वह मित्र और शत्रुके पक्षमें सम रहता है। यद्यपि गुणातीत मनुष्यकी दृष्टिमें कोई मित्र और शत्रु नहीं होता? तथापि दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार उसे अपना मित्र अथवा शत्रु भी मान सकते हैं। साधारण मनुष्यको भी दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार मित्र या शत्रु मान सकते हैं किन्तु इस बातका पता लगनेपर उस मनुष्यपर इसका असर पड़ता है? जिससे उसमें रागद्वेष उत्पन्न हो सकते हैं। परन्तु गुणातीत मनुष्यपर इस बातका पता लगनेपर भी कोई असर नहीं पड़ता। वस्तुतः मित्र और शत्रुकी भावनाके कारण ही व्यवहारमें पक्षपात होता है। गुणातीत मनुष्यके कहलानेवाले अन्तःकरणमें मित्रशत्रुकी भावना ही नहीं होती अतः उसके व्यवहारमें पक्षपात नहीं होता।एक व्यक्ति उस महापुरुषके साथ मित्रता रखता है और दूसरा व्यक्ति अपने स्वभाववश उस महापुरुषके साथ शत्रुता रखता है। जब उन दोनों व्यक्तियोंकी किसी बातको लेकर न्याय करनेका अवसर आ जाय? तब (व्यवहारमें) वह मित्रता रखनेवालेकी अपेक्षा शत्रुता रखनेवालेका कुछ अधिक पक्ष लेता है। जैसे -- पदार्थादिका बँटवारा करते समय वह मित्रता रखनेवालेको कम (उतना ही? जितना वह प्रसन्नतापूर्वक सहन कर सकता हो) और शत्रुता रखनेवालोंको कुछ ज्यादा पदार्थ देता है। यह भी समता ही कहलाती है क्योंकि अपने पक्षवालोंके साथ न्याय और विपक्षवालोंके साथ उदारता होनी चाहिये।सर्वारम्भपरित्यागी -- वह महापुरुष सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी होता है। तात्पर्य है कि धनसम्पत्तिके संग्रह और भोगोंके लिये वह किसी तरहका कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता। स्वतः प्राप्त परिस्थितिके अनुसार ही उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओंमें उसकी प्रवृत्ति कामना? वासना? ममतासे रहित होती है और निवृत्ति भी मानबड़ाई आदिकी इच्छासे रहित होती है।गुणातीतः स उच्यते -- यहाँ उच्यते पदसे यही ध्वनि निकलती है कि उस महापुरुषकी गुणातीत संज्ञा नहीं है किन्तु उसके कहे जानेवाले शरीर? अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर ही उसको गुणातीत कहा जाता है।वास्तवमें देखा जाय तो जो गुणातीत है? उसके लक्षण नहीं हो सकते। लक्षण तो गुणोंसे ही होते हैं अतः जिसके लक्षण होते हैं? वह गुणातीत कैसे हो सकता है परन्तु अर्जुनने भी गुणातीतके ही लक्षण पूछे हैं और भगवान्ने भी गुणातीतके ही लक्षण कहे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि लोग पहले उस गुणातीतकी जिस शरीर और अन्तःकरणमें स्थिति मानते थे? उसी शरीर और अन्तःकरणके लक्षणोंको लेकर वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है। अतः ये लक्षण गुणातीत मनुष्यको पहचाननेके संकेतमात्र हैं।प्रकृतिके कार्य गुण हैं और गुणोंके कार्य शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि हैं। अतः मनबुद्धि आदिके द्वारा अपने कारण गुणोंका भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता? फिर गुणोंके भी कारण प्रकृतिका वर्णन हो ही कैसे सकता है जो प्रकृतिसे भी सर्वथा अतीत (गुणातीत) है? उसका वर्णन करना तो उन मनबुद्धि आदिके द्वारा सम्भव ही नहीं है। वास्तवमें गुणातीतके ये लक्षण स्वरूपमें तो होते ही नहीं किन्तु अन्तःकरणमें मानी हुई अहंताममताके नष्ट हो जानेपर उसके कहे जानेवाले अन्तःकरणके माध्यमसे ही ये लक्षण -- गुणातीतके लक्षण कहे जाते हैं।यहाँ भगवान्ने सुखदुःख? प्रियअप्रिय? निन्दास्तुति और मानअपमान -- ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं? जिनमें साधारण आदमियोंकी तो विषमता हो ही जाती है? साधकोंकी भी कभीकभी विषमता हो जाती है। ऐसे इन आठ कठिन स्थलोंमें जिसकी समता हो जाती है? उसके लिये अन्य सभी अवस्थाओंमें समता रखना सुगम हो जाता है। अतः यहाँ उन्हीं आठ कठिन स्थलोंका नाम लेकर भगवान् यह बताते हैं कि गुणातीत महापुरुषकी इन आठों स्थलोंमें स्वतःस्वाभाविक समता होती है।गुणातीत मनुष्यकी जो स्वतःसिद्ध निर्विकारता है? उसकी जो स्वाभाविक स्थिति है? उसमें अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेजानेका कुछ भी फरक नहीं पड़ता। उसकी निर्विकारता? समता ज्योंकीत्यों अटल रहती है। उसकी शान्ति कभी भङ्ग नहीं होती।[चौबीसवें और पचीसवें -- इन दो श्लोकोंमें भगवान्ने गुणातीत महापुरुषकी समताका वर्णन किया है।] सम्बन्ध -- अर्जुनने तीसरे प्रश्नके रूपमें गुणातीत होनेका उपाय पूछा था। उसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।14.24।। जीवन की निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों में ज्ञानी पुरुष के मन के समत्व और सन्तुलन का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। त्रिगुणों की क्रूरताओं से परे आत्मा में ज्ञानी पुरुष स्थित रहता है? जहाँ सत्त्वगुण का रोमांचक सुख नहीं है? न रजोगुण का कोलाहल है और न ही तमोगुण की थकान है। वह सच्चिदानन्द स्वरूप है।सामान्य मनुष्य को समता की यह स्थिति पूर्ण मृत्यु ही प्रतीत होगी। और? निसन्देह? यह वास्तविकता भी है यह परिच्छिन्न अहंकार की मृत्यु है? जो सांसारिक अनुभवों का भोक्ता है। उपाधियुक्त आत्मा ही जीवरूप में प्रतीत होता है? जो सदैव विक्षुब्ध मन की प्रचण्ड चंचल वृत्तियों पर समुद्री सतह पर बहते हुये काष्ठ खण्ड के समान व्यवहार करता है। प्रेम और घृणा? राग और द्वेष के तूफानों से सदैव विचलित हुआ यह दुखी जीव असंख्य विक्षेपों और दुखों को भोगता रहता है।इसलिये? तृष्णा और आसक्ति के इस दुर्व्यवस्थित क्षेत्र से स्वयं को विलग कर स्वस्वरूप में ही स्थित होना ही मुक्ति है। ज्ञानी पुरुष का जगत् के साथ क्या सम्बन्ध होता है यह प्रश्न ऐसा ही है? जैसे जाग्रत पुरष का अपने स्वप्नजगत् से क्या सम्बन्ध होता है त्रिगुणों के बन्धनों से मुक्त पुरुष जगत् की अनात्म वस्तुओं के साथ के अविद्याजनित अहं और मम भाव को सर्वथा त्याग देता है। उस वास्तविक दैवी जाग्रति की अवस्था में निम्न स्तर के अनुभव? इस जगत् के सुख और दुख? प्रिय और अप्रिय तथा निन्दा और स्तुति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। समस्त अनुभवों में वह सम? असंग साक्षी बनकर रहता है।स्वस्थ अपने सर्व उपाधिविवर्जित सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित पुरुष स्वस्थ कहलाता है। अत उपाधियों के द्वारा अनुभूत जगत् से वह अछूता रहता है।समदुखसुख इन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत् के सम्पर्क में आकर पूर्वकाल में अर्जित किये हुये समान अनुभवों की तुलना में उसका मूल्यांकन करना और तत्पश्चात् उसे सुख या दुख के रूप में अनुभव करना? यह हमारे व्यष्टि मन की युक्ति है। यदि बाह्य जगत् की वस्तुओं में ही सुख या दुख होता? तो सभी व्यक्तियों का अनुभव एक समान होता जैसे सूर्य के प्रकाश का सबका अनुभव एक समान है? क्योंकि प्रकाश सूर्य का धर्म है। परन्तु विषयों के सम्बन्ध में यह बात नहीं देखी जाती। कोई विषय किसी एक व्यक्ति को सुखदायक प्रतीत होता है तो अन्य व्यक्ति को दुखदायक। इससे सिद्ध होता है कि हमारे सुखदुख अपने मन की कल्पना मात्र हैं? वस्तुस्थिति न्ाहीं। ज्ञानी पुरुष मन और बुद्धि के उपनेत्रों से जगत् को नहीं देखता और? इसलिये? संसारी पुरुषो द्वारा कहे जाने वाले सुख और दुख में वह समान रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चन वह लोष्ट (मिट्टी)? अश्म (पाषाण) और काञ्चन (स्वर्ण) इन सबको समदृष्टि से देखता है। वस्तुओं का परिग्रह करने में संसारी लोगों की अत्यधिक रुचि होती है। लोग स्वर्ण? हीरे? मोती आदि बहुमूल्य वस्तुओं को एकत्र करना चाहते हैं? किन्तु सामान्य मिट्टी? पाषाण आदि की उपेक्षा करते हैं। परन्तु जिसे परमार्थ वस्तु की उपलब्धि हो गई है? वह ज्ञानी पुरुष मिट्टी? पाषाण? स्वर्ण इन सबको एक समान ही देखता है ? क्योंकि पारमार्थिक सत्य की दृष्टि से ये सब मिथ्या वस्तुएं ही हैं। वस्तुत? उनमें कोई भी मूल्यवान नहीं है।बाल्यावस्था में? छोटे बालक मयूरपंख? शुक्तिका? संगमर्मर के टुकड़े? टूटी चूड़ियां? पुरानी टिकटें आदि वस्तुओं का संग्रह करते हैं और उनके लिये वह एक बहुमूल्य कोष के समान होता है। परन्तु युवावस्था के प्राप्त होने पर उस कोष का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। वे उसे अपने छोटे भाई को दे देते हैं तो वह उस धरोहर को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसी प्रकार? जीवभाव में स्थित अज्ञानी पुरुष असंख्य वस्तुओं का संग्रह करना चाहता है? जो ज्ञानी की दृष्टि में बच्चों का एक खेल मात्र है।तुल्यप्रियाप्रिय यदि हम अनेक व्यक्तियों के साथ के अपने सम्बन्धों पर विचार करें? तो यह ज्ञात होगा कि हमें अपने समस्वभाव का व्यक्ति प्रिय प्रतीत होगा और प्रतिकूल स्वभाव का व्यक्ति अप्रिय। यही बात वस्तुओं और परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी सत्य है। यह प्रिय और अप्रिय का अनुभव मन के स्तर पर रहने वाले लोगों के लिये ही है? मन से परे आत्मस्वरूप में स्थित हुये ज्ञानी पुरुष के लिये नहीं। जगत् में सामान्य दृष्टि से किन्हीं वस्तुओं और घटनाओं को प्रिय या अप्रिय समझा जाता है। ज्ञानी पुरुष के लिये वे सब तुल्य हैं? क्योंकि वह समान्य जनों के मापदण्ड से जगत् की ओर नहीं देखता है।तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति स्वप्नावस्था में स्वप्नद्रष्टा पुरुष की कोई निन्दा करते हैं और कोई प्रशंसा। जब वह स्वप्न से जाग जाता है तो क्या वह उस निन्दा और स्तुति को तुल्य नहीं समझेगा संसारी लोग अपनीअपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार कभी किसी की निन्दा करते हैं? तो कभी स्तुति। सर्वोच्च आत्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त पुरुष के लिये दोनों का ही कोई महत्त्व नहीं होता।उपर्युक्त अनुभवों के चार सुन्दर उदाहरणों के द्वारा व्यासजी ने जीवन के कुछ प्रमुख अनुभव दर्शाये हैं? जिनमें सामान्य मनुष्य सुख और दुख का अनुभव करता है।आगे कहते हैं
14.24 He to whom sorrow and happiness are alike, who is established in his own Self, to whom a lump of earth, iron and gold are the same, to whom the agreeable and the disagreeable are the same, who is wise, to whom censure and his own praise are the same;
14.24 Who is the same in pleasure and pain, who dwells in the Self, to whom a clod of earth, stone and gold are alike, who is the same to the dear and the unfriendly, who is firm, and to whom censure and praise are as one.
14.24. To whom pain, pleasure and sleep are alike; to whom a cold, a stone and a lump of gold are alike; to whom both the pleasant and the unpleasant things are eal; who is firm [in mind]; to whom blame and personal commendation are eal;
14.24 समदुःखसुखः alike in pleasure and pain? स्वस्थः standing in his own Self? समलोष्टाश्मकाञ्चनः regarding a clod of earth? a stone and gold alike? तुल्यप्रियाप्रियः the same to the dear and the undear? धीरः firm? तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः the same in censure and praise. Commentary Night and day have no meaning to a post fixed in the ground. Even so pleasure and pain have no meaning to a sage who dwells in his own Self. He is above the pairs of opposites. In his eyes cowdung or gold? a jewel or a stone? are of eal value. He is free from the idea of,giving and taking. His mind is not perturbed by anything pleasant or unpleasant. He is the same towards agreeable and disagreeable things. Praise and censure cannot affect him. He stands adamant. He abides in his own essential state as ExistenceKnowledgeBliss Absolute. He is ever calm and serene. (Cf.V.18)
14.24 Moreover, sama-duhkha-sukhah, he to whom sorrow and happiness are alike;svasthah, who is established in his own Self, tranil; sama-losta-asma-kancanah, to whom a lump of earth, iron and gold are the same; tulya-priya-apriyah, to whom the agreeable and the disagreeable are the same; dhirah, who is wise; tulya-ninda-atma-samstutih, to whom, to which monk, censure and his own praise are the same-.
14.24 See Comment under 14.25
14.24 - 14.25 He who is alike in pleasure and pain, namely, whose mind is eal in pleasure and pain; who dwells in his self, namely, who dwells in his self because his love for the self keeps his mind in eanimity in pleasure and pain arising from the birth, death etc., of his sons and other relatives and friends, and who, because of this, looks upon a clod, a stone and a piece of gold as of eal value, who conseently remains the same towards things dear or hateful, i.e., who treats alike the worldly objects desired and undesired; who is intelligent, namely, proficient in discrimination between the Prakrti and the self; who, therefore, regards blame and praise as alike, namely, who treats with eality praise and blame looking upon good and evil alities as born of identification with bodies such as those of men etc., and as such unconnected with his real self; who is the same in honour and dishonour because these are feelings based on the misconception that the body is the self, and as a conseence of such discrimination between the body and the self, looks alike on friend and foe, because he understands that ther is no connection between them and himself; and who has thus abandoned all entrprises in which embodied beings are involved - he who is like this, is said to have risen above the Gunas. Now Sri Krsna states the main method (technie) for transcending such Gunas:
Although the questions put forth in verse 21 were asked previously in chapter two verse 54 and answered from that point of view. Now Lord Krishna describes the characteristics in detail from another angle of vision until the end of the chapter. In verse 22 He describes the primary quality of each of the three gunas or modes of material nature that indicates the position were one is situated. One who neither hates nor rejoices by being exposed to unpleasant or pleasant situations due to illumination within is a result of sattva guna the mode of goodness and from all the sense openings of the physical body this light of consciousness radiates. Similarly when these same sense openings express themselves with activity it is a result of raja guna the mode of passion and when they are steeped in nescience they are in tama guna the mode of ignorance. When the attributes and qualities of the three gunas manifest themselves within the consciousness as the case may be; one who is not repulsed by them because they are painful nor is attracted to them because they are pleasurable is known to have transcended the three gunas. Thus Lord Krishna having described the characteristics that can be known only by Him regarding such a person, He now describes the conduct that can be known by anyone in verses 23, 24, and 25. One who is indifferent in every situation like a winess to an event and who is equipoised and undisturbed by any interaction with the three gunas that might present itself such as happiness or misery, realises that the gunas themselves are empowering the effects. Such a jiva or embodied being understands by discriminative reflection that the atma or immortal soul has no connection whatsoever with the gunas or their effects. Such a jiva is avatisthati or firmly situated and nengate or unwavering. The use of the suffix ti instead of te in the verb is poetic license in tribute to the sages and seers. To whom pleasure and pain are non-different to the jiva who is thus situated abiding in the atma in ones eternal nature. To such a jiva aclod of earth, a precious stone and a nugget of gold are all simply manifestations of prakriti or the material substratum pervading physical existence and are all of equal worth. Also to whom agreeable and disagreeable things which are the causes of pleasure and pain are seen as the same by one of calm and steady intellect who is also indifferent to the bestowal of both praise and ridicule. Equiposed in honor or dishonor, equal towards friend or foe alike. Who is habituated to renouncing the rewards of all actions producing visible or invisible results to bhakti or exclusive loving devotional service to the Supreme Lord Krishna or any of His authorised avataras or incarnations as verified in Vedic scriptures. Such a jiva is known to have transcended the three gunas.
The primary chracteristics is an enlightened being is equipoise in all situations. Such a one has no desires so nothing can disturb them. If adversity comes one is not alarmed and if prosperity comes one is not elated. One remains balanced in all situations. In the Ballaveya section of the Sama Veda it is stated:One who transcends the three gunas or modes of material nature is neither attracted, attached , repulsed or antagonised. If some subtle qualities of sattva guna or the mode of goodness were to enter the consciousness in connection with the Supreme Lord Krishna then they would be accepted. But if subtle qualities of raja guna or the mode of passion and tama guna or the mode of ignorance were to appear they would be rejected immeadiately. The Moksa Dharma known as the Mahabharata confirms that neither the demigods nor the enlightened ones being established in sattva guna can ever be without the subtle attributes of sattva thus they are firm in their convictions. One who is not steadfast in their convictions can never achieve moksa or liberation from material existence and attain the Supreme Lord. The person who is fixed within in sattva guna soon becomes perfected and is assured all success. Now begins the summation. The illumination that may be established in others is neither desired or detested by one who has transcended the influence of the three gunas. But sometimes it has been seen that illumined beings seem to again succumb to subtle desires by the subtle influence of raja guna and tama guna. This can be perceived by anger or bewilderment; but as they are always in communion with the Supreme Lord within their hearts even if they appear deluded they will still always seek the association of the Supreme Lord Krishna alone. Even in the absence of happiness or the darkest adversity the devotees of the Ssupreme Lord remain balanced and are ever equipoised. They are never disturbed because of lack of wealth, the death of dear ones, harrassment by those who are inimical, bewilderment or fright. In all situations there is never any decrease in their devotion if anything here is an increase in devotion because the devotee is humbly reflecting how the Supreme Lord is only allowing the minimum reaction to past reactions. The word nengate means unwavering. The word udasinavat means indifferent to the inflences of three gunas bothe subtle and gross. Those who completely relinquish all activities opposed to dharma or eternal righteousness which are not pleasing to the Supreme Lord and His devotees will undoubtedly attain Him. The words sarvarambha means abandonment of all endeavors unrelated to the Supreme Lord Krishna. Being impassive does not mean being unconcerned or uncommitted it means being only dedicated to the essential principles of bhakti or exclusive loving devotion to the Supreme Lord Krishna.
The word prakasa means illumination, lucidity, the brightness of disposition and are the effects of sattva guna or the mode of goodness. The word pravritti means enthusiastic effort or the disposition to endeavour actively and are the effects of raja guna the mode of passion. The word moha means delusion, bewilderment or having a distorted perception. All things external to the atma or immortal soul are of two categories. One is what causes attraction and the second is what causes aversion. The fundamental symptom of discerning who is beyond the three gunas or modes of material nature is that such a being neither desire to accept anything nor does such a one desire to reject anything. Whatever the Supreme Lord Krishna designates to come, such a one remains equipoise in all situations. Such a one is udasinavat or unconcerned with external circumstances because of being enraptured within by atma tattva or realisation of the immortal soul. Therefore one is naturally indifferent to anything external. One who is never agitated by attraction and aversion which arise from the three gunas and who lucid and tranquil reflects within that it is natural for the impulses of the three gunas to occasionally parade themselves in ones consciousness, is never deluded by them into being impelled to act as the qualities might provoke one to respond. The word sama means equanimity or keeping oneself equipoise in both joy and distress. The word svasthah means solidly situated, established firmly within on the immortal atma, filled with raptureand bliss by its communion. Such a one is never even distracted by external things let alone influenced by them. Even when exposed to great events of joy or catastrophic events of grief such a one is undisturbes and does not succumb to delusion or illlusion. To such a one a clod of earth or , a precious jewel or a nugget of gold all are looked upon alike as merely modifications of prakriti. So there is nothing in material existence which such a one has any special attraction or aversion towards. The word means dhirah means sober and denotes the wisdom of one who is knowledgeable of the distinction between prakriti or the material substratum pervading physical existence and the eternal atma or immortal soul. Hence such a one remains equaniminous in both praise and censure. It is the deisre for praise and adulation that shows the consequence of egotism which abides in the mind and is erroneously mistaken for the atma and deludes one into thinking that it is a great honor to be praised. Similarly aversion to being ridiculed and censured is also the consequence of same egotism which makes one think it is ignoble and shameful to receive such infamy. But both conceptions are the results of delusion and one who is established in atma tattva or realisation of the immortal soul is never implicated in illusion as such a being is unlimited in consciousness knowing that all material designations are all transcended by communion with the atma. In the same way that egotism is alienated from the atma what pertains to egotism such as honor and disgrace, friends and enemies, praise and censue does not affect the atma. One who is illuminated by atma tattva is unconcerned and indifferent to worldly matters. Similarly since such a one comprehends that all efforts of activity are the cause and perpetuation of physical embodiment such a one abandons all efforts not related to the atma. Such a person is known to be a conqueror of the theree gunas. Next the primary means to overcome them will be given.
The word prakasa means illumination, lucidity, the brightness of disposition and are the effects of sattva guna or the mode of goodness. The word pravritti means enthusiastic effort or the disposition to endeavour actively and are the effects of raja guna the mode of passion. The word moha means delusion, bewilderment or having a distorted perception. All things external to the atma or immortal soul are of two categories. One is what causes attraction and the second is what causes aversion. The fundamental symptom of discerning who is beyond the three gunas or modes of material nature is that such a being neither desire to accept anything nor does such a one desire to reject anything. Whatever the Supreme Lord Krishna designates to come, such a one remains equipoise in all situations. Such a one is udasinavat or unconcerned with external circumstances because of being enraptured within by atma tattva or realisation of the immortal soul. Therefore one is naturally indifferent to anything external. One who is never agitated by attraction and aversion which arise from the three gunas and who lucid and tranquil reflects within that it is natural for the impulses of the three gunas to occasionally parade themselves in ones consciousness, is never deluded by them into being impelled to act as the qualities might provoke one to respond. The word sama means equanimity or keeping oneself equipoise in both joy and distress. The word svasthah means solidly situated, established firmly within on the immortal atma, filled with raptureand bliss by its communion. Such a one is never even distracted by external things let alone influenced by them. Even when exposed to great events of joy or catastrophic events of grief such a one is undisturbes and does not succumb to delusion or illlusion. To such a one a clod of earth or , a precious jewel or a nugget of gold all are looked upon alike as merely modifications of prakriti. So there is nothing in material existence which such a one has any special attraction or aversion towards. The word means dhirah means sober and denotes the wisdom of one who is knowledgeable of the distinction between prakriti or the material substratum pervading physical existence and the eternal atma or immortal soul. Hence such a one remains equaniminous in both praise and censure. It is the deisre for praise and adulation that shows the consequence of egotism which abides in the mind and is erroneously mistaken for the atma and deludes one into thinking that it is a great honor to be praised. Similarly aversion to being ridiculed and censured is also the consequence of same egotism which makes one think it is ignoble and shameful to receive such infamy. But both conceptions are the results of delusion and one who is established in atma tattva or realisation of the immortal soul is never implicated in illusion as such a being is unlimited in consciousness knowing that all material designations are all transcended by communion with the atma. In the same way that egotism is alienated from the atma what pertains to egotism such as honor and disgrace, friends and enemies, praise and censue does not affect the atma. One who is illuminated by atma tattva is unconcerned and indifferent to worldly matters. Similarly since such a one comprehends that all efforts of activity are the cause and perpetuation of physical embodiment such a one abandons all efforts not related to the atma. Such a person is known to be a conqueror of the theree gunas. Next the primary means to overcome them will be given.
Samaduhkhasukhah swasthah samaloshtaashmakaanchanah; Tulyapriyaapriyo dheeras tulyanindaatma samstutih.
sama—alike; duḥkha—distress; sukhaḥ—happiness; sva-sthaḥ—established in the self; sama—equally; loṣhṭa—a clod; aśhma—stone; kāñchanaḥ—gold; tulya—of equal value; priya—pleasant; apriyaḥ—unpleasant; dhīraḥ—steady; tulya—the same; nindā—blame; ātma-sanstutiḥ—praise; māna—honor; apamānayoḥ—dishonor; tulyaḥ—equal; tulyaḥ—equal; mitra—friend; ari—foe; pakṣhayoḥ—to the parties; sarva—all; ārambha—enterprises; parityāgī—renouncer; guṇa-atītaḥ—risen above the three modes of material nature; saḥ—they; uchyate—are said to have