मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।14.25।।
।।14.25।। जो मान और अपमान में सम है शत्रु और मित्र के पक्ष में भी सम है? ऐसा सर्वारम्भ परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा जाता है।।
।।14.25।। पूर्वोक्त श्लोकों में चित्रित किये गये त्रिगुणातीत पुरुष के सामान्य चित्र को यहाँ और अधिक स्पष्ट किया गया है? जिससे हम उसका समीप से सूक्ष्म अवलोकन कर सकें।मान और अपमान में सम रहना ज्ञानी पुरुष का लक्षण है। अपने दिव्य स्वरूप में दृढ़ निष्ठा प्राप्त किया हुआ पुरुष जीवन से भयभीत नहीं होता? क्योंकि जगत् की ओर देखने का उसका दृष्टिकोण अज्ञानियों से सर्वथा भिन्न होता है। जीवन का अहंकार केन्द्रित मूल्यांकन हमें मान और अपमान को क्रमश उपादेय (स्वीकार्य) और हेय (त्याज्य) मानने को बाध्य करता है।लौकिक जीवन में भी हम देखते हैं कि देश के लिये प्राणोत्सर्ग करने वाले पुरुष ऐसी स्थिति की कामना करते हैं जिसे अन्य लोग अपमान जनक समझते हैं। परन्तु समाज के मान और अपमान की ओर ध्यान दिये बिना ऐसे लोग पूर्ण उत्साह के साथ अपनी पीढ़ी से प्रेम और उसकी सेवा करते हैं। आपेक्षिक सिद्धान्त की खोज के दिन आर्कमिडीज को विवस्त्र स्थिति में सड़क पर यूरेका? यूरेका चिल्लाते हुये दौड़ने में अपमान का अनुभव नहीं हुआ? परन्तु किसी और दिन यह बात नहीं होती मान और अपमान बुद्धि के निर्णय हैं? जो स्थानस्थान पर और समयसमय पर बदलते रहते हैं। जो पुरुष अहंकार के स्तर से ऊंचा उठ गया है? उसे दोनों ही समान हैं? कांटो के मुकुट का उतना ही स्वागत है? जितना गुलाब के फूलों के मुकुट काशत्रु और मित्र के पक्षों में सम जैसे हम अपने शरीर के किसी अंग को शत्रु और किसी अंग को मित्र नहीं मानते? वैसे ही आत्मैकत्व ज्ञान प्राप्त पुरुष भी किसी से मित्रता या शत्रुता नहीं रखता। तथापि अन्य लोग उससे अवश्य ही मित्र या शत्रु भाव रख सकते हैं? किन्तु वह दोनों के प्रति समान भाव से रहता है। आत्मानुभव की दृष्टि से ज्ञानी पुरुष जानता है वे सब मैं ही हूँ।सर्वारम्भ परित्यागी आरंभ का अर्थ है कर्म। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि त्रिगुणातीत पुरुष क्रियाशून्य हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि उसे अपने कर्मों में न कर्तृत्व का अभिमान होता है और न स्वार्थ का। आरम्भ शब्द में वे सब कर्म समाविष्ट हैं? जो अनेक वस्तुओं के अर्जन और संग्रह करने तथा उनपर अपना स्वामित्य स्थापित करने के लिये अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। अज्ञानी जीव के लिये ये कर्म स्वाभाविर्क हैं। अहंकार रहित आत्मज्ञानी पुरुष ईश्वर से अनुप्राणित होकर ईश्वरीय पुरुष के रूप में इस जगत् में कल्याणार्थ कार्य करता है।उपर्युक्त लक्षणों से पुरुष गुणातीत कहा जाता है। इन श्लोकों में अर्जुन के द्वितीय प्रश्न का उत्तर दिया गया है।श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में लिखते हैं कि मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक साधक को इन गुणों को साधन के रूप में अपनाना चाहिये। एक बार ज्ञान में निष्ठा प्राप्त कर लेने पर ये गुण उसके स्वाभाविक लक्षण बन जायेंगे? जो स्वसंवेद्य होते हैं। गुणातीत पुरुष के ये मुख्य लक्षण हैं।अर्जुन का तीसरा प्रश्न यह था? किस प्रकार वह तीनों गुणों से अतीत होता है इसका उत्तर देते हुये भगवान् कहते हैं