मां च योऽव्यभिचारेण भक्ितयोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।।14.26।।
।।14.26।।जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मेरा सेवन करता है? वह इन गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।
।।14.26।। व्याख्या -- [यद्यपि भगवान्ने इसी अध्यायके उन्नीसवेंबीसवें श्लोकोंमें गुणोंका अतिक्रमण करनेका उपाय बता दिया था? तथापि अर्जुनने इक्कीसवें श्लोकमें गुणातीत होनेका उपाय पूछ लिया। इससे यह मालूम होता है कि अर्जुन उस उपायके सिवाय गुणातीत होनेके लिये दूसरा कोई उपाय जानना चाहते हैं। अतः अर्जुनको भक्तिका अधिकारी समझकर भगवान् उनको गुणातीत होनेका उपाय भक्ति बताते हैं।]मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते -- इन पदोंमें उपासक? उपास्य और उपासना -- ये तीनों आ गये हैं अर्थात् यः पदसे उपासक? माम् पदसे उपास्य और अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते पदोंसे उपासना आ गयी है।अव्यभिचारेण पदका तात्पर्य है कि दूसरे किसीका भी सहारा न हो। सांसारिक सहारा तो दूर रहा? ज्ञानयोग? कर्मयोग आदि योगों(साधनों) का भी सहारा न हो और भक्तियोगेन पदका तात्पर्य है कि केवल भगवान्का ही सहारा हो? आश्रय हो? आशा हो? बल हो? विश्वास हो। इस तरह अव्यभिचारेण पदसे दूसरोंका आश्रय लेनेका निषेध करके भक्तियोगेन पदसे केवल भगवान्का ही आश्रय लेनेकी बात कही गयी है।सेवते पदका तात्पर्य है कि अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा भगवान्का भजन करे? उनकी उपासना करे? उनके शरण हो जाय? उनके अनुकूल चले।स गुणान्समतीत्यैतान् -- जो अनन्यभावसे केवल भगवान्के ही शरण हो जाता है? उसको गुणोंका अतिक्रमण करना नहीं पड़ता? प्रत्युत भगवान्की कृपासे उसके द्वारा स्वतः गुणोंका अतिक्रमण हो जाता है (गीता 12। 67)।ब्रह्मभूयाय कल्पते -- वह गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र (अधिकारी) हो जाता है। भगवान्ने जब यहाँ भक्तिकी बात बतायी है? तो फिर भगवान्को यहाँ ब्रह्मप्राप्तिकी बात न कहकर अपनी प्राप्तिकी बात बतानी चाहिये थी। परन्तु यहाँ ब्रह्मप्राप्तिकी बात बतानेका तात्पर्य यह है कि अर्जुनने गुणातीत होने(निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्ति) का उपाय पूछा था। इसलिये भगवान्ने अपनी भक्तिको? ब्रह्मप्राप्तिका उपाय बताया।दूसरी बात? शास्त्रोंमें कहा गया है कि भगवान्की उपासना करनेवालेको ज्ञानकी भूमिकाओंकी सिद्धिके लिये दूसरा कोई साधन? प्रयत्न नहीं करना पड़ता? प्रत्युत उसके लिये ज्ञानकी भूमिकाएँ अपनेआप सिद्ध हो जाती हैं। उसी बातको लक्ष्य करके भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि अव्यभिचारी भक्तियोगसे मेरा सेवन करनेवालेको ब्रह्मप्राप्तिका पात्र बननेके लिये दूसरा कोई साधन नहीं करना पड़ता? प्रत्युत वह अपनेआप ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है। परन्तु वह भक्त ब्रह्मप्राप्तिमें सन्तोष नहीं करता। उसका तो यही भाव रहता है कि भगवान् कैसे प्रसन्न हों भगवान्की प्रसन्नतामें ही उसकी प्रसन्नता होती है। तात्पर्य यह निकला कि जो केवल भगवान्के ही परायण है? भगवान्में ही आकृष्ट है? उसके लिये ब्रह्मप्राप्ति स्वतःसिद्ध है। हाँ? वह ब्रह्मप्राप्तिको महत्त्व दे अथवा न दे -- यह बात दूसरी है? पर वह ब्रह्मप्राप्तिका अधिकारी स्वतः हो जाता है।तीसरी बात? जिस तत्त्वकी प्राप्ति ज्ञानयोग? कर्मयोग आदि साधनोंसे होती है? उसी तत्त्वकी प्राप्ति भक्तिसे भी होती है। साधनोंमें भेद होनेपर भी उस तत्त्वकी प्राप्तिमें कोई भेद नहीं होता। सम्बन्ध -- उपासना तो करे भगवान्की और पात्र बन जाय ब्रह्मप्राप्तिका -- यह कैसे इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।