ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।14.27।।
।।14.27।। क्योंकि मैं अमृत? अव्यय? ब्रह्म? शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ।।
।।14.27।। भक्तियोग तथा उसके परम लक्ष्य का वर्णन करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था? तत्पश्चात्? तुम मुझमें ही निवास करोगे। ईश्वर के प्रति अपने प्रेम से प्रेरणा पाकर भक्त अपने भिन्न व्यक्तित्व को विस्मृत करके अपने ध्येय परमात्मा के साथ लीन हो जाता है। पूर्व के श्लोक में भगवान् ने कहा था कि अव्यभिचारी भक्तियोग से उनकी सेवा करने वाला साधक अनात्म उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य से शनै शनै मुक्त हो जाता है। जिस मात्रा में अहंकार समाप्त होता है? उसी मात्रा में आत्मा की दिव्यता की अभिव्यक्ति होती है। जैसेजैसे निद्रा का आवेश बढ़ता जाता है वैसेवैसे मनुष्य जाग्रत अवस्था से दूर होता हुआ निद्रा की शान्त स्थिति में लीन हाेता जाता है। अनुभव के एक स्तर को त्यागने का अर्थ ही दूसरे अनुभव में प्रवेश करना है।मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ जो चैतन्य साधक के हृदय में आत्माभाव से स्थित है? वही सर्वत्र समान रूप से व्याप्त अमृत? अव्यय? नित्य? आनन्दस्वरूप तत्त्व ब्रह्म है। आत्मा की पहिचान ही विश्वाधिष्ठान अनन्त ब्रह्म की अनुभूति है। घट उपाधि की दृष्टि से उससे अवच्छिन्न आकाश (घटाकाश) बाह्य सर्वव्यापी आकाश से भिन्न प्रतीत होता है? परन्तु उपाधि के अभाव में वह घटाकाश ही महाकाश बन जाता है। इसी प्रकार एक देह की उपाधि से चैतन्य तत्त्व को आत्मा कहते हैं? किन्तु वस्तुत वही अनन्त ब्रह्म है। यह ब्रह्म अमृत और अव्यय? नित्य और आनन्दस्वरूप है।श्री शंकाराचार्य अपने अत्यन्त युक्तियुक्त एवं विश्लेषणात्मक भाष्य में इस श्लोक की व्याख्या में चार पर्यायों की ओर संकेत करते हैं। ये अर्थ परस्पर भिन्न नहीं? वरन् प्रत्येक अर्थ इस श्लोक के दार्शनिक पक्ष को अधिकाधिक उजागर करता है। वे कहते हैं प्रतिष्ठा का अर्थ है जिसमें वस्तु की स्थिति होती है? क्योंकि अमृत और अव्यय ब्रह्म की प्रतिष्ठा मैं हूँ? अत मैं प्रत्यगात्मा हूँ। यह प्रत्यागात्मा ही परमात्मा अर्थात् भूत मात्र की आत्मा है? ऐसा सम्यक् ज्ञान से निश्चित किया गया है।जिस शक्ति से ब्रह्म अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये प्रवृत्त होता है? वह शक्ति ब्रह्म ही है? जो मैं हूँ। यहाँ शक्ति शब्द से शक्तिमान ईश्वर लक्षित है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्गुण ब्रह्म ही माया शक्ति के द्वारा ईश्वर के रूप में भक्तों पर अनुग्रह करता है।अथवा? ब्रह्म शब्द से सगुण? सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है? जिसकी प्रतिष्ठा निरुपाधिक ब्रह्म मैं ही हूँ। जैसा कि पहले कहा गया है? इन अर्थों में परस्पर भेद नहीं है। हमारी बुद्धि की सीमित क्षमता के द्वारा सोपाधिक ब्रह्म को ही समझा जा सकता है तथा वाणी के द्वारा प्रकृति से भिन्न रूप में उसका वर्णन किया जा सकता है।प्रकृति और सोपाधिक ब्रह्म की प्रतिष्ठा निरुपाधिक चैतन्य ब्रह्म है? जो इन दोनों को ही प्रकाशित करता है। अत वस्तुत निर्विकल्प? अमृत? अव्यय? अनिर्वचनीय आनन्दस्वरूप ब्रह्म मैं हूँ। अब यह स्पष्ट हो जाता है कि साधन सपन्न उत्तम अधिकारी भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है? और मैं ब्रह्म हूँ? इसलिये वह साधक ब्रह्म ही बन जाता है।अगले अध्याय में ब्रह्म के विषय में और अधिक विस्तृत निरूपण किया गया है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे।श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय।।