तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।14.6।।
।।14.6।।हे पापरहित अर्जुन उन गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होनेके कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे (देहीको) बाँधता है।
।।14.6।। व्याख्या -- तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् -- पूर्वश्लोकमें सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंकी बात कही। इन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल (मलरहित) है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुणकी तरह सत्त्वगुणमें मलिनता नहीं है? प्रत्युत यह रजोगुण और तमोगुणकी अपेक्षा निर्मल? स्वच्छ है। निर्मल होनेके कारण यह परमात्मतत्त्वका ज्ञान करानेमें सहायक है।प्रकाशकम् -- सत्त्वगुण? निर्मल? स्वच्छ होनेके कारण प्रकाश करनेवाला है। जैसे प्रकाशके अन्तर्गत वस्तुएँ साफसाफ दीखती हैं? ऐसे ही सत्त्वगुणकी अधिकता होनेसे रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ साफसाफ दीखती हैं। रजोगुण और तमोगुणसे उत्पन्न होनेवाले काम? क्रोध? लोभ? मद? मात्सर्य आदि दोष भी साफसाफ दीखते हैं अर्थात् इन सब विकारोंका साफसाफ ज्ञान होता है।सत्त्वगुणकी वृद्धि होनेपर इन्द्रियोंमें प्रकाश? चेतना और हलकापन विशेषतासे प्रतीत होता है? जिससे प्रत्येक पारमार्थिक अथवा लौकिक विषयको अच्छी तरह समझनेमें बुद्धि पूरी तरह कार्य करती है और कार्य करनेमें बड़ा उत्साह रहता है।सत्त्वगुणके दो रूप हैं -- (1) शुद्ध सत्त्व? जिसमें उद्देश्य परमात्माका होता है? और (2) मलिन सत्त्व? जिसमें उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रहका होता है (टिप्पणी प0 716)। शुद्ध सत्त्वगुणमें परमात्माका उद्देश्य होनेसे परमात्माकी तरफ चलनेमें स्वाभाविक रुचि होती है। मलिन सत्त्वगुणमें पदार्थोंके संग्रह और सुखभोगका उद्देश्य होनेसे सांसारिक प्रवृत्तियोंमें रुचि होती है? जिससे मनुष्य बँध जाता है।मलिन सत्त्वगुणमें भी बुद्धि सांसारिक विषयको अच्छी तरह समझनेमें समर्थ होती है। जैसे? सत्त्वगुणकी वृद्धिमें ही वैज्ञानिक नयेनये आविष्कार करता है किन्तु उसका उद्देश्य परमात्माकी प्राप्ति न होनेसे वह अंहकार? मानबड़ाई? धन आदिसे संसारमें बँधा रहता है।अनामयम् -- सत्त्वगुण रज और तमकी अपेक्षा विकाररहित है। वास्तवमें प्रकृतिका कार्य होनेसे यह सर्वथा निर्विकार नहीं है। सर्वथा निर्विकार तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है? जो कि गुणातीत है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सहायक होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी विकाररहित कह दिया है।सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ -- जब अन्तःकरणमें सात्त्विक वृत्ति होती है? कोई विकार नहीं होता है? तब एक सुख मिलता है? शान्ति मिलती है। उस समय साधकके मनमें यह विचार आता है कि ऐसा सुख हरदम बना रहे? ऐसी शान्ति हरदम बनी रहे? ऐसी निर्विकारता हरदम बनी रहे। परन्तु जब ऐसा सुख? शान्ति? निर्विकारता नहीं रहती? तब साधकको अच्छा नहीं लगता। यह अच्छा लगना और अच्छा न लगना ही सत्त्वगुणके सुखमें आसक्ति है? जो बाँधनेवाली है।जब सत्त्व? रज और तम -- इन तीनों गुणोंका? इनकी वृत्तियोंका? विकारोंका साफसाफ ज्ञान होता है और साधकको ऐसी बहुतसी आश्चर्यजनक बातोंकी जानकारी होती है? जो पहले कभी जानी हुई नहीं होती? तब साधकके मनमें आता है कि यह ज्ञान हरदम बना रहे। यह ज्ञानमें आसक्ति है? जो बाँधनेवाली है। मैं दूसरोंकी अपेक्षा अधिक (विशेष) जानता हूँ -- यह अभिमान भी बाँधनेवाला होता है।इस तरह सत्त्वगुण सुख और ज्ञानके सङ्ग(आसक्ति) से साधकको बाँध देता है अर्थात् उसको गुणातीत नहीं होने देता। यह सङ्ग ही रजोगुण है जो बाँधनेवाला है (गीता 13। 21)। यदि साधक सुख और ज्ञानका सङ्ग न करे तो सत्त्वगुण उसको बाँधता नहीं? प्रत्युत उसको गुणातीत कर देता है। तात्पर्य है कि यदि सङ्ग न हो तो साधक सत्त्वगुणसे भी ऊँचा उठ जाता है और अपने गुणातीत स्वरूपका अनुभव कर लेता है।सत्त्वगुणसे सुख और ज्ञान होनेपर साधकको यह सावधानी रखनी चाहिये कि यह सुख और ज्ञान मेरा लक्ष्य नहीं है। ये मेरे भाग्य नहीं हैं। ये तो लक्ष्यकी प्राप्तिमें कारण हैं। मेरेको तो उस लक्ष्यको प्राप्त करना है? जो,इस सुख और ज्ञानको भी प्रकाशित करनेवाला है।सुख? ज्ञान आदि सभी सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं। ये कभी घटती हैं? कभी बढ़ती हैं कभी आती हैं? कभी जाती हैं। परन्तु अपना स्वरूप निरन्तर एकरस रहता है। उसमें कभी घटबढ़ नहीं होती। अतः साधकको सत्त्वगुणकी वृत्तियोंसे सदा तटस्थ? उदासीन रहना चाहिये। उनका उपभोग नहीं करना चाहिये। इससे वह सुख और ज्ञानकी आसक्तिमें फँसेगा नहीं।अगर साधक सत्त्वगुणसे होनेवाले सुख और ज्ञानका सङ्ग न करे? तो उसको शीघ्र ही परमात्मप्राप्ति हो जाती है। परन्तु अगर वह इनके सङ्गका त्याग न करे तो (परमात्मप्राप्तिका लक्ष्य होनेसे) समय पाकर उसकी इस सुख और ज्ञानसे स्वतः अरुचि हो जाती है और वह परमात्मप्राप्ति कर लेता है। सम्बन्ध -- रजोगुणका स्वरूप और उसके बाँधनेका प्रकार क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।