उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।15.10।।
।।15.10।।शरीरको छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीरमें स्थित हुए अथवा विषयोंको भोगते हुए भी गुणोंसे युक्त जीवात्माके स्वरूपको मूढ़ मनुष्य नहीं जानते? ज्ञानरूपी नेत्रोंवाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं।
।।15.10।। शरीर को त्यागते हुये? उसमें स्थित हुये अथवा (विषयों को) भोगते हुये? गुणों से समन्वित आत्मा को विमूढ़ लोग नहीं देखते हैं (परन्तु) ज्ञानचक्षु वाले पुरुष उसे देखते हैं।।
।।15.10।। व्याख्या -- उत्क्रामन्तम् -- स्थूलशरीरको छोड़ते समय जीव सूक्ष्म और कारणशरीरको साथ लेकर प्रस्थान करता है। इसी क्रियाको यहाँ उत्क्रामन्तम् पदसे कहा है। जबतक हृदयमें धड़कन रहती है? तबतक जीवका प्रस्थान नहीं माना जाता। हृदयकी धड़कन बंद हो जानेके बाद भी जीव कुछ समयतक रह सकता है। वास्तवमें अचल होनेसे शुद्ध चेतनतत्त्वका आवागमन नहीं होता। प्राणोंका ही आवागमन होता है। परन्तु सूक्ष्म और कारणशरीरसे सम्बन्ध रहनेके कारण जीवका आवागमन कहा जाता है।आठवें श्लोकमें ईश्वर बने जीवात्माके विषयमें आये उत्क्रामति पदको यहाँ उत्क्रामन्तम् पदसे कहा गया है।स्थितं वा -- जिस प्रकार कैमरेपर वस्तुका जैसा प्रतिबिम्ब पड़ता है? उसका वैसा ही चित्र अङ्कित हो जाता है। इसी प्रकार मृत्युके समय अन्तःकरणमें जिस भावका चिन्तन होता है? उसी आकारका सूक्ष्मशरीर बन जाता है। जैसे कैमरेपर पड़े प्रतिबिम्बके अनुसार चित्रके तैयार होनेमें समय लगता है? ऐसे ही अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार भावी स्थूलशरीरके बननेमें (शरीरके अनुसार कम या अधिक) समय लगता है।आठवें श्लोकमें जिसका यदवाप्नोति पदसे वर्णन हुआ है? उसीको यहाँ स्थितम् पदसे कहा गया है।अपि भुञ्जानं वा -- मनुष्य जब विषयोंको भोगता है? तब अपनेको बड़ा सावधान मानता है और विषयसेवनमें सावधान रहता भी है। विषयी मनुष्य शब्द? स्पर्श? रूप? रस? और गन्ध -- इनमेंसे एकएक विषयको अच्छी तरह जानता है। अपनी जानकारीसे एकएक विषयको भी बड़ी स्पष्टतासे वर्णन करता है। इतनी सावधानी रखनेपर भी वह मूढ़ (अज्ञानी) ही है क्योंकि विषयोंके प्रति यह सावधानी किसी कामकी नहीं है? प्रत्युत मरनेपर नरकों और नीच योनियोमें ले जानेवाली है।परमात्मा? जीवात्मा और संसार -- इन तीनोंके विषयमें शास्त्रों और दार्शनिकोंके अनेक मतभेद हैं परन्तु जीवात्मा संसारके सम्बन्धसे महान् दुःख पाता है और परमात्माके सम्बन्धसे महान् सुख पाता है -- इसमें सभी शास्त्र और दार्शनिक एकमत हैं।संसार एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता -- यह अकाट्य नियम है। संसार क्षणभङ्गुर है -- यह बात कहते? सुनते और पढ़ते हुए भी मूढ़ मनुष्य संसारको स्थिर मानते हैं। भोगसामग्री? भोक्ता और भोगरूप क्रिया -- इन सबको स्थायी माने बिना भोग हो ही नहीं सकता। भोगी मनुष्यकी बुद्धि इतनी मूढ़ हो जाती है कि वह इन भोगोंसे बढ़कर कुछ है ही नहीं -- ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेता है (गीता 16। 11)। इसलिये ऐसे मनुष्योंके ज्ञाननेत्र बंद ही रहते हैं। वे मौतको निश्चित जानते हुए भी भोग भोगनेके लिये (मरनेवालोंके लोकमें रहते हुए भी) सदा जीते रहनेकी इच्छा रखते हैं।अपि पदका भाव है कि जीवात्मा जिस समय स्थूलशरीरसे निकलकर (सूक्ष्म और कारणशरीरसहित) जाता है? दूसरे शरीरको प्राप्त होता है तथा विषयोंका उपभोग करता है -- इन तीनों ही अवस्थाओंमें गुणोंमेंसे लिप्त दीखनेपर भी वास्तवमें वह स्वयं निर्लिप्त ही रहता है। वास्तविक स्वरूपमें न उत्क्रमण है? न, स्थिति है और न भोक्तापन ही है।पिछले श्लोकके विषयानुपसेवते पदको ही यहाँ भुञ्जानम् पदसे कहा गया है।गुणान्वितम् -- यहाँ गुणान्वितम् पदका तात्पर्य यह है कि गुणोंसे सम्बन्ध मानते रहनेके कारण ही जीवात्मामें उत्क्रमण? स्थिति और भोग -- ये तीनों क्रियाएँ प्रतीत होती हैं।वास्तवमें आत्माका गुणोंसे सम्बन्ध है ही नहीं। भूलसे ही इसने अपना सम्बन्ध गुणोंसे मान रखा है? जिसके कारण इसे बारम्बार ऊँचनीच योनियोंमें जाना पड़ता है। गुणोंसे सम्बन्ध जोड़कर जीवात्मा संसारसे सुख चाहता है -- यह उसकी भूल है। सुख लेनेके लिये शरीर भी अपना नहीं है? फिर अन्यकी तो बात ही क्या हैमनुष्य मानो किसीनकिसी प्रकारसे संसारमें ही फँसना चाहता है व्याख्यान देनेवाला व्यक्ति श्रोताओंको अपना मानने लग जाता है। किसीका भाईबहन न हो? तो वह धर्मका भाईबहन बना लेता है। किसीका पुत्र न हो? तो वह दूसरेका बालक गोद ले लेता है। इस तरह नयेनये सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य चाहता तो सुख है? पर पाता दुःख ही है। इसी बातको भगवान् कह रहे हैं कि जीव स्वरूपसे गुणातीत होते हुए भी गुणों(देश? काल? व्यक्ति? वस्तु) से सम्बन्ध जोड़कर उनसे बँध जाता है।इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें आये प्रकृतिस्थानि पदको ही यहाँ गुणान्वितम् पदसे कहा गया है।मार्मिक बातजबतक मनुष्यका प्रकृति अथवा उसके कार्य -- गुणोंसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है? तबतक गुणोंके अधीन होकर उसे कर्म करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है (गीता 3। 5)। चेतन होकर गुणोंके अधीन रहना अर्थात् जडकी परतन्त्रता स्वीकार करना व्यभिचारदोष है। प्रकृति अथवा गुणोंसे सर्वथ मुक्त होनेपर जो स्वाधीनताका अनुभव होता है? उसमें भी साधक जबतक (अहम्की गन्ध रहनेके कारण) रस लेता है? तबतक व्यभिचारदोष रहता ही है। रस न लेनेसे जब वह व्यभिचारदोष मिट जाता है? तब अपने प्रेमास्पद भगवान्के प्रति स्वतः प्रियता जाग्रत् होती है। फिर प्रेमहीप्रेम रह जाता है? जो उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता रहता है। इस प्रेमको प्राप्त करना ही जीवका अन्तिम लक्ष्य है। इस प्रेमकी प्राप्तिमें ही पूर्णता है। भगवान् भी भक्तको अपना अलौकिक प्रेम देकर ही राजी होते हैं और ऐसे प्रेमी भक्तको योगियोंमें सर्वश्रेष्ठ योगी मानते हैं (गीता 6। 47)।गुणातीत होनेमें तो (स्वयंका विवेक सहायक होनेके कारण) अपने साधनका सम्बन्ध रहता है? पर गुणातीत होनेके बाद प्रेमकी प्राप्ति होनेमें भगवान्की कृपाका ही सम्बन्ध रहता है।विमूढा नानुपश्यन्ति -- जैसे भिन्नभिन्न प्रकारके कार्य करनेपर भी हम वही रहते हैं? ऐसे ही गुणोंसे युक्त होकर शरीरको छोड़ते? अन्य शरीरको प्राप्त होते तथा भोग भोगते समय भी स्वयं (आत्मा) वही रहता है। तात्पर्य यह है कि परिवर्तन क्रियाओंमें होता है? स्वयं में नहीं। परन्तु जो भिन्नभिन्न क्रियाओंके साथ मिलकर स्वयं को भी भिन्नभिन्न देखने लगता है (3। 27)? ऐसे अज्ञानी (तत्त्वको न जाननेवाले) मनुष्यके लिये यहाँ विमूढा नानुपश्यन्ति पद दिये गये हैं।मूढ़लोग भोग और संग्रहमें इतने आसक्त रहते हैं कि शरीरादि पदार्थ नित्य रहनेवाले नहीं हैं -- यह बात सोचते ही नहीं। भोग भोगनेका क्या परिणाम होगा उस ओर वे देखते ही नहीं। भगवान्ने गीताके सत्रहवें अध्यायमें जहाँ सात्त्विक? राजस और तामस पुरुषोंको प्रिय लगनेवाले आहारोंका वर्णन किया है? वहाँ सात्त्विक आहारके परिणामका वर्णन पहले किया गया है राजस आहारके परिणामका वर्णन अन्तमें किया गया है और तामस आहारके परिणामका वर्णन ही नहीं किया गया है (गीता 17। 8 -- 10)। इसका कारण यह है कि सात्त्विक मनुष्य कर्म करनेसे पहले उसके परिणाम(फल) पर दृष्टि रखता है राजस मनुष्य पहले सहसा काम कर बैठता है? फिर परिणाम चाहे जैसा आये परन्तु तामस मनुष्य तो परिणामकी तरफ दृष्टि ही नहीं डालता। इसी प्रकार यहाँ भी विमूढा नानुपश्यन्ति पद देकर भगवान् मानो यह कहते हैं कि मोहग्रस्त मनुष्य तामस ही हैं क्योंकि मोह तमोगुणका कार्य है। वे विषयोंका सेवन करते समय परिणामपर विचार ही नहीं करते। केवल भोग भोगने और संग्रह करनेमें ही लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्योंका ज्ञान तमोगुणसे ढका रहता है। इस कारण वे शरीर और आत्माके भेदको नहीं जान सकते।पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः -- प्राणी? पदार्थ? घटना? परिस्थिति -- कोई भी स्थिर नहीं है अर्थात् दृश्यमात्र निरन्तर अदर्शनमें जा रहा है -- ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव होना ही ज्ञानरूप चक्षुओंसे देखना है। परिवर्तनकी ओर दृष्टि होनेसे अपरिवर्तनशील तत्त्वमें स्थिति स्वतः होती है क्योंकि नित्य परिवर्तनशील पदार्थका अनुभव अपरिवर्तनशील तत्त्वको ही होता है।यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानी मनुष्यका भी स्थूलशऱीरसे निकलकर दूसरे शरीरको प्राप्त होना तथा भोग भोगना होता है। ज्ञानी मनुष्यका स्थूलशरीर तो छूटेगा ही? पर दूसरे शरीरको प्राप्त करना तथा रागबुद्धिसे विषयोंका सेवन करना उसके द्वारा नहीं होते। दूसरे अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन? जवानी और वृद्धावस्था होती है? ऐसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है? परन्तु उस विषयमें ज्ञानी मनुष्य मोहित अथवा विकारको प्राप्त नहीं होता। कारण यह है कि वह ज्ञानी मनुष्य ज्ञानरूप नेत्रोंके द्वारा यह देखता है कि जन्ममृत्यु आदि सब क्रियाएँ या विकार परिवर्तनशील शरीरमें ही हैं? अपरिवर्तनशील स्वरूपमें नहीं। स्वरूप इन विकारोंसे सब समय सर्वथा निर्लिप्त रहता है। शरीरको अपना मानने तथा उससे सुख लेनेकी आशा रखनेसे ही विमूढ़ मनुष्योंको तादात्म्यके कारण ये विकार स्वयंमें होते प्रतीत होते हैं। विमूढ़ मनुष्य आत्माको गुणोंसे युक्त देखते हैं और ज्ञाननेत्रोंवाले मनुष्य आत्माको गुणोंसे रहित -- वास्तविक रूपसे देखते हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें वर्णित तत्त्वको जो पुरुष यत्न करनेपर जानते हैं? उनमें क्या विशेषता है और जो यत्न करनेपर भी नहीं जानते? उनमें क्या कमी है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।15.10।। यह एक सर्वत्र अनुभव सत्य है कि सामान्य बुद्धि का पुरुष यद्यपि वस्तु को देखता है? तथापि उसे पूर्ण तथा यथार्थ रूप से समझ नहीं पाता है। वस्तु का वास्तविक ज्ञान केवल उस विषय के ज्ञानियों को ही उपलब्ध होता है।प्रत्येक व्यक्ति किसी साहित्यिक रचना को पढ़ सकता है? परन्तु एक भाषाविद् पुरुष ही उस रचनाकार की दृष्टि को यथार्थत समझकर उसका पूर्ण आनन्द अनुभव कर सकता है। एक जौहरी ही मणियों के गुणस्तर और वास्तविक मूल्य को आंक सकता है। अन्य लोग केवल देख ही सकते हैं। सभी लोग संगीत सुन सकते हैं? किन्तु एक कुशल संगीतज्ञ ही किसी सर्वोत्कृष्ट गायन की शास्त्रीय सूक्ष्मता एवं सुन्दरता का आनन्द उठा सकता है।इसी प्रकार? इसी चैतन्य आत्मा की उपस्थिति से ही हम विषय? भावनाओं और विचारों का अनुभव करते हैं? परन्तु केवल आत्मज्ञानी पुरुष ही इसे पहचानते हैं और स्वयं आत्मस्वरूप बनकर जीते हैं।आत्मा तो नित्य विद्यमान है। इसका अभाव कभी नहीं होता। देहत्याग के समय सूक्ष्म शरीर को चेतनता प्रदान करने वाला आत्मा ही होता है। एक देहविशेष के जीवन काल में आत्मा ही समस्त अनुभवों को प्रकाशित करता है। सुखदुखात्मक मानसिक अनुभवों तथा बुद्धि के निर्णयों का प्रकाशक भी आत्मा ही है। इसी प्रकार क्षणक्षण परिवर्तनशील हमारे मन के सात्त्विक (शांति)? राजसिक (विक्षेप) और तामसिक (मोहादि) भावों का ज्ञान भी चैतन्य के कारण ही संभव होता है फिर भी अविवेकी जन उसे पहचान नहीं पाते जिसकी उपस्थिति से ही कोई अनुभव संभव हो सकता है।सामान्य जन अपने अनुभवों तथा उनके विषयों के प्रति ही इतने अधिक आसक्त और व्यस्त हो जाते हैं कि उनका सम्पूर्ण ध्यान बाह्य विषयों और सुन्दर संरचनाओं की सुन्दरता में ही आकृष्ट रहता है। वे उस आत्मा की उपेक्षा करते हैं तथा उसे पहचान नहीं पाते? जिसकी उपस्थिति से ही कोई अनुभव संभव हो सकता है।इनके सर्वथा विपरीत वे ज्ञानीजन हैं? जो नाम और रूपों के विस्तार से विरक्त होकर इस विस्तार के सार तत्त्व उस ब्रह्म को देखते हैं? जो उनके हृदय में आत्मरूप से स्थित सभी को प्रकाशित करता है। इस आत्मतत्त्व का दर्शन वे ज्ञानचक्षु से करते हैं। ज्ञानचक्षु कोई अन्तरिन्द्रिय नहीं हैं। विवेक वैराग्य आदि गुणों से सम्पन्न साधक जब वेदान्त प्रमाण के द्वारा आत्मविचार करता है? तब उस विचार से प्राप्त आत्मबोध ही ज्ञानचक्षु है। श्री शंकराचार्य ने इस ज्ञानचक्षु का और कलात्मक वर्णन अपने आत्मबोध नामक ग्रन्थ में,किया है।आत्मदर्शन करने में अज्ञानी की विफलता और ज्ञानी की सफलता का कारण अगले श्लोक में वर्णन करते हैं