गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।15.13।।
।।15.13।।मैं ही पृथ्वीमें प्रविष्ट होकर अपनी शक्तिसे समस्त प्राणियोंको धारण करता हूँ और मैं ही रसमय चन्द्रमाके रूपमें समस्त ओषधियों(वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूँ।
।।15.13।। मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपने ओज से भूतमात्र को धारण करता हूँ और रसस्वरूप चन्द्रमा बनकर समस्त औषधियों का अर्थात् वनस्पतियों का पोषण करता हूँ।।
।।15.13।। व्याख्या -- गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा -- भगवान् ही पृथ्वीमें प्रवेश करके उसपर स्थित सम्पूर्ण स्थावरजङ्गम प्राणियोंको धारण करते हैं। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीमें जो धारणशक्ति देखनेमें आती है? वह पृथ्वीकी अपनी न होकर भगवान्की ही है (टिप्पणी प0 774.1)।वैज्ञानिक भी इस बातको स्वीकार करते हैं कि पृथ्वीकी अपेक्षा जलका स्तर ऊँचा है और पृथ्वीपर जलका भाग स्थलकी अपेक्षा बहुत अधिक है (टिप्पणी प0 774.2)। ऐसा होनेपर भी पृथ्वी जलमग्न नहीं होती -- यह भगवान्की धारणशक्तिका ही प्रभाव है।पृथ्वीके उपलक्षणसे यह समझना चाहिये कि पृथ्वीके सिवाय जहाँ भी धारणशक्ति देखनेमें आती है? वह सब भगवान्की ही है। पृथ्वीमें अन्नादि ओषधियोंको उत्पन्न करनेकी (उत्पादिका) शक्ति एवं गुरुत्वाकर्षणशक्ति भी भगवान्की ही समझनी चाहिये।पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः -- चन्द्रमामें दो शक्तियाँ हैं -- प्रकाशिकाशक्ति और पोषणशक्ति। प्रकाशिकाशक्तिमें अपने प्रभावका वर्णन पूर्वश्लोकमें करनेके बाद अब भगवान् इस श्लोकमें,चन्द्रमाकी पोषणशक्तिमें अपना प्रभाव बताते हैं कि चन्द्रमाके माध्यमसे सम्पूर्ण वनस्पतियोंको मैं ही पुष्ट करता हूँ।चन्द्रमा शुक्लपक्षमें पोषक और कृष्णपक्षमें शोषक होता है। शुक्लपक्षमें रसमय चन्द्रमाकी मधुर किरणोंसे अमृतवर्षा होनेके कारण ही लतावृक्षादि पुष्ट होते हैं और फलतेफूलते हैं। माताके उदरमें स्थित शिशु भी शुक्लपक्षमें वृद्धिको प्राप्त होता है।यहाँ सोमः पद चन्द्रलोकका वाचक है? चन्द्रमण्डलका नहीं। नेत्रोंसे हमें जो दीखता है? वह चन्द्रमण्डल है। चन्द्रमण्डलसे भी ऊपर (आँखोंसे न दीखनेवाला) चन्द्रलोक है। उपर्युक्त पदोंमें विशेषरूपसे सोमः पद देनेका अभिप्राय यह है कि चन्द्रमामें प्रकाशके साथसाथ अमृतवर्षाकी शक्ति भी है। वह अमृत पहले चन्द्रलोकसे चन्द्रमण्डलमें आता है और फिर चन्द्रमण्डलसे भूमण्डलपर आता है।यहाँ ओषधीः पदके अन्तर्गत गेहूँ? चना आदि सब प्रकारके अन्न समझने चाहिये। चन्द्रमाके द्वारा पुष्ट हुए अन्नका भोजन करनेसे ही मनुष्य? पशु? पक्षी आदि समस्त प्राणी पुष्टि प्राप्त करते हैं। ओषधियों? वनस्पतियोंमें शरीरको पुष्ट करनेकी जो शक्ति है? वह चन्द्रमासे आती है। चन्द्रमाकी वह पोषणशक्ति भी उसकी अपनी न होकर भगवान्की ही है। भगवान् ही चन्द्रमाको निमित्त बनाकर सबका पोषण करते हैं। सम्बन्ध -- समष्टिशक्तिमें अपना प्रभाव बतानेके बाद अब भगवान् जिस शक्तिसे व्यष्टिजगत्में क्रियाएँ हो रही हैं? उस व्यष्टिशक्तिमें अपना प्रभाव बताते हैं।
।।15.13।। निसन्देह कृत्रिम उर्वरकों के आविष्कार के बहुत पूर्व से पृथ्वी का दीर्घ इतिहास रहा है। संभवत अतीत के कुछ युगों में वर्तमान समय से भी अधिक जनसंख्या इस पृथ्वी रही होगी। इस पर भी पृथ्वी ने जीवन को धारण कर रखा है। इस लोक के प्राणियों के धारणपोषण करने की पृथ्वी की क्षमता? उष्णता? खनिज द्रव्य आदि सभी भगवान् के ओजस्वरूप हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो चैतन्य सूर्य की उपाधि में प्रकाश तथा उष्णता के रूप में व्यक्त होता है? वही चैतन्य पृथ्वी में उसकी उर्वरा शक्ति और जीवन को धारण करने वाली गुप्त पौष्टिकता के रूप में व्यक्त होता है।रसस्वरूप चन्द्रमा बनकर मैं औषधियों का पोषण करता हूँ वही एक चेतन तत्त्व चन्द्रमा के माध्यम से चन्द्रप्रकाश के रूप में व्यक्त होकर वनस्पतियों को पौष्टिक तत्त्वों से भर देता है। यदि इस कथन को पूर्व की पीढ़ी ने अस्वीकार किया होगा? तो आज की वैज्ञानिक शिक्षा पाये हुये विद्यार्थी गण इस कथन को चुनौती देने का साहस नहीं करेंगे। आधुनिक कृषि विज्ञान यह सिद्ध करता है कि ग्रहमण्डलों का? और विशेष रूप से चन्द्रमा का? कृषि की अनुमानित उपज से एक अटूट सम्बन्ध है आधुनिक प्रयोगों से प्राप्त विवरणानुसार जहाँ टमाटर के बीजों को पूर्णिमा के दिन बोया गया और पुन पूर्णिमा के दिन ही तोड़ा गया? तो वहाँ अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि टमाटर की उपज सामान्य की अपेक्षा अधिक हुई थी।यह एक सुविदित और सर्वत्र स्वीकृत तथ्य है कि बीजों के लिये सुरक्षित रखे गये धान को न केवल सूर्य के ताप में सुखाया जाता है? वरन् उसे चन्द्रमा के प्रकाश में भी रखा जाता है। प्राकृतिक तथा आयुर्वेदिक चिकित्सक भी कुछ औषधियों को किसी निश्चित अवधि तक चन्द्रमा के प्रकाश में रखते हैं? और उनका यह कथन है कि इससे उन औषधियों में रोगोपचार की क्षमता आ,जाती है।इस श्लोक में इन सभी तथ्यों को इंगित मात्र किया गया है? जिससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण का कथन अवैज्ञानिक नहीं है।भौतिक जगत् के सूर्य? चन्द्रमा और अग्नि ये ऊर्जा के स्रोत वस्तुत अनन्तस्वरूप परमात्मा ही हैं। सूर्य में यह प्रकाश है और चन्द्रमा में वह रसस्वरूप पोषक तत्त्व है। वही चैतन्य पृथ्वी में प्रवेश कर समस्त प्राणियों का धारणपोषण करने वाला बन जाता है।और
15.13 And entering the earth I sustain the beings through (My) power; and nourish all the plants by becoming Soma [According to S. and most other translators, Soma means the moon.-Tr.] which is of the nature of sap.
15.13 Permeating the earth I support all beings by (My) energy; and having become the watery moon I nourish all herbs.
15.13. And penetrating the earth I support [all] beings with [My] energy; being the sapful moon, I nourish all plants.
15.13 गाम the earth? आविश्य permeating? च and? भूतानि all beings? धारयामि support? अहम् I? ओजसा by (My) energy? पुष्णामि (I) nourish? च and? औषधीः the herbs? सर्वाः all? सोमः moon? भूत्वा having become रसात्मकः watery.Commentary The immanence of the Lord as the allsustaining life is described in this verse.Ojas The energy of the Lord (Isvara). The vast heaven and earth are firmly held by this energy. It permeates the earth to support the world. This energy is destitute of passion and attachment. As the vast earth is supported by the energy of the Lord? it does not fall? it is not broken down to pieces and it does not sink into the nether worlds.The Lord penetrates the earth and supports all movable and immovable objects by His energy.Rasatmakah somah The watery moon The moon is regarded as the repository of all savours or,fluids (Rasas). I? becoming the watery moon? nourish all herbs and plants such as rice? wheat? etc.? by infusing sap into them? and make them savoury. I feed the vegetable kingdom with My vital juice (Ojas) which pervades the soil and generates sweet juice or sap in herbs? plants and trees. The watery or savoury moon nourishes all herbs and plants by infusing sap or savours into them.Moreover --
15.13 Ca, and; avisya, entering; gam, the earth; aham, I; dharayami, sustain; bhutani, the beings, the world; ojasa, through (My) power, the power that belongs to God and is free from passing and attachment, (and) which has penetrated the earth to support it, and owing to which the heavy earth does not fall and does not crumble. There is a similar mantra: By which the heaven is made mighty, and the earth firm (Tai. Sam. 4.1.8.5), and also, He supported the earth (op.cit., 4.1.8.3), etc. Hence, it has rightly been said, Entering the earth I sustain the moving and non-moving beings. Moreover, pusnami, I nourish, I make healthy and full of the sweet flavour of juices; sarvah, all; osadhih, the plants-paddy, barley, etc.; bhutva, by becoming; somah, Soma; rasatmakah, which is of the nature of sap. Soma consists of all the juices; it is the source of all juices. Indeed, it nourishes all plants by infusing its own juice into everything. Besides,
15.13 See Comment under 15.14
15.13 Entering the earth I uphold all beings by My strength, namely, by My irresistible power, Likewise, becoming the Soma consisting of the juice of the nectar, I nourish all herbs.
Entering the earth (gam) by my own sakti (ojasa), and being situated there, I maintain the moving and non-moving entities (bhutani). Becoming the sweet-juiced moon, I cause plants such as rice to increase and grow.
Continuing Lord Krishna states that He enters into every particle of earth with His energy, prevading over all the Earth with His prowess and supports all moving and non-moving jivas or embodied beings. He, Himself is the luminousity of moonlight which nourishes all herbs and crops such as rice, fruits an grains.
The word gam stated by Lord Krishna means Earth and within the earth.
The word gam means earth and denotes the Earth. The word ojasa means indomitable potency. Lord Krishna enters into every atom of the Earth by this potency and supports all mobile and stationary jivas or embodied beings by this potency. He also manifests the energy of the moon whose nature is ambrosial and which nourishes all plants, vegetables, fruits and herbs, yielding crops such as rice and grains.
The word gam means earth and denotes the Earth. The word ojasa means indomitable potency. Lord Krishna enters into every atom of the Earth by this potency and supports all mobile and stationary jivas or embodied beings by this potency. He also manifests the energy of the moon whose nature is ambrosial and which nourishes all plants, vegetables, fruits and herbs, yielding crops such as rice and grains.
Gaam aavishya cha bhootaani dhaarayaamyaham ojasaa; Pushnaami chaushadheeh sarvaah somo bhootwaa rasaatmakah.
gām—earth; āviśhya—permeating; cha—and; bhūtāni—living beings; dhārayāmi—sustain; aham—I; ojasā—energy; puṣhṇāmi—nourish; cha—and; auṣhadhīḥ—plants; sarvāḥ—all; somaḥ—the moon; bhūtvā—becoming; rasa-ātmakaḥ—supplying the juice of life