सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15.15।।
।।15.15।।मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ। मेरेसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ। वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ।
।।15.15।। मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
।।15.15।। व्याख्या -- सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः (टिप्पणी प0 776) -- पीछेके श्लोकोंमें अपनी विभूतियोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि मैं स्वयं सब प्राणियोंके हृदयमें विद्यमान हूँ। यद्यपि शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि सभी स्थानोंमें भगवान् विद्यमान हैं? तथापि हृदयमें वे विशेषरूपसे विद्यमान हैं।हृदय शरीरका प्रधान अङ्ग है। सब प्रकारके भाव हृदयमें ही होते हैं। समस्त कर्मोंमें भाव ही प्रधान होता है। भावकी शुद्धिसे समस्त पदार्थ? क्रिया आदिकी शुद्धि हो जाती है। अतः महत्त्व भावका ही है? वस्तु? व्यक्ति? कर्म आदिका नहीं। वह भाव हृदयमें होनेसे हृदयकी बहुत महत्ता है। हृदय सत्त्वगुणका कार्य है? इसलिये भी भगवान् हृदयमें विशेषरूपसे रहते हैं।भगवान् कहते हैं कि मैं प्रत्येक मनुष्यके अत्यन्त नजदीक उसके हृदयमें रहता हूँ अतः किसी भी साधकको (मेरेसे दूरी अथवा वियोगका अनुभव करते हुए भी) मेरी प्राप्तिसे निराश नहीं होना चाहिये। इसलिये पापीपुण्यात्मा? मूर्खपण्डित? निर्धनधनवान्? रोगीनिरोगी आदि कोई भी स्त्रीपुरुष किसी भी जाति? वर्ण? सम्प्रदाय? आश्रम? देश? काल? परिस्थिति आदिमें क्यों न हो? भगवत्प्राप्तिका वह पूरा अधिकारी है। आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्तिकी ऐसी तीव्र अभिलाषा? लगन? व्याकुलताकी है? जिसमें भगवत्प्राप्तिके बिना रहा न जाय।परमात्मा सर्वव्यापी अर्थात् सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण होनेपर भी हृदयमें प्राप्त होते हैं। जैसे गायके सम्पूर्ण शरीरमें दूध व्याप्त होनेपर भी वह उसके स्तनोंसे ही प्राप्त होता है अथवा पृथ्वीमें सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही प्राप्त होता है? ऐसे ही सूर्य? चन्द्र? अग्नि? पृथ्वी? वैश्वानर आदि सबमें व्याप्त होनेपर भी परमात्मा हृदय में प्राप्त होते हैं। (गीता 13। 17 18। 61)।परमात्मप्राप्तिसम्बन्धी विशेष बात हृदयमें निरन्तर स्थित रहनेके कारण परमात्मा वास्तवमें मनुष्यमात्रको प्राप्त हैं परन्तु जडता(संसार) से माने हुए सम्बन्धके कारण जडताकी तरफ ही दृष्टि रहनेसे नित्यप्राप्त परमात्मा अप्राप्त प्रतीत हो रहे हैं अर्थात् उनकी प्राप्तिका अनुभव नहीं हो रहा है। जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होते ही सर्वत्र विद्यमान (नित्यप्राप्त) परमात्मतत्त्व स्वतः अनुभवमें आ जाता है।परमात्मप्राप्तिके लिये जो सत्कर्म? सत्चर्चा और सत्चिन्तन किया जाता है? उसमें जडता(असत्) का आश्रय रहता ही है। कारण है कि जडता(स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीर) का आश्रय लिये बिना इनका होना सम्भव ही नहीं है। वास्तवमें इनकी सार्थकता जडतासे सम्बन्धविच्छेद करानेमें ही है। जडतासे,सम्बन्धविच्छेद तभी होगा? जब ये (सत्कर्म? सत्चर्चा और सत्चिन्तन) केवल संसारके हितके लिये ही किये जायँ? अपने लिये नहीं।किसी विशेष साधन? गुण? योग्यता? लक्षण आदिके बदलमें परमात्मप्राप्ति होगी -- यह बिलकुल गलत धारणा है। किसी मूल्यके बदलेमें जो वस्तु प्राप्त होती है? वह उस मूल्यसे कम मूल्यकी ही होती है -- यह सिद्धान्त है। अतः यदि किसी विशेष साधन? योग्यता आदिके द्वारा ही परमात्मप्राप्तिका होना माना जाय? तो परमात्मा उस साधन? योग्यता आदिसे कम मूल्यके (कमजोर) ही सिद्ध होते हैं? जबकि परमात्मा किसीसे कम मूल्यके नहीं हैं (गीता 11। 43)। इसलिये वे किसी साधन आदिसे खरीदे नहीं जा सकते। इसके सिवाय अगर किसी मूल्य(साधन? योग्यता आदि) के बदलेमें परमात्माकी प्राप्ति मानी जाय? तो उनसे हमें लाभ भी क्या होगा क्योंकि उनसे अधिक मूल्यकी वस्तु (साधन आदि) तो हमारे पास पहलेसे है हीजैसे सांसारिक पदार्थ कर्मोंसे मिलते हैं? ऐसे परमात्माकी प्राप्ति कर्मोंसे नहीं होती क्योंकि परमात्मप्राप्ति किसी कर्मका फल नहीं है। प्रत्येक कर्मकी उत्पत्ति अहंभावसे होती है और परमात्मप्राप्ति अहंभावके मिटनेपर होती है। कारण कि अहंभाव कृति (कर्म) है और परमात्मा कृतिरहित हैं। कृतिरहित तत्त्वको किसी कृतिसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है -- नास्त्यकृतः कृतेन। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर आदि जडपदार्थोंके द्वारा नहीं? प्रत्युत जडताके त्यागसे होती है। जबतक मन? बुद्धि? इन्द्रियाँ? शरीर? देश? काल? वस्तु आदिका आश्रय है? तबतक एक परमात्माका आश्रय नहीं हो सकता। मन? बुद्धि आदिके आश्रयसे परमात्मप्राप्ति होगी -- यही साधककी मूल भूल है। अगर जडताका आश्रय और विश्वास छूट जाय तथा एकमात्र परमात्माका ही आश्रय और विश्वास हो जाय? तो परमात्मप्राप्तिमें देरी नहीं लग सकती।मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च -- किसी बातकी भूली हुई जानकारीका (किसी कारणसे) पुनः प्राप्त होना,स्मृति कहलाती है। स्मृति और चिन्तन -- दोनोंमें फरक है। नयी बातका चिन्तन और पुरानी बातकी स्मृति होती है। अतः चिन्तन संसारका और स्मृति परमात्माकी होती है क्योंकि संसार पहले नहीं था और परमात्मा पहले(अनादिकाल) से हैं। स्मृतिमें जो शक्ति है? वह चिन्तनमें नहीं है। स्मृतिमें कर्तापनका भाव कम रहता है? जबकि चिन्तनमें कर्तापनका भाव अधिक रहता है।एक स्मृति की जाती है और एक स्मृति होती है। जो स्मृति की जाती है? वह बुद्धिमें और जो होती है? वह स्वयंमें होती है। होनेवाली स्मृति जडतासे तत्काल सम्बन्धविच्छेद करा देती है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि यह (होनेवाली) स्मृति मेरेसे ही होती है।परमात्माका अंश होते हुए भी जीव भूलसे परमात्मासे विमुख हो जाता है और अपना सम्बन्ध संसारसे मानने लगता है। इस भूलका नाश होनेपर मैं भगवान्का ही हूँ? संसारका नहीं ऐसा साक्षात् अनुभव हो जाना ही स्मृति है (गीता 18। 73)। स्मृतिमें कोई नया ज्ञान या अनुभव नहीं होता? प्रत्युत केवल विस्मृति(मोह) का नाश होता है। भगवान्से हमारा वास्तविक सम्बन्ध है। इस वास्तविकताका प्रकट होना ही स्मृतिका प्राप्त होना है।जीवमें निष्कामभाव (कर्मयोग)? स्वरूपबोध (ज्ञानयोग) और भगवत्प्रेम (भक्तियोग) -- तीनों स्वतः विद्यमान हैं। जीवको (अनादिकालसे) इनकी विस्मृति हो गयी है। एक बार इनकी स्मृति हो जानेपर फिर विस्मृति नहीं होती। कारण कि यह स्मृति स्वयंमें जाग्रत् होती है। बुद्धिमें होनेवाली लौकिक स्मृति (बुद्धिके क्षीण होनेपर) नष्ट भी हो सकती है? पर स्वयं में होनेवाली स्मृति कभी नष्ट नहीं होती।किसी विषयकी जानकारीको ज्ञान कहते हैं। लौकिक और पारमार्थिक जितना भी ज्ञान है? वह सब,ज्ञानस्वरूप परमात्माका अभासमात्र है। अतः ज्ञानको भगवान् अपनेसे ही होनेवाला बताते हैं। वास्तवमें ज्ञान वही है? जो स्वयं से जाना जाय। अनन्त? पूर्ण और नित्य होनेके कारण इस ज्ञानमें कोई सन्देह या भ्रम नहीं होता। यद्यपि इन्द्रिय और बुद्धिजन्य ज्ञान भी ज्ञान कहलाता है? तथापि सीमित? अलग (अपूर्ण) तथा परिवर्तनशील होनेके कारण इस ज्ञानमें सन्देह या भ्रम रहता है जैसे -- नेत्रोंसे देखनेपर सूर्य अत्यन्त बड़ा होते हुए भी (आकाशमें) छोटासा दीखता है इत्यादि। बुद्धिसे जिस बातको पहले ठीक समझते थे? बुद्धिके विकसित अथवा शुद्ध होनेपर वही बात गलत दीखने लग जाती है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय और बुद्धिजन्य ज्ञान करणसापेक्ष और अल्प होता है। अल्प ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है। इसके विपरीत स्वयं का ज्ञान किसी करण(इन्द्रिय? बुद्धि आदि) की अपेक्षा नहीं रखता और वह सदा पूर्ण होता है। वास्तवमें इन्द्रिय और बुद्धिजन्य ज्ञान भी स्वयं के ज्ञानसे प्रकाशित होते हैं अर्थात् सत्ता पाते हैं।संशय? भ्रम? विपर्यय (विपरीत भाव)? तर्कवितर्क आदि दोषोंके दूर होनेका नाम अपोहन है। भगवान् कहते हैं कि ये (संशय आदि) दोष भी मेरी कृपासे ही दूर होते हैं।शास्त्रोंकी बातें सत्य हैं या असत्य भगवान्को किसने देखा है संसार ही सत्य है इत्यादि संशय और भ्रम भगवान्की कृपासे ही मिटते हैं। सांसारिक पदार्थोंमें अपना हित दीखना? उनकी प्राप्तिमें सुख दीखना? प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले संसारकी सत्ता दीखना आदि विपरीत भाव भी भगवान्की कृपासे ही दूर होते हैं। गीतोपदेशके अन्तमें अर्जुन भी भगवान्की कृपासे ही अपने मोहका नाश? स्मृतिकी प्राप्ति और संशयका नाश होना स्वीकार करते हैं (18। 73)।वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः -- यहाँ सर्वैः पद वेद एवं वेदानुकूल सम्पूर्ण शास्त्रोंका वाचक है। सम्पूर्ण शास्त्रोंका एकमात्र तात्पर्य परमात्माका वास्तविक ज्ञान कराने अथवा उनकी प्राप्ति करानेमें ही है।यहाँ भगवान् यह बात स्पष्ट करते हैं कि वेदोंका वास्तविक तात्पर्य मेरी प्राप्ति करानेमें ही है? सांसारिक भोगोंकी प्राप्ति करानेमें नहीं। श्रुतियोंमें सकामभावका विशेष वर्णन आनेका यह कारण भी है कि संसारमें सकाम मनुष्योंकी संख्या अधिक रहती है। इसलिये श्रुति (सबकी माता होनेसे) उनका भी पालन करती है।जाननेयोग्य एकमात्र परमात्मा ही हैं? जिनको जान लेनेपर फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। परमात्माको जाने बिना संसारको कितना ही क्यों न जान लें? जानकारी कभी पूरी नहीं होती? सदा अधूरी ही रहती है (टिप्पणी प0 778)। अर्जुनमें भगवान्को जाननेकी विशेष जिज्ञासा थी। इसीलिये भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण वेदों और शास्त्रोंके द्वारा जाननेयोग्य मैं स्वयं तुम्हारे सामने बैठा हूँ।वेदान्तकृत् -- भगवान्से ही वेद प्रकट हुए हैं (गीता 3। 15 17। 23)। अतः वे ही वेदोंके अन्तिम सिद्धान्तको ठीकठीक बताकर वेदोंमें प्रतीत होनेवाले विरोधोंका अच्छी तरह समन्वय कर सकते हैं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि (वेदोंका पूर्ण वास्तविक ज्ञाता होनेके कारण) मैं ही वेदोंके यथार्थ तात्पर्यका निर्णय करनेवाला हूँ।वेदविदेव चाहम् -- वेदोंके अर्थ? भाव आदिको भगवान् ही यथार्थरूपसे जानते हैं। वेदोंमें कौनसी बात किस भाव या उद्देश्यसे कही गयी है वेदोंका यथार्थ तात्पर्य क्या है इत्यादि बातें भगवान् ही पूर्णरूपसे जानते हैं क्योंकि भगवान्से ही वेद प्रकट हुए हैं।वेदोंमें भिन्नभिन्न विषय होनेके कारण अच्छेअच्छे विद्वान् भी एक निर्णय नहीं कर पाते (गीता 2। 53)। इसलिये वेदोंके यथार्थ ज्ञाता भगवान्का आश्रय लेनेसे ही वे वेदोंका तत्त्व जान सकते हैं और श्रुतिविप्रतिपत्ति से मुक्त हो सकते हैं।इस (पंद्रहवें) अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान्ने संसारवृक्षको तत्त्वसे जाननेवाले मनुष्यको वेदवित् कहा था। अब इस श्लोकमें भगवान् स्वयंको वेदवित् कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि संसारके यथार्थ तत्त्वको जान लेनेवाला महापुरुष भगवान्से अभिन्न हो जाता है। संसारके यथार्थ तत्त्वको जाननेका अभिप्राय है -- संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और परमात्माकी ही सत्ता है -- इस प्रकार जानते हुए संसारसे माने हुए सम्बन्धको छोड़कर अपना सम्बन्ध भगवान्से जोड़ना? संसारका आश्रय छोड़कर भगवान्के आश्रित हो जाना।प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात भगवान्ने श्रीमद्भगवद्गीताके चार अध्यायोंमें भिन्नभिन्न रूपोंसे अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है -- सातवें अध्यायमें आठवें श्लोकसे बारहवें श्लोकतक सृष्टिके प्रधानप्रधान पदार्थोंमें कारणरूपसे सत्रह विभूतियोंका वर्णन करके भगवान्ने अपनी सर्वव्यापकता और सर्वरूपता सिद्ध की है।नवें अध्यायमें सोलहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक क्रिया? भाव? पदार्थ आदिमें कार्यकारणरूपसे सैंतीस विभूतियोंका वर्णन करके भगवान्ने अपनेको सर्वव्यापक बताया है।दसवें अध्यायका तो नाम ही विभूतियोग है। इस अध्यायमें चौथे और पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने प्राणियोंके भावोंके रूपमें बीस विभूतियोंका और छठे श्लोकमें व्यक्तियोंके रूपमें पचीस विभूतियोंका वर्णन किया है। फिर बीसवें श्लोकसे उन्तालीसवें श्लोकतक भगवान्ने बयासी प्रधान विभूतियोंका विशेषरूपसे वर्णन किया है।इस पन्द्रहवें अध्यायमें बारहवें श्लोकसे पन्द्रहवें श्लोकतक भगवान्ने अपना प्रभाव बतलानेके लिये तेरह विभूतियोंका वर्णन किया है (टिप्पणी प0 779)।उपर्युक्त चारों अध्यायोंमें भिन्नभिन्न रूपमें विभूतियोंका वर्णन करनेका तात्पर्य यह है कि साधकको वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) सब कुछ वासुदेव ही है इस तत्त्वका अनुभव हो जाय। इसीलिये अपनी विभूतियोंका वर्णन करते समय भगवान्ने अपनी सर्वव्यापकताको ही विशेषरूपसे सिद्ध किया है जैसे -- मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति (7। 7)मेरेसे बढ़कर इस जगत्का दूसरा कोई भी महान् कारण नहीं है।,सदसच्चाहमर्जुन (9। 19)सत् और असत् -- सब कुछ मैं ही हूँ।,अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते (10। 8)मैं ही सबकी उत्पत्तिका कारण हूँ और मेरेसे ही सब जगत् चेष्टा करता है।,न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्। (10। 39)चर और अचर कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है? जो मेरेसे रहित हो अर्थात् चराचर सब प्राणी मेरे ही स्वरूप हैं।,इसी प्रकार इस पन्द्रहवें अध्यायमें भी अपनी विभूतियोंके वर्णनका उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं -- सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः (15। 15)मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें सम्यक् प्रकारसे स्थित हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण प्राणी? पदार्थ परमात्माकी सत्तासे ही सत्तावान् हो रहे हैं। परमात्मासे अलग किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।प्रकाशके अभाव(अन्धकार)में कोई वस्तु दिखायी नहीं देती। आँखोंसे किसी वस्तुको देखनेपर पहले प्रकाश दीखता है? उसके बाद वस्तु दीखती है अर्थात् हरेक वस्तु प्रकाशके अन्तर्गत ही दीखती है किन्तु हमारी दृष्टि प्रकाशपर न जाकर प्रकाशित होनेवाली वस्तुपर जाती है। इसी प्रकार यावन्मात्र वस्तु? क्रिया? भाव? आदिका ज्ञान एक विलक्षण और अलुप्त प्रकाश -- ज्ञानके अन्तर्गत होता है? जो सबका प्रकाशक और आधार है। प्रत्येक वस्तुसे पहले ज्ञान (स्वयंप्रकाश परमात्मतत्त्व) रहता है। अतः संसारमें परमात्माको व्याप्त कहनेपर भी वस्तुतः संसार बादमें है और उसका अधिष्ठान परमात्मतत्त्व पहले है अर्थात् पहले परमात्मतत्त्व दीखता है? बादमें संसार। परन्तु संसारमें राग होनेके के कारण मनुष्यकी दृष्टि उसके प्रकाशक(परमात्मतत्त्व) पर नहीं जाती।परमात्माकी सत्ताके बिना संसारकी कोई सत्ता नहीं है। परन्तु परमात्मसत्ताकी तरफ दृष्टि न रहने तथा सांसारिक प्राणीपदार्थोंमें राग या सुखासक्ति रहनेके कारण उन प्राणीपदार्थोंकी पृथक् (स्वतन्त्र) सत्ता प्रतीत होने लगती है और परमात्माकी वास्तविक सत्ता (जो तत्त्वसे है) नहीं दीखती। यदि संसारमें राग या सुखासक्तिका सर्वथा अभाव हो जाय? तो तत्त्वसे एक परमात्मसत्ता ही दीखने या अनुभवमें आने लगती है। अतः विभूतियोंके वर्णनका तात्पर्य यही है कि किसी भी प्राणीपदार्थकी तरफ दृष्टि जानेपर साधकको एकमात्र भगवान्की स्मृति होनी चाहिये अर्थात् उसे प्रत्येक प्राणीपदार्थमें भगवान्को ही देखना चाहिये। (गीता 10। 41)।वर्तमानमें समाजकी दशा बड़ी विचित्र है। प्रायः सब लोगोंके अन्तःकरणमें रुपयोंका बहुत ज्यादा महत्त्व हो गया है। रुपये खुद काममें नहीं आते? प्रत्युत उनसे खरीदी गयी वस्तुएँ ही काममें आती हैं परन्तु लोगोंने रुपयोंके उपयोगको खास महत्त्व न देकर उनकी संख्याकी वृद्धिको ही ज्यादा महत्त्व दे दिया इसलिये मनुष्यके पास जितने अधिक रुपये होते हैं? वह समाजमें अपनेको उतना ही अधिक बड़ा मान लेता है (टिप्पणी प0 780)। इस प्रकार रुपयोंको ही महत्त्व देनेवाला व्यक्ति परमात्माके महत्त्वको समझ ही नहीं सकता। फिर परमात्मप्राप्तिके बिना रहा न जाय -- ऐसी लगन उस मनुष्यके भीतर उत्पन्न हो ही कैसे सकती है जिसके भीतर यह बात बैठी हुई है कि रुपयोंके बिना रहा ही नहीं जा सकता अथवा रुपयोंके बिना काम ही नहीं चल सकता? उसकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि हो ही नहीं सकती। वह यह बात समझ ही नहीं सकता कि रुपयोंके बिना भी अच्छी तरह काम चल सकता है।जिस प्रकार व्यापारीको (एकमात्र धनप्राप्तिका उद्देश्य रहनेपर) माल लेने? माल देने आदि व्यापारसम्बन्धी प्रत्येक क्रियामें धन ही दीखता है? इसी प्रकार परमात्मतत्त्वके जिज्ञासुको (एकमात्र परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रहनेपर) प्रत्येक वस्तु? क्रिया आदिमें तत्त्वरूपसे परमात्मा ही दीखते हैं। उसको ऐसा अनुभव हो जाता है कि परमात्माके सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं? हो सकता ही नहीं।मार्मिक बातअर्जुनने चौदहवें अध्यायमें गुणातीत होनेका उपाय पूछा था। गुणोंके सङ्गसे ही जीव संसारमें फँसता है। अतः गुणोंका सङ्ग मिटानेके लिये भगवान्ने यहाँ अपने प्रभावका वर्णन किया है। छोटे प्रभावको मिटानेके लिये बड़े प्रभावकी आवश्यकता होती है। अतः जबतक जीवपर गुणों(संसार) का प्रभाव है? तबतक भगवान्के प्रभावको जाननेकी बड़ी आवश्यकता है।अपने प्रभावका वर्णन करते हुए भगवान्ने (इस अध्यायके बारहवेंसे पंद्रहवें श्लोकतक) यह बताया कि मैं ही सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता हूँ मैं ही पृथ्वीमें प्रवेश करके सब प्राणियोंको धारण करता हूँ मैं ही पृथ्वीपर अन्न उत्पन्न करके उसको पुष्ट करता हूँ जब मनुष्य उस अन्नको खाता है? तब मैं ही वैश्वानररूपसे उस अन्नको पचाता हूँ और मनुष्यमें स्मृति? ज्ञान और अपोहन भी मैं ही करता हूँ। इस वर्णनसे सिद्ध होता है कि आदिसे अन्ततक? समष्टिसे व्यष्टितककी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान्के अन्तर्गत? उन्हींकी शक्तिसे हो रही हैं। मनुष्य अहंकारवश अपनेको उन क्रियाओँका कर्ता मान लेता है अर्थात् उन क्रियाओंको व्यक्तिगत मान लेता है और बँध जाता है। सम्बन्ध -- भगवान्ने इसी अध्यायके पहले श्लोकसे पंद्रहवें श्लोकतक (तीन प्रकरणोंमें) क्रमशः संसार? जीवात्मा और परमात्माका विस्तारसे वर्णन किया। अब उस विषयका उपसंहार करते हुए आगेके दो श्लोकोंमें उन तीनोंका क्रमशः क्षर? अक्षर और पुरुषोत्तम नामसे स्पष्ट वर्णन करते हैं।
।।15.15।। यदि परमात्मा ही सर्वत्र विविध वस्तुओं? प्राणियों और क्षमताओं के रूप में व्यक्त हो रहा है? तो साधक को उसका अनुभव किस प्रकार हो सकता है भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चैतन्यरूप से समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। यहाँ हृदय शब्द से शारीरिक अगंरूप हृदय अभिप्रेत नहीं है। वह मन जो प्रेम? क्षमा? उदारता? करुणा जैसे सद्गुणों से सम्पन्न है? हृदय कहलाता है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ शान्त? प्रसन्न? सजग और जागरूक मन है? जो सर्वोच्च आत्मतत्त्व का अनुभव करनें में सक्षम होता है। हृदय को परमात्मा का निवास स्थान कहने का अभिप्राय यह है कि यद्यपि वह सर्वत्र विद्यमान है? तथापि उस चैतन्य का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव अपने हृदय में ही संभव है।मुझसे ही स्मृति? ज्ञान और उनका अपोहन होता है यह सर्वविदित तथ्य है कि जड़ वस्तुओं और मृत देह को किसी प्रकार का भी स्मरण? ज्ञान या विस्मरण नहीं होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनबुद्धि रूप सूक्ष्म शरीर में जब चैतन्य व्यक्त होता है? तभी वह ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है? तथा वह चैतन्य समस्त वृत्तियों को प्रकाशित करता है। हम अपने जीवन में जो अनुभव प्राप्त करते हैं वे सभी हमारे मन में संस्कार के रूप में एकत्रित रहते हैं। जीवन में आवश्यकतानुसार हमें उनका स्मरण होता है? और इस प्रकार वे हमारे वर्तमान और भविष्य के कर्मों में सहायक होते हैं। हमारी समस्त वर्तमान शिक्षा और विद्या पूर्वानुभवों की स्मृति ही है। यदि हमें अपनी स्मृतियों का भान ही न हो तो वे हमारे उपयोग के लिये उपलब्ध ही नहीं होंगी। वर्तमान की परिस्थितियों के साथ उचित प्रकार से प्रतिक्रिया करना और इस प्रकार नये नये अनुभवों को प्राप्त करना ही अपने ज्ञान को विस्तृत बनाने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया चैतन्य के प्रकाश में ही संभव है।नवीन ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में पूर्व की मिथ्या धारणाओं को त्यागने की हमारी क्षमता सिद्ध हो जाती है। इसे ही इस श्लोक में अपोहनम् कहा गया है। मिथ्या ज्ञान की विस्मृति अथवा उसको त्यागे बिना नवीन ज्ञानोपार्जन संभव नहीं हो सकता। ज्ञान? स्मृति एवं विस्मरण की इन आन्तरिक मानसिक क्रियाओं को चैतन्य प्रकाशित करता है।मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य तत्त्व हूँ विश्व के सभी धर्म ग्रन्थों में परमात्मा की ही स्तुति एवं पूजा की गई है। परमात्मा का साक्षात्कार ही जीवन का परम लक्ष्य है और उसकी प्राप्ति में ही कृत्कृत्यता भी है। समस्त प्राणियों के हृदय में रम रहा यह चैतन्य ही वह एकमेव अद्वितीय? परमार्थ सत्य है? जो सम्पूर्ण अनुभूयमान विश्व का एकमात्र अधिष्ठान है।मैं वेदान्तकृत् और वेदों का ज्ञाता भी हूँ चैतन्य ही वह सनातन सत्य है और शेष सब उस पर अध्यस्त है? वह चैतन्य ही सबका सारतत्त्व है? जिसमें वेद भी समाविष्ट हैं। वेदान्त का श्रवण करके जो साधक वेदनिर्दिष्ट आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है? वह किसी भी दशा में उस चैतन्य से भिन्न नहीं होता। इसलिये भगवान् कहते हैं? वेदवित् भी मैं ही हूँ।उपर्युक्त चार श्लोकों का सारांश यह है कि सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म ही सूर्य में प्रकाश? पृथ्वी में उर्वरा शक्ति? चन्द्रमा में अन्नपोषक प्रकाश? शरीर में वैश्वानर अग्नि? और प्राणिमात्र के हृदय में आत्मरूप से विराजमान है।यह ब्रह्म ही वेदों के द्वारा जानने योग्य सत्य वस्तु है? जो प्रकृति की विविध शक्तियों के रूप में व्यक्त होकर इस लोक में भूतमात्र का जीवन संभव बनाता है। इसे जानने का अर्थ ही अनन्त तत्त्व का अनुभव करना है।अब तक के इन श्लोकों में भगवान् नारायण की विभूतियों का अर्थात् उपाधियों के माध्यम से प्रकट होने वाले उनके वैभव का वर्णन किया गया है। अब? अगले प्रकरण में भगवान् श्रीकृष्ण अपने निरुपाधिक? सर्वगत और नित्य स्वरूप को दर्शाते हैं। यह पारमार्थिक अनन्त तत्त्व हमारी बुद्धि की समस्त कल्पनाओं? जैसे सान्त और अनन्त? क्षर और अक्षर के परे स्थित है।हमारे अनुभवों के आपेक्षिक जगत् को बताते हुये? भगवान् कहते हैं