सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15.15।।
।।15.15।। मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
।।15.15।। यदि परमात्मा ही सर्वत्र विविध वस्तुओं? प्राणियों और क्षमताओं के रूप में व्यक्त हो रहा है? तो साधक को उसका अनुभव किस प्रकार हो सकता है भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चैतन्यरूप से समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। यहाँ हृदय शब्द से शारीरिक अगंरूप हृदय अभिप्रेत नहीं है। वह मन जो प्रेम? क्षमा? उदारता? करुणा जैसे सद्गुणों से सम्पन्न है? हृदय कहलाता है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ शान्त? प्रसन्न? सजग और जागरूक मन है? जो सर्वोच्च आत्मतत्त्व का अनुभव करनें में सक्षम होता है। हृदय को परमात्मा का निवास स्थान कहने का अभिप्राय यह है कि यद्यपि वह सर्वत्र विद्यमान है? तथापि उस चैतन्य का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव अपने हृदय में ही संभव है।मुझसे ही स्मृति? ज्ञान और उनका अपोहन होता है यह सर्वविदित तथ्य है कि जड़ वस्तुओं और मृत देह को किसी प्रकार का भी स्मरण? ज्ञान या विस्मरण नहीं होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनबुद्धि रूप सूक्ष्म शरीर में जब चैतन्य व्यक्त होता है? तभी वह ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है? तथा वह चैतन्य समस्त वृत्तियों को प्रकाशित करता है। हम अपने जीवन में जो अनुभव प्राप्त करते हैं वे सभी हमारे मन में संस्कार के रूप में एकत्रित रहते हैं। जीवन में आवश्यकतानुसार हमें उनका स्मरण होता है? और इस प्रकार वे हमारे वर्तमान और भविष्य के कर्मों में सहायक होते हैं। हमारी समस्त वर्तमान शिक्षा और विद्या पूर्वानुभवों की स्मृति ही है। यदि हमें अपनी स्मृतियों का भान ही न हो तो वे हमारे उपयोग के लिये उपलब्ध ही नहीं होंगी। वर्तमान की परिस्थितियों के साथ उचित प्रकार से प्रतिक्रिया करना और इस प्रकार नये नये अनुभवों को प्राप्त करना ही अपने ज्ञान को विस्तृत बनाने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया चैतन्य के प्रकाश में ही संभव है।नवीन ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में पूर्व की मिथ्या धारणाओं को त्यागने की हमारी क्षमता सिद्ध हो जाती है। इसे ही इस श्लोक में अपोहनम् कहा गया है। मिथ्या ज्ञान की विस्मृति अथवा उसको त्यागे बिना नवीन ज्ञानोपार्जन संभव नहीं हो सकता। ज्ञान? स्मृति एवं विस्मरण की इन आन्तरिक मानसिक क्रियाओं को चैतन्य प्रकाशित करता है।मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य तत्त्व हूँ विश्व के सभी धर्म ग्रन्थों में परमात्मा की ही स्तुति एवं पूजा की गई है। परमात्मा का साक्षात्कार ही जीवन का परम लक्ष्य है और उसकी प्राप्ति में ही कृत्कृत्यता भी है। समस्त प्राणियों के हृदय में रम रहा यह चैतन्य ही वह एकमेव अद्वितीय? परमार्थ सत्य है? जो सम्पूर्ण अनुभूयमान विश्व का एकमात्र अधिष्ठान है।मैं वेदान्तकृत् और वेदों का ज्ञाता भी हूँ चैतन्य ही वह सनातन सत्य है और शेष सब उस पर अध्यस्त है? वह चैतन्य ही सबका सारतत्त्व है? जिसमें वेद भी समाविष्ट हैं। वेदान्त का श्रवण करके जो साधक वेदनिर्दिष्ट आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है? वह किसी भी दशा में उस चैतन्य से भिन्न नहीं होता। इसलिये भगवान् कहते हैं? वेदवित् भी मैं ही हूँ।उपर्युक्त चार श्लोकों का सारांश यह है कि सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म ही सूर्य में प्रकाश? पृथ्वी में उर्वरा शक्ति? चन्द्रमा में अन्नपोषक प्रकाश? शरीर में वैश्वानर अग्नि? और प्राणिमात्र के हृदय में आत्मरूप से विराजमान है।यह ब्रह्म ही वेदों के द्वारा जानने योग्य सत्य वस्तु है? जो प्रकृति की विविध शक्तियों के रूप में व्यक्त होकर इस लोक में भूतमात्र का जीवन संभव बनाता है। इसे जानने का अर्थ ही अनन्त तत्त्व का अनुभव करना है।अब तक के इन श्लोकों में भगवान् नारायण की विभूतियों का अर्थात् उपाधियों के माध्यम से प्रकट होने वाले उनके वैभव का वर्णन किया गया है। अब? अगले प्रकरण में भगवान् श्रीकृष्ण अपने निरुपाधिक? सर्वगत और नित्य स्वरूप को दर्शाते हैं। यह पारमार्थिक अनन्त तत्त्व हमारी बुद्धि की समस्त कल्पनाओं? जैसे सान्त और अनन्त? क्षर और अक्षर के परे स्थित है।हमारे अनुभवों के आपेक्षिक जगत् को बताते हुये? भगवान् कहते हैं