उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।15.17।।
।।15.17।।उत्तम पुरुष तो अन्य ही है? जो परमात्मा नामसे कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकोंमें प्रविष्ट होकर सबका भरणपोषण करता है।
।।15.17।। परन्तु उत्तम पुरुष अन्य ही है? जो परमात्मा कहलाता है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण करने वाला अव्यय ईश्वर है।।
।।15.17।। व्याख्या -- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः -- पूर्वश्लोकमें क्षर और अक्षर दो प्रकारके पुरुषोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् यह बताते हैं कि उन दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है (टिप्पणी प0 782)।यहाँ अन्यः पद परमात्माको अविनाशी अक्षर(जीवात्मा) से भिन्न बतानके लिये नहीं? प्रत्युत उससे विलक्षण बतानेके लिये आया है। इसीलिये भगवान्ने आगे अठारहवें श्लोकमें अपनेको नाशवान् क्षरसे अतीत और अविनाशी अक्षरसे उत्तम बताया है। परमात्माका अंश होते हुए भी जीवात्माकी दृष्टि या खिंचाव नाशवान् क्षरकी ओर हो रहा है। इसीलिये यहाँ भगवान्को उससे विलक्षण बताया गया है।परमात्मेत्युदाहृतः -- उस उत्तम पुरुषको ही परमात्मा नामसे कहा जाता है। परमात्मा शब्द निर्गुणका वाचक माना जाता है? जिसका अर्थ है -- परम (श्रेष्ठ) आत्मा अथवा सम्पूर्ण जीवोंकी आत्मा। इस श्लोकमें परमात्मा और ईश्वर -- दोनों शब्द आये हैं? जिसका तात्पर्य है कि निर्गुण और सगुण सब एक पुरुषोत्तम ही है।यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः -- वह उत्तम पुरुष (परमात्मा) तीनों लोकोंमें अर्थात् सर्वत्र समानरूपसे नित्य व्याप्त है।यहाँ बिभर्ति पदका तात्पर्य यह है कि वास्तवमें परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियोंका भरणपोषण करते हैं? पर जीवात्मा संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण भूलसे सांसारिक व्यक्तियों आदिको अपना मानकर उनके भरणपोषणादिका भार अपने ऊपर ले लेता है। इससे वह व्यर्थ ही दुःख पाता रहता है (टिप्पणी प0 783.1)।भगवान्को अव्ययः कहनेका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण लोकोंका भरणपोषण करते रहनेपर भी भगवान्का कोई व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात् उनमें किसी तरहकी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। वे सदा ज्योंकेत्यों रहते हैं।ईश्वरः शब्द सगुणका वाचक माना जाता है? जिसका अर्थ है -- शासन करनेवाला।मार्मिक बातयद्यपि मातापिता बालकका पालनपोषण किया करते हैं? तथापि बालकको इस बातका ज्ञान नहीं होता कि मेरा पालनपोषण कौन करता है? कैसे करता है और किसलिये करता है इसी तरह यद्यपि भगवान् मात्र प्राणियोंका पालनपोषण करते हैं? तथापि अज्ञानी मनुष्यको (भगवान्पर दृष्टि न रहनेसे) इस बातका पता ही नहीं लगता कि मेरा पालनपोषण कौन करता है। भगवान्का शरणागत भक्त ही इस बातको ठीक तरहसे जानता है कि एक भगवान् ही सबका सम्यक् प्रकारसे पालनपोषण कर रहे हैं।पालनपोषण करनेमें भगवान् किसीके साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते। वे भक्तअभक्त? पापीपुण्यात्मा? आस्तिकनास्तिक आदि सभीका समानरूपसे पालनपोषण करते हैं (टिप्पणी प0 783.2)। प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि भगवान्द्वारा रचित सृष्टिमें सूर्य सबको समानरूपसे प्रकाश देता है? पृथ्वी सबको समानरूपसे धारण करती है? वैश्वानरअग्नि सबके अन्नको समानरूपसे पचाती है? वायु सबको (श्वास लेनेके लिये) समानरूपसे प्राप्त होती है? अन्नजल सबको समानरूपसे तृप्त करते हैं? इत्यादि। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें वर्णित उत्तम पुरुषके साथ अपनी एकता बताकर अब साकाररूपसे प्रकट भगवान् श्रीकृष्ण अपना अत्यन्त गोपनीय रहस्य प्रकट कहते हैं।
।।15.17।। कोई एक व्यक्ति विभिन्न उपाधियों? व्यक्तियों? कार्यों और पदों की दृष्टि से विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता है और यदि इन आपेक्षिक दृष्टिकोणों को दूर कर दिया जाय? तो वह व्यक्ति शून्य रूप नहीं हो जायेगा। वह मात्र एक निर्विशेष व्यक्ति रह जाता है। इसी प्रकार? जो परम तत्त्व नित्यपरिवर्तनशील जगत् के रूप में क्षर पुरुष कहलाता है और क्षर के ज्ञाता के रूप में अक्षर पुरुष? वह स्वयं इन दोनों से भिन्न ही है? जिसे यहाँ उत्तम पुरुष? परमात्मा और अव्यय ईश्वर कहा गया है।क्षर से परे पहुँचने पर अक्षर ही नहीं? वरन् उत्तम पुरुष ही रह जाता है? क्योंकि क्षरत्व के अभाव में अक्षरत्व का भी अभाव हो जाता है। तब रह जाता है? इन दोनों का परमार्थ अधिष्ठान परमात्मा। यह परमात्मा या अव्यय ईश्वर तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका धारणपोषण करता है। संस्कृत में लोक शब्द का अर्थ है वह वस्तु जो देखी या अनुभव की जाती है। इस दृष्टि से? यहाँ लोक शब्द का अर्थ स्वर्गादि लोक हो सकता है और हमारी परिचित अनुभवों की तीन अवस्थाएं जाग्रत? स्वप्न और सुषुप्ति भी हो सकती हैं। एक ही संवित् (चैतन्य) इन तीनों को प्रकाशित करता है।यहाँ विशेष ध्यान देने की बाता यह है कि इन तीनों पुरुषों को भिन्नभिन्न नहीं समझना चाहिये। केवल उत्तम पुरुष ही पारमार्थिक सत्य है? जो दो विभिन्न उपाधियों की दृष्टि से क्षर और अक्षर के रूप में प्रतीत हो रहा है। उपाधियों के अभाव में वह केवल अपने नित्यशुद्ध? निरुपाधिक स्वरूप में रह जाता है। उदाहरणार्थ? एक ही सर्वगत आकाश घट और मठ इन दो उपाधियों से अवच्छिन्न होकर घटाकाश और मठाकाश के रूप में प्रतीत होता है। यहाँ यह स्पष्ट है कि यह कोई तीन आकाश घटाकाश? मठाकाश और महाकाश नहीं बन गये हैं। घट और मठ की उपाधियों से ध्यान दूर कर लें तो ज्ञात होता कि वस्तुत आकाश एक ही है।इसी प्रकार? उत्तम पुरुष ही दृश्य और दृष्टा के रूप में क्षर और अक्षर पुरुष कहलाता है। परन्तु उपाधियों से विवर्जित हुआ वह परमात्मा ही है।अगले श्लोक में? भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम शब्द की व्युत्पत्ति दर्शाकर यह बताते हैं कि वे किस प्रकार परम ब्रह्म स्वरूप हैं