यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।।15.19।।
।।15.19।।हे भरतवंशी अर्जुन इस प्रकार जो मोहरहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है? वह सर्वज्ञ सब प्रकारसे मेरा ही भजन करता है।
।।15.19।। हे भारत इस प्रकार? जो? संमोहरहित? पुरुष मुझ पुरुषोत्तम को जानता है? वह सर्वज्ञ होकर सम्पूर्ण भाव से अर्थात् पूर्ण हृदय से मेरी भक्ति करता है।।
।।15.19।। व्याख्या -- यो मामेवमसम्मूढः -- जीवात्मा परमात्माका सनातन अंश है। अतः अपने अंशी परमात्माके वास्तविक सम्बन्ध(जो सदासे ही है) का अनुभव करना ही उसका असम्मूढ़ (मोहसे रहित) होना है।संसार या परमात्माको तत्त्वसे जाननेमें मोह (मूढ़ता) ही बाधक है। किसी वस्तुकी वास्तविकताका ज्ञान तभी हो सकता है? जब उस वस्तुसे राग या द्वेषपूर्वक माना गया कोई सम्बन्ध न हो। नाशवान् पदार्थोंसे रागद्वेषपूर्वक सम्बन्ध मानना ही मोह है।संसारको तत्त्वसे जानते ही परमात्मासे अपनी अभिन्नताका अनुभव हो जाता है और परमात्माको तत्त्वसे जानते ही संसारसे अपनी भिन्नताका अनुभव हो जाता है। तात्पर्य है कि संसारको तत्त्वसे जाननेसे संसारसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद हो जाता है और परमात्माको तत्त्वसे जाननेसे परमात्मासे वास्तविक सम्बन्धका अनुभव हो जाता है।संसारसे अपना सम्बन्ध मानना ही भक्तिमें व्यभिचारदोष है। इस व्यभिचारदोषसे सर्वथा रहित होनेमें ही उपर्युक्त पदोंका भाव समझना चाहिये।जानाति पुरुषोत्तमम् -- जिसकी मूढ़ता सर्वथा नष्ट हो गयी है? वही मनुष्य भगवान्को पुरुषोत्तम जानता है।क्षरसे सर्वथा अतीत पुरुषोत्तम(परमपुरुष परमात्मा) को ही सर्वोपरि मानकर उनके सम्मुख हो जाना? केवल उन्हींको अपना मान लेना ही भगवान्को यथार्थरूपसे पुरुषोत्तम जानना है।संसारमें जो कुछ भी प्रभाव देखनेसुननेमें आता है? वह सब एक भगवान्(पुरुषोत्तम) का ही है -- ऐसा मान लेनेसे संसारका खिंचाव सर्वथा मिट जाता है। यदि संसारका थोड़ासा भी खिंचाव रहता है? तो यही समझना चाहिये कि अभी भगवान्को दृढ़तासे माना ही नहीं।स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत -- जो भगवान्को पुरुषोत्तम जान लेता है और इस विषयमें जिसके अन्तःकरणमें कोई विकल्प? भ्रम या संशय नहीं रहता? उस मनुष्यके लिये जाननेयोग्य कोई तत्त्व शेष नहीं रहता। इसलिये भगवान् उसको सर्ववित् कहते हैं (टिप्पणी प0 785.1)।भगवान्को जाननेवाला व्यक्ति कितना ही कम पढ़ालिखा क्यों न हो? वह सब कुछ जाननेवाला है क्योंकि उसने जाननेयोग्य तत्त्वको जान लिया। उसको और कुछ भी जानना शेष नहीं है।जो मनुष्य भगवान्को पुरुषोत्तम जान लेता है? उस सर्ववित् मनुष्यकी पहचान यह है कि वह सब प्रकारसे स्वतः भगवान्का ही भजन करता है।जब मनुष्य भगवान्को क्षरसे अतीत जान लेता है? तब उसका मन (राग) क्षर(संसार) से हटकर भगवान्में लग जाता है और जब वह भगवान्को अक्षरसे उत्तम जान लेता है? तब उसकी बुद्धि (श्रद्धा) भगवान्में लग जाती है (टिप्पणी प0 785.2)। फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रियासे स्वतः भगवान्का भजन होता है। इस प्रकार सब प्रकारसे भगवान्का भजन करना ही अव्यभिचारिणी भक्ति है।शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि सांसारिक पदार्थोंसे जबतक मनुष्य रागपूर्वक अपना सम्बन्ध मानता है? तबतक वह सब प्रकारसे भगवान्का भजन नहीं कर सकता। कारण कि जहाँ राग होता है? वृत्ति स्वतः वहीं जाती है।मैं भगवान्का हूँ और भगवान् ही मेरे हैं -- इस वास्तविकताको दृढ़तापूर्वक मान लेनेसे स्वतः सब प्रकारसे भगवान्का भजन होता है। फिर भक्तकी मात्र क्रियाएँ (सोना? जागना? बोलना? चलना? खानापीना आदि) भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होती हैं? अपने लिये नहीं।ज्ञानमार्गमें जानना और भक्तिमार्गमें मानना मुख्य होता है। जिस बातमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह न हो? उसे दृढ़तापूर्वक मानना ही भक्तिमार्गमें जानना है। भगवान्को सर्वोपरि मान लेनेके बाद भक्त सब प्रकारसे भगवान्का ही भजन करता है (गीता 10। 8)।भगवान्को पुरुषोत्तम (सर्वोपरि) माननेसे भी मनुष्य सर्ववित् हो जाता है? फिर सब प्रकारसे भगवान्का भजन करते हुए भगवान्को पुरुषोत्तम जान जाय -- इसमें तो कहना ही क्या है सम्बन्ध -- अरुन्धतीदर्शनन्याय(स्थूलसे क्रमशः सूक्ष्मकी ओर जाने) के अनुसार भगवान्ने इस अध्यायमें पहले क्षर और फिर अक्षर का विवेचन करनेके बाद अन्तमें पुरुषोत्तम का वर्णन किया -- अपने पुरुषोत्तमत्वको सिद्ध किया। ऐसा वर्णन करनेका तात्पर्य और प्रयोजन क्या है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।15.19।। जिस पुरुष ने अपने शरीर? मन और बुद्धि तथा उनके द्वारा अनुभव किये जाने वाले विषयों? भावनाओं एवं विचारों के साथ मिथ्या तादात्म्य को सर्वथा त्याग दिया है? वही असंमूढ अर्थात् संमोहरहित पुरुष है।इस प्रकार मुझे जानता है यहाँ जानने का अर्थ बौद्धिक स्तर का ज्ञान नहीं? वरन् आत्मा का साक्षात् अपरोक्ष अनुभव है। स्वयं को परमात्मस्वरूप से जानना ही वास्तविक बोध है।अनात्मा के तादात्म्य को त्यागकर? जिसने मुझ परमात्मा के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर लिया है? वही परम भक्त है? जो मुझे पूर्ण हृदय से भजता है। प्रिय से तादात्म्य ही सर्वत्र प्रेम का मापदण्ड माना जाता है। अधिक प्रेम होने पर अधिक तादात्म्य होता है। इसलिये? अंकगणित की दृष्टि से भी पूर्ण तादात्म्य का अर्थ होगा पूर्ण प्रेम अर्थात् पराभक्ति।यह पुरुषोत्तम ही चैतन्य स्वरूप से तीनों काल में समस्त घटनाओं एवं प्राणियों की अन्तर्वृत्तियों को प्रकाशित करता है। इसलिये वह सर्वज्ञ कहलाता है। जो भक्त इस पुरुषोत्तम के साथ पूर्ण तादात्म्य कर लेता है? वह भी सर्ववित् कहलाता है।इस अध्याय की विषयवस्तु भगवत्तत्त्वज्ञान है। अब? भगवान् श्रीकृष्ण इस ज्ञान की प्रशंसा करते हैं? जो ज्ञान हमें शरीरजनित दुखों? मनजनित विक्षेपों और बुद्धिजनित अशान्तियों के बन्धनों से सदा के लिये मुक्त कर देता है