अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।15.2।।
।।15.2।।उस संसारवृक्षकी गुणों(सत्त्व? रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोंपलोंवाली शाखाएँ नीचे? मध्यमें और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं। मनुष्यलोकमें कर्मोंके अनुसार बाँधनेवाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकोंमें) व्याप्त हो रहे हैं।
।।15.2।। उस वृक्ष की शाखाएं गुणों से प्रवृद्ध हुईं नीचे और ऊपर फैली हुईं हैं (पंच) विषय इसके अंकुर हैं मनुष्य लोक में कर्मों का अनुसरण करने वाली इसकी अन्य जड़ें नीचे फैली हुईं हैं।।
।।15.2।। व्याख्या -- तस्य शाखा गुणप्रवृद्धाः -- संसारवृक्षकी मुख्य शाखा ब्रह्मा है। ब्रह्मासे सम्पूर्ण देव? मनुष्य? तिर्यक् आदि योनियोंकी उत्पत्ति और विस्तार हुआ है। इसलिये ब्रह्मलोकसे पातालतक जितने भी लोक तथा उनमें रहनेवाले देव? मनुष्य? कीट आदि प्राणी हैं? वे सभी संसारवृक्षकी शाखाएँ हैं। जिस प्रकार जल सींचनेसे वृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं? उसी प्रकार गुणरूप जलके सङ्गसे इस संसारवृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं। इसीलिये भगवान्ने जीवात्माके ऊँच? मध्य और नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण गुणोंका सङ्ग ही बताया है (गीता 13। 21 14। 18)। सम्पूर्ण सृष्टिमें ऐसा कोई देश? वस्तु? व्यक्ति नहीं? जो प्रकृतिसे उत्पन्न तीनों गुणोंसे रहित हो (गीता 18। 40)। इसलिये गुणोंके सम्बन्धसे ही संसारकी स्थिति है। गुणोंकी अनुभूति गुणोंसे उत्पन्न वृत्तियों तथा पदार्थोंके द्वारा होती है। अतः वृत्तियों तथा पदार्थोंसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करानेके लिये ही गुणप्रवृद्धाः पद देकर भगवान्ने यहाँ यह बताया है कि जबतक गुणोंसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध है? तबतक संसारवृक्षकी शाखाएँ बढ़ती ही रहेंगी। अतः संसारवृक्षका छेदन करनेके लिये गुणोंका सङ्ग किञ्चिन्मात्र भी नहीं रखना चाहिये क्योंकि गुणोंका सङ्ग रहते हुए संसारसे सम्बन्धविच्छेद नहीं हो सकता।विषयप्रवालाः -- जिस प्रकार शाखासे निकलनेवाली नयी कोमल पत्तीके डंठलसे लेकर पत्तीके अग्रभागतकको प्रवाल (कोंपल) कहा जाता है? उसी प्रकार गुणोंकी वृत्तियोंसे लेकर दृश्य पदार्थमात्रको यहाँ,विषयप्रवालाः कहा गया है।वृक्षके मूलसे तना (मुख्य शाखा)? तनेसे शाखाएँ और शाखाओँसे कोंपलें फूटती हैं और कोंपलोंसे शाखाएँ आगे बढ़ती हैं। इस संसारवृक्षमें विषयचिन्तन ही कोंपलें हैं। विषयचिन्तन तीनों गुणोंसे होता है। जिस प्रकार गुणरूप जलसे संसारवृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं? उसी प्रकार गुणरूप जलसे विषयरूप कोंपलें भी बढ़ती हैं। जैसे कोंपलें दीखती हैं? उनमें व्याप्त जल नहीं दीखता? ऐसे ही शब्दादि विषय तो दीखते हैं? पर उनमें गुण नहीं दीखते। अतः विषयोंसे ही गुण जाने जाते हैं।विषयप्रवालाः पदका भाव यह प्रतीत होता है कि विषयचिन्तन करते हुए मनुष्यका संसारसे सम्बन्धविच्छेद नहीं हो सकता (टिप्पणी प0 745.1) (गीता 2। 62 -- 63)। अन्तकालमें मनुष्य जिसजिस भावका चिन्तन करते हुए शरीरका त्याग करता है? उसउस भावको ही प्राप्त होता है (गीता 8। 6) -- यही विषयरूप कोंपलोंका फूटना है।कोंपलोंकी तरह विषय भी देखनेमें बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं? जिससे मनुष्य उनमें आकर्षित हो जाता है। साधक अपने विवेकसे परिणामपर विचार करते हुए इनको क्षणभङ्गुर? नाशवान् और दुःखरूप जानकर इन विषयोंका सुगमतापूर्वक त्याग कर सकता है (गीता 5। 22)। विषयोंमें सौन्दर्य और आकर्षण अपने रागके कारण ही दीखता है? वास्तवमें वे सुन्दर और आकर्षक है नहीं। इसलिये विषयोंमें रागका त्याग ही वास्तविक त्याग है। जैसे कोमल कोंपलोंको नष्ट करनेमें कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता? ऐसे ही इन विषयोंके त्यागमें भी साधकको कठिनता नहीं माननी चाहिये। मनसे आदर देनेपर ही ये विषयरूप कोंपलें सुन्दर और आकर्षक दीखती हैं? वास्तवमें तो ये विषयुक्त लड्डूके समान ही हैं (टिप्पणी प0 745.2)। इसलिये इस संसारवृक्षका छेदन करनेके लिये भोगबुद्धिपूर्वक विषयचिन्तन एवं विषयसेवनका सर्वथा त्याग करना आवश्यक है (टिप्पणी प0 745.3)। अधश्चोर्ध्वं प्रसृताः -- यहाँ च पदको मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोक(इसी श्लोकके मनुष्यलोके कर्मानुबन्धीनि,पदों) का वाचक समझना चाहिये। ऊर्ध्वम् पदका तात्पर्य ब्रह्मलोक आदिसे है? जिसमें जानेके दो मार्ग हैं -- देवयान और पितृयान (जिसका वर्णन आठवें अध्यायके चौबीसवेंपचीसवें श्लोकोंमें शुक्ल और कृष्णमार्गके नामसे हुआ है)। अधः पदका तात्पर्य नरकोंसे है? जिसके भी दो भेद हैं -- योनिविशेष नरक और स्थानविशेष नरक।इन पदोंसे यह कहा गया है कि ऊर्ध्वमूल परमात्मासे नीचे? संसारवृक्षकी शाखाएँ नीचे? मध्य और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। इसमें मनुष्ययोनिरूप शाखा ही मूल शाखा है क्योंकि मनुष्ययोनिमें नवीन कर्मोंको करनेका अधिकार है। अन्य शाखाएँ भोगयोनियाँ हैं? जिनमें केवल पूर्वकृत कर्मोंका फल भोगनेका ही अधिकार है। इस मनुष्ययोनिरूप मूल शाखासे मनुष्य नीचे (अधोलोक) तथा ऊपर (ऊर्ध्वलोक) -- दोनों ओर जा सकता है और संसारवृक्षका छेदन करके सबसे ऊर्ध्व (परमात्मा) तक भी जा सकता है। मनुष्यशरीरमें ऐसा विवेक है? जिसको महत्त्व देकर जीव परमधामतक पहुँच सकता है और अविवेकपूर्वक विषयोंका सेवन करके नरकोंमें भी जा सकता है। इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है -- नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।(मानस 7। 121। 5)अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके -- मनुष्यके अतिरिक्त दूसरी सब भोगयोनियाँ हैं। मनुष्ययोनिमें किये हुए पापपुण्योंका फल भोगनेके लिये ही मनुष्यको दूसरी योनियोंमें जाना पड़ता है। नये पापपुण्य करनेका अथवा पापपुण्यसे रहित होकर मुक्त होनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है।यहाँ मूलानि पदका तात्पर्य तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूलसे है? वास्तविक ऊर्ध्वमूल परमात्मासे नहीं। मैं शरीर हूँ -- ऐसा मानना तादात्म्य है। शरीरादि पदार्थोंको अपना मानना ममता है। पुत्रैषणा? वित्तैषणा और लोकैषणा -- ये तीन प्रकारकी मुख्य कामनाएँ हैं। पुत्रपरिवारकी कामना पुत्रैषणा और धनसम्पत्तिकी कामना वित्तैषणा है। संसारमें मेरा मानआदर हो जाय? मैं बना रहूँ? शरीर नीरोग रहे? मैं शास्त्रोंका पण्डित बन जाऊँ आदि अनेक कामनाएँ लोकैषणा के अन्तर्गत हैं। इतना ही नहीं कीर्तिकी कामना मरनेके बाद भी इस रूपमें रहती है कि लोग मेरी प्रशंसा करते रहें मेरा स्मारक बन जाय मेरी स्मृतिमें पुस्तकें बन जायँ लोग मुझे याद करें? आदि। यद्यपि कामनाएँ प्रायः सभी योनियोंमें न्यूनाधिकरूपसे रहती हैं? तथापि वे मनुष्ययोनिमें ही बाँधनेवाली होती हैं (टिप्पणी प0 746)। जब कामनाओंसे प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है? तब उन कर्मोंके संस्कार उसके अन्तःकरणमें संचित होकर भावी जन्ममरणके कारण बन जाते हैं। मनुष्ययोनिमें किये हुए कर्मोंका फल इस जन्ममें तथा मरनेके बाद भी अवश्य भोगना पड़ता है (गीता 18। 12)। अतः तादात्म्य? ममता और कामनाके रहते हुए कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं छूट सकता।यह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है? वहींसे छुटकारा होता है जैसे -- रस्सीकी गाँठ जहाँ लगी है? वहींसे वह खुलती है। मनुष्ययोनिमें ही जीव शुभाशुभ कर्मोंसे बँधता है अतः मनुष्ययोनिमें ही वह मुक्त हो सकता है।पहले श्लोकमें आये ऊर्ध्वमूलम् पदका तात्पर्य है -- परमात्मा? जो संसारके रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं और यहाँ मूलानि पदका तात्पर्य है -- तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूल? जो संसारमें मनुष्यको बाँधते हैं। साधकको इन (तादात्म्य? ममता और कामनारूप) मूलोंका तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्माका आश्रय लेना है? जिसका उल्लेख तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये पदसे इसी अध्यायके चौथे श्लोकमें हुआ है।मनुष्यलोकमें कर्मानुसार बाँधनेवाले तादात्म्य? ममता और कामनारूप मूल नीचे और ऊपर सभी लोकों? योनियोंमें व्याप्त हो रहे हैं। पशुपक्षियोंका भी अपने शरीरसे तादात्म्य रहता है? अपनी सन्तानमें ममता होती है और भूख लगनेपर खानेके लिये अच्छे पदार्थोंकी कामना होती है। ऐसे ही देवताओंमें भी अपने दिव्य शरीरसे तादात्म्य? प्राप्त पदार्थोंमें ममता और अप्राप्त भोगोंकी कामना रहती है। इस प्रकार तादात्म्य? ममता और कामनारूप दोष किसीनकिसी रूपमें ऊँचनीच सभी योनियोंमें रहते हैं। परन्तु मनुष्ययोनिके सिवाय दूसरी योनियोंमें ये बाँधनेवाले नहीं होते। यद्यपि मनुष्ययोनिके सिवाय देवादि अन्य योनियोंमें भी विवेक रहता है? पर भोगोंकी अधिकता होने तथा भोग भोगनेके लिये ही उन योनियोंमें जानेके कारण उनमें विवेकका उपयोग नहीं हो पाता। इसलिये उन योनियोंमें उपर्युक्त दोषोंसे स्वयं को (विवेकके द्वारा) अलग देखना सम्भव नहीं है। मनुष्ययोनि ही ऐसी है? जिसमें (विवेकके कारण) मनुष्य ऐसा अनुभव कर सकता है कि मैं (स्वरूपसे) तादात्म्य? ममता और कामनारूप दोषोंसे सर्वथा रहित हूँ।भोगोंके परिणामपर दृष्टि रखनेकी योग्यता भी मनुष्यशरीरमें ही है। परिणामपर दृष्टि न रखकर भोग भोगनेवाले मनुष्यको पशु कहना भी मानो पशुयोनिकी निन्दा ही करना है क्योंकि पशु तो अपने कर्मफल भोगकर मनुष्ययोनिकी तरफ आ रहा है? पर यह मनुष्य तो निषिद्ध भोग भोगकर पशुयोनिकी तरफ ही जा रहा है। सम्बन्ध -- पीछेके दो श्लोकोंमें संसारवृक्षका जो वर्णन किया गया है? उसका प्रयोजन क्या है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।15.2।। संसार वृक्ष का और विस्तृत चित्रांकन इस श्लोक में किया गया है। गूढ़ अभिप्राय वाले प्रतीकों को शब्दश नहीं लेना चाहिये? फिर वे प्रतीक साहित्य के हों अथवा कला के। वेदों की शैली ही लक्षणात्मक है। दर्शनशास्त्र के सूक्ष्म सिद्धान्तों को व्यक्त करने के लिए जगत् की किसी उपयुक्त वस्तु का वर्णन ऐसी काव्यात्मक शैली में करना? जिससे धर्म के गूढ़ सन्देश या अभिप्राय का बोध कराया जा सके? लक्षणात्मक शैली कही जाती है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष की शाखाएं ऊपर और नीचे फैली हुईं हैं। इनसे तात्पर्य देवता? मनुष्य? पशु इत्यादि योनियों से है। मनुष्य के व्यक्तिगत तथा जगत् के विकास की दिशा कभी उन्नति की ओर होती है? किन्तु प्राय यह पशु जीवन के निम्न स्तर की ओर रहती है। अध और ऊर्ध्व इन दो शब्दों से इन्हीं दो दिशाओं अथवा प्रवृत्तियों की ओर निर्देश किया गया है।गुणों से प्रवृद्ध हुई जीवों की ऊर्ध्व या अधोगामी प्रवृत्तियों का धारण पोषण प्रकृति के सत्त्व? रज और तम? इन तीन गुणों के द्वारा किया जाता है। इन गुणों का विस्तृत विवेचन पूर्व अध्याय में किया जा चुका है।किसी भी वृक्ष की शाखाओं पर हम अंकुर या कोपलें देख सकते हैं जहाँ से अवसर पाकर नईनई शाखाएं फूटकर निकलती हैं। प्रस्तुत रूपक में इन्द्रियों के शब्दस्पर्शादि विषयों को प्रवाल अर्थात् अंकुर कहा गया है। यह सुविदित तथ्य है कि विषयों की उपस्थिति में हम अपने उच्च आदर्शों को विस्मृत कर विषयाभिमुख हो जाते हैं। तत्पश्चात् उन भोगों की पूर्ति के लिये उन्मत्त होकर नयेनये कर्म करते हैं। अत विषयों को प्रवाल कहना समीचीन है।इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वृक्ष की गौण जड़ें नीचे फैली हुई हैं। परमात्मा तो इस संसार वृक्ष का अधिष्ठान होने से इसका मुख्य मूल है किन्तु इसकी अन्य जड़े भी हैं ? जो इस वृक्ष का अस्तित्व बनाये रखती हैं। मनुष्य देह में यह जीव असंख्य प्रकार के कर्म और कर्मफल का भोग करता है? जिसके फलस्वरूप उसके मन में नये संस्कार या वासनाएं अंकित होती जाती हैं। ये वासनाएं ही अन्य जड़ें हैं? जो मनुष्य को अपनी अभिव्यक्ति के लिये कर्मों में प्रेरित करती रहती हैं। शुभ और अशुभ कर्मों का कारण भी ये वासनाएं ही हैं। जैसा कि लोक में हम देखते हैं? वृक्ष की ये अन्य जड़ें ऊपर से नीचे पृथ्वी में प्रवेश कर वृक्ष को दृढ़ता से स्थिर कर देती हैं? वैसे ही ये संस्कार शुभाशुभ कर्म और कर्मफल को उत्पन्न कर मनुष्य को इस लोक के राग और द्वेष? लाभ और हानि? आय और व्यय आदि प्रवृत्तियों के साथ बाँध देते हैं।अगले दो श्लोकों में इसका वर्णन किया गया है कि किस प्रकार हम इस संसार वृक्ष को काटकर इसके ऊर्ध्वमूल परमात्मा का अपने आत्मस्वरूप से अनुभव कर सकते हैं
15.2 The branches of that (Tree), extending down-wards and upwards, are strengthened by the alities and have sense-objects as their shoots. And the roots, which are followed by actions, spread down-wards in the human world [According to A.G. and M.S. manusya-loke means a body distinguished by Brahminhood etc.].
15.2 Below and above spread its branches, nourished by the Gunas; sense-objects are its buds; and below, in the world of men, stretch forth the roots, originating action.
15.2. Of which (Tree) the branches, spreading downward and upward, well developed with Strands, have sense objects as sprouts; also below in the human world are Its roots, stretching successively, having actions for their sub-knots.
15.2 अधः below? च and? ऊर्ध्वम् above? प्रसृताः spread? तस्य its? शाखाः branches? गुणप्रवृद्धाः nourished by the Gunas? विषयप्रवालाः senseobjects (are) its buds? अधः below? च and? मूलानि the roots? अनुसन्ततानि are stretched forth? कर्मानुबन्धीनि originating action? मनुष्यलोके in the world of men.Commentary The countless objects? large and small? which life needs are all products of the five elements through the activity of the alities. This tree of Samsara is nourished by the three alities of Nature. The senseobjects are its buds and the roots which grow downwards are the bonds of Karma for those who lead a life of passion and attachment in this world? who are under the sway of likes and dislikes. The sprouts of this marvellous tree are the charming objects of the senses with their characteristics of sound? touch? colour? taste and smell. The roots? the Karmic tendencies from the past lives? grow downwards to generate the bonds of Karma in the world of men. These roots strengthen the bondage by further actions.The primal root is ignorance from which arises the eightfold Nature -- the five elements? mind? intellect and egoism. From the stem of the tree spring four branches called Svedaja? Andaja?,Jarayuja and Udbhijja. Eightyfour lakhs (eight million and four hundred thousand) of species came into being.One branch shoots straight upwards. This is the branch of Dharma which yields the fruit of enjoyment in heaven. Another branch is the branch of dispassion which yields the fruit of Selfrealisation. The sun? the planets? the manes and the sages have also come out of this wonderful tree. Above them are the branches of the worlds of Indra and the gods. Still higher are those of the sages and the men of austerities and penance. Still higher is the Satyaloka where Hiranyagarbha dwells.From man down to the immovable objects below and from him up to the realm of the Creator above? whatever regions are attained in accordance with the nature of knowledge or action? they are the ramifying branches of the tree of Samsara. They are nurtured and fattened by the three Gunas which form their material base.The senseobjects such as sound? touch? colour? taste and smell represent the buds that sprout from the branches of the physical bodies which are the products of actions.The highest root of this wondeful tree is Brahman. The secondary roots are the latent impressions (Samskaras) of likes and dislikes? which spread in this world of men and impel them to perform virtuus and vicious actions and bind them fast to actions.Now listen to the way by which this tree can be cut off. Only he who thus cuts his bondage to this tree of Samsara can be happy even in this world. He has the highest wisdom because he stands as a spectator of this tree and knows it as it is? without being tied to it.
15.2 Sakhah, the branches, as it were; tasya, of that Tree; prasrtah, extending; adhah, downwards, from the human beings to the immobile (trees etc.); ca, and; urdhvam, upwards, upto Brahma-beginning from the Creator of the Cusmos to Dharma (Death) [According to A.G. human beings stands for the world of human beings, and Brahma for the world of Brahma (Satva-loka). So Dharma may mean the world of Death (pitr-loka).-Tr.], which, in accordance with their work and in conformity with their knowledge (Ka. 2.2.7), are the results of knowledge and actions; are guna-pravrddhah, strengthened, made stout, by the alities sattva, rajas and tamas, which are their materials; and visaya-pravalah, have the sense-objects as their shoots. The sense-objects (sound etc.) sprout, as it were, like new leaves from the branches (bodies etc.) which are the results of actions. Thery the branches are said to have sense-objects as their shoots. The supreme Root, the material cause of the Tree of the World, has been stated earlier. And now, the latent impressions of attraction, repulsion, etc. born of the results of action are the subsidiary roots, as it were, which grow later on and become the cause of involvement in righteousness and and unrighteousness. And those mulani, roots; karma-anubandhini, which are followed by actions; anu-santatani, spread, enter; adhah, downwards, as compared with the world of gods; manusya-loke, into the world of human beings particularly-for it is well known that (only) here men have competence for rites and duties. They (these roots) are said to be karma-anubandhini since actions (karma) that are characterized as righteous and unrighteous follow as their product (anubandha), (i.e.) succeed the rise of those (attraction, repulsion, etc.).
15.1-2 Urdhva-mulam etc. Adhas ca etc. In other scriptural texts it is delcared All is the holy Fig-tree; that alone is to be meditated upon. The present verse tells us this : What is intended by that declaration is only the religious meditation of the Brahman, the Bhagavat. Root : the one with a highly tranil nature. That is high (above) : Becasue it can be attained by him alone who has withdrawn himself from every other [lower] thing. The [Vedic] hymns are the leaves [of it] etc. : Just as the girth, height, the fruits and the taste etc. of a tree are indicated by its leaves, in the same fashion the idea of the Brahman-being is through the scriptures that are included in the Vedic hymns. This is what is narrated here. With Strands : i.e., with the Sattva etc. Well developed : i.e., starting from gods down to the stationary ones. Of this tree, the roots, that are below, are the good and bad actions.
15.2 The secondary roots of this tree having the main roots in the world of Brahman and its crest in men ramify below in the world of men. They bind them according to their Karma. The meaning is that the effects of acts causing bondag become roots in the world of men. For, the effect of actions done in the human state brings about the further condition of men, beasts etc., down below, and of divinities etc., up above.
The branches of this tree spread down (adhah) in the form of animals and others, and upward in the form of the birth of devatas and other elevated beings. These branches increase and increase by the watering, in the form of actions of the three gunas (guna pravrddha). The small twigs of the branches are the sense objects such as sound (visaya pravalah). Moreover, it can be inferred that, at the base of the tree, unknown to all people, is some great treasure. There are external roots from the branches of the asvattha, meaning in this case banyan tree, which is dependent for support on both the main root and the external roots. These secondary roots, the cause of continued action, spread out everywhere (anusantantani) below Brahmaloka (adhah), in the planet of humans. Karma anubandhini means that after enjoying the results of ones actions, those actions become stimulus for actions in another human birth.
The branches of this ancient banyan tree are the perishable jivas or embodied beings from Brahma the secondary creator who lives for trillions of years down to humans who may live for a hundred years down to an insect that may live only for some hours. All regardless of their span of life have their limiting adjuncts and restricted effects and represent the branches of this tree. Of those jivas who have the inclination for evil and demoniac activities their births will be in the reptile and insect species. Those jivas who are oblivious to their divine nature and act like beasts will correspondingly take birth in the animal kingdom and those jivas of virtuous and pious nature nature will take birth among the Brahmins, Vaisnavas and demigods. All jivas constitute the unlimited branches of this ancient banyan tree represented in the mundane material existence. Furthermore it should be understood that they are nutured by the three gunas or modes of goodness, passion and nescience according to their qualifications and propensities. The tips of the branches are the senses and the innumerable sprouts and shoots are the sense objects. The roots are spread out above and below with the central primary tap root representing the Supreme Lord alone with the roots below representing desires for enjoyment and the roots above representing subtle impressions of past enjoyments. The effects of such are specifird by the words karma anubandhani which refers to actions according to the proclivity to perform righteous or unrighteous activities which results in corresponding reactions some positive, some benign and some negative. When past reactions eventually have been finally exhausted the jiva once more takes birth in the world of humans directly related to the influence of the subtle impressions accumalated from enjoyments experienced in the previous lives and worlds which are the subtle motivating impetus for the inclinations and propensity to experience these activities again. The ability to experience these actions is limited to the worlds of humans alone and so Lord Krishna states manusya-loke meaning the world of men.
Since the unmanifest atma or immortal soul exists in an impreceptible sub- atomic form within the bodies of all jivas or embodied beings, they are described as spread upwards and downwards. The attributes are the modes of material nature, the three gunas of sattva or goodness, rajas or passion and tamas or ignorance. The pleasurable experiences are the sprouts and desires are the buds. The main central root is the divine resplendence representing the Supreme Lord and the subsidary roots are the results acquired due to following righteousness or unrighteousness. This is described in the Ballava section. In this ancient asvattha or banyan tree representing material existence the brahman or spiritual substratum pervading all existence as manifestation of the Supreme Lord is the primary and central root. The subsidary root is prakriti the material substratum pervading physical existence and the three gunas are its attributes. The elements earth, water, fire, air and ether are the branches and the leaves are the Vedic hymns. The demigods who administer universal management are the smaller branches and human beings are the twigs. From adherance or rejection of the injunctions and prohibitions defined in the Vedic scriptures do sweet and bitter fruits results which are the karmas or reactions to the previous actions one has performed. Righteous actions bestow pleasant rewards and unrighteous actions bestow unpleasant rewards. This ancient banyan tree rewards liberation and bondage as well depending upon the merit of righteousness enacted. It also has fruits, branches and roots that are unmanifest as well as those that are apparent and manifest. This does not otherwise come to happen neither does it not come not to happen. This means that the cause is enveloped in the effect and that the effect is containing the cause. In this way as a tiny seed contains an entire tree and a tree contains a tiny seed the roots and the branches are intertwined eternally.
The branches on this asvattha tree symbolise all the jivas or embodied beings who arise due to karma or reactions to actions. The downward branches symbolise humans, animals, plants, etc. and the upward branches symbolise the 300 million demigods administering universal management. All the branches are part of prakriti thematerial substratum pervading physical existence and all are nourished by the three gunas or three modes of material nature which are sattva or goodness, rajas or passion and tamas or ignorance. The sprouts on the branches symbolises desires for objects of the senses. This asvattha tree has its roots in Brahma-loka the highest material planet and its branches end in the worlds of humans but there the humans are constantly creating new rootlets which are the karmas acquired from performing actions which are enjoined and prohibited in the Vedic scriptures.The activities performed as jivas while in bodies of humans exclusively results in higher level or lower level births. By ignoring the injunctions and prohibitions of the Vedic scriptures the results are lower level births such as animals, reptiles, insects, plants. The adherance to the injunctions and prohibitions of the Vedic scriptures results in higher level births such as the demigods and also human births which still affords a jiva the golden opportunity to spiritually evolve and grow; sometimes even achieving moksa or liberation from material existence in their very next lifetime.
The branches on this asvattha tree symbolise all the jivas or embodied beings who arise due to karma or reactions to actions. The downward branches symbolise humans, animals, plants, etc. and the upward branches symbolise the 300 million demigods administering universal management. All the branches are part of prakriti thematerial substratum pervading physical existence and all are nourished by the three gunas or three modes of material nature which are sattva or goodness, rajas or passion and tamas or ignorance. The sprouts on the branches symbolises desires for objects of the senses. This asvattha tree has its roots in Brahma-loka the highest material planet and its branches end in the worlds of humans but there the humans are constantly creating new rootlets which are the karmas acquired from performing actions which are enjoined and prohibited in the Vedic scriptures.The activities performed as jivas while in bodies of humans exclusively results in higher level or lower level births. By ignoring the injunctions and prohibitions of the Vedic scriptures the results are lower level births such as animals, reptiles, insects, plants. The adherance to the injunctions and prohibitions of the Vedic scriptures results in higher level births such as the demigods and also human births which still affords a jiva the golden opportunity to spiritually evolve and grow; sometimes even achieving moksa or liberation from material existence in their very next lifetime.
Adhashchordhwam prasritaastasya shaakhaahGunapravriddhaa vishayapravaalaah; Adhashcha moolaanyanusantataaniKarmaanubandheeni manushyaloke.
adhaḥ—downward; cha—and; ūrdhvam—upward; prasṛitāḥ—extended; tasya—its; śhākhāḥ—branches; guṇa—modes of material nature; pravṛiddhāḥ—nourished; viṣhaya—objects of the senses; pravālāḥ—buds; adhaḥ—downward; cha—and; mūlāni—roots; anusantatāni—keep growing; karma—actions; anubandhīni—bound; manuṣhya-loke—in the world of humans