इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।15.20।।
।।15.20।। हे निष्पाप भारत इस प्रकार यह गुह्यतम शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया? इसको जानकर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है।।
।।15.20।। प्रस्तुत अध्याय के इस अन्तिम श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने अर्जुन को गुह्यतम ज्ञान का उपदेश दिया है। इस ज्ञान को गुह्य या रहस्य इस दृष्टि से नहीं कहा गया है कि इसका उपदेश किसी को नहीं देना चाहिये अभिप्राय यह है कि परमात्मा इन्द्रिय अगोचर होने के कारण कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा उसे अपनी बुद्धि से नहीं जान सकता है। अत वह उसके लिये रहस्य ही बना रहेगा। केवल एक शास्त्रज्ञ और आत्मानुभवी आचार्य के उपदेश से ही परमात्मज्ञान हो सकता है।हे निष्पाप वह कर्म? भावना या विचार? पाप कहलाता है? जिसको करने पर कालान्तर में हमारे मन में विक्षेप? पश्चाताप तथा आत्मग्लानि उत्पन्न होती है। इन के होने पर अन्तकरण में आत्मविचार करने के लिये आवश्यक सूक्ष्मता और सजगता नहीं रहती। अत इस सन्दर्भ में अर्जुन को निष्पाप कहकर संबोधित करना यह दर्शाता है कि वह आत्मज्ञान के योग्य है।अपने पुरुषोत्तम स्वरूप को जानने वाला पुरुष बुद्धिमान् बन जाता है। इसका अर्थ यह है कि इस ज्ञान के पश्चात् वह जीवन में वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को समझने में और कर्म से संबंधित निर्णय लेने में त्रुटि नहीं करता है। फलस्वरूप वह न स्वयं के लिये भ्रम और दुख उत्पन्न करता है और न ही समाज के अन्य व्यक्तियों के लिये।परमात्मा के ज्ञान का फल है कृतकृत्यता। मन में पूर्ण सन्तोष का वह भाव? जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर उदय होता है? कृतकृत्यता कहलाता है। तत्पश्चात् उस व्यक्ति के लिये न कोई प्राप्तव्य शेष रहता है और न कोई कर्तव्य। यह श्लोक उत्तम अधिकारियों को आत्मज्ञान के इस श्रेष्ठ फल का आश्वासन देता है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्याय।।