न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।
।।15.6।। उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन (संसार को) नहीं लौटते हैं? वह मेरा परम धाम है।।
।।15.6।। आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य है संसार में अपुनरावृत्ति। इसे विशेष बल देकर पूर्व के श्लोकों में प्रतिपादित किया गया था और इस श्लोक में पुन उसे दोहराया जा रहा है। धर्मशास्त्र के सभी ग्रन्थों में किसी विशेष सिद्धान्त पर बल देने के लिये पुनरुक्ति का ही प्रयोग किया जाता है। निसंदेह इस उपाय का सर्वत्र उपयोग नहीं किया जाता है। तर्क की परिसीमा में आने वाले प्रमेयों की सिद्धि केवल तर्कों के द्वारा ही की जा सकती है। परन्तु आत्मज्ञान का क्षेत्र इन्द्रिय अगोचर होने से प्रारम्भ में केवल आचार्य का ही वहाँ प्रवेश होता है? शिष्यों का नहीं। अत अज्ञात अनन्तस्वरूप के अनुभव के सम्बन्ध में शिष्यों को विश्वास कराने का एकमात्र उपाय पुनरुक्ति ही है? जिसका उपयोग ऋषियों ने अपने उपदेशों में किया है।सम्पूर्ण गीता में इस गौरवमयी पूर्णत्व की स्थिति को साधकों की परा गति के रूप में इंगित किया गया है। यद्यपि यह स्थिति मन और वाणी के परे हैं? तथापि उसे इंगित करने का यहाँ समुचित प्रयत्न किया गया है।सूर्य? चन्द्र और अग्नि उसे प्रकाशित नहीं कर सकते हैं। यहाँ प्रकाश के उन स्रोतों का उल्लेख किया गया है जिनके प्रकाश में हमारे चर्मचक्षु दृश्य वस्तु को देख पाते हैं। वस्तु को देखने का अर्थ उसे जानना है और किसी वस्तु को देखने के लिए वस्तु का नेत्रों के समक्ष होना तथा उसका प्रकाशित होना भी आवश्यक है। प्रकाश के माध्यम में ही नेत्र रूप और रंग को देख सकते हैं। इसी प्रकार? हम अन्य इन्द्रियों के द्वारा शब्द? स्पर्श? रस और गन्ध को? तथा मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भावनाओं और विचारों को भी जानते हैं। जिस प्रकाश से हमें इन सबका भान होकर बोध होता है? वह चैतन्य का प्रकाश है।यह चैतन्य का प्रकाश भौतिक जगत् के प्रकाश के स्रोतोंसूर्य? चन्द्र और अग्निके द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा सकता। वस्तुत ये सभी प्रकाश के स्रोत चैतन्य के दृश्य विषय है। यह नियम है कि दृश्य अपने द्रष्टा को प्रकाशित नहीं कर सकता तथा कभी भी और किसी भी स्थान पर द्रष्टा और दृश्य एक नहीं हो सकते। जिस चैतन्य के द्वारा हम अपने जीवन के सुखदुखादि अनुभवों को जानते हैं वह चैतन्य ही सनातन आत्मा है और इसे ही भगवान् अपना परम धाम कहते हैं। यही जीवन का परम लक्ष्य है।वह मेरा परम धाम है यहाँ धाम शब्द से तात्पर्य स्वरूप से है? न कि किसी स्थान विशेष से। पूर्व श्लोक में वर्णित गुणों से सम्पन्न साधक ध्यानाभ्यास के द्वारा मन और बुद्धि के विक्षेपों से परे परमात्मा के धाम में पहुँचकर सत्य से साक्षात्कार का समय निश्चित कर अनन्तस्वरूप ब्रह्म से भेंट कर सकता है।हम सब लोग उपयोगितावादी है। अत हम पहले ही जानना चाहते हैं कि क्या सत्य का अनुभव इतने अधिक परिश्रम के योग्य है क्या उसे प्राप्त कर लेने के पश्चात् पुन इस दुखपूर्ण संसार में लौटने की आशंका या संभावना नहीं है यह भय निर्मूल है। भगवान् श्रीकृष्ण पुन तीसरी बार हमें आश्वासन देते हैं? मेरा परम धाम वह है जहाँ पहुँचने पर साधक पुन लौटता नहीं है।यह सर्वविदित तथ्य है कि ज्ञान की किसी शाखाविशेष में प्रवीणता प्राप्त कर लेने के पश्चात् उस प्रवीण पुरुष द्वारा अपने ज्ञान में त्रुटि करना प्राय असंभव हो जाता है। किसी महान् संगीतज्ञ का जानबूझकर राग और ताल में त्रुटि करना उतना ही कठिन है? जितना कि एक नवशिक्षित गायक का सुस्वर में गायन। कोई भाषाविद् पुरुष अपने संभाषण में व्याकरण की त्रुटियाँ नहीं कर सकता। यदि लौकिक जगत् के अपूर्ण ज्ञान के क्षेत्र में भी एक सुसंस्कृत? शिक्षित और कलाकार पुरुष पुन असभ्य और अशिक्षित पुरुष के स्तर तक नहीं गिरता है? तो एक पूर्ण ज्ञानी पुरुष का पुन अज्ञानजनित भ्रान्तियों को लौटना कितना असंभव होगा विश्व के आध्यात्मिक साहित्य का यह एक अत्यन्त विरल श्लोक है? जिसमें इतनी सरल शैली में निरुपाधिक? शुद्ध परमात्मा का इतना स्पष्ट निर्देश किया गया है।हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार? जीव एक देह का त्याग करने के पश्चात् अपने कर्मों के अनुसार पुन नवीन देह धारण करता है। ये शरीर देवता? मनुष्य? पशु आदि के हो सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एक देह को त्यागने पर जीव का मोक्ष न होकर वह पुन संसार को ही प्राप्त होता है। परन्तु? इस श्लोक में तो यह कहा गया है? जहाँ पहुँचकर जीव पुन लौटता नहीं? वह मेरा परम धाम है। अत यहाँ इन दोनों सिद्धान्तों में विरोध प्रतीत होता है।इस विरोध का परिहार करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोकों में जीव के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं