ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।
।।15.7।। इस जीव लोक में मेरा ही एक सनातन अंश जीव बना है। वह प्रकृति में स्थित हुआ (देहत्याग के समय) पाँचो इन्द्रियों तथा मन को अपनी ओर खींच लेता है अर्थात् उन्हें एकत्रित कर लेता है।।
।।15.7।। अनन्तवस्तु अवयव रहित होने के कारण अखण्ड और अविभाज्य है। तथापि उपाधियों के सम्बन्ध से उसमें खण्ड और विभाग होने का आभास निर्माण हो सकता है। जिस प्रकार सर्वगत आकाश का कोई आकार नहीं है? तथापि घट उपाधि से अवच्छिन्न होकर बना घटाकाश बाह्य महाकाश से भिन्न प्रतीत होता है।इसी प्रकार देहेन्द्रियादि से अवच्छिन्न (मर्यादित? सीमित) आत्मा जीव के रूप में आत्मा से भिन्न प्रतीत होता है। अथवा? जैसे आकाश में स्थित चन्द्रमा एक पात्र में स्थित जल में प्रतिबिम्बित होता है और वह प्रतिबिम्ब जल की स्थिति के अनुसार स्थिर या विच्छिन्न होता रहता है किन्तु प्रतिबिम्ब के छिन्नभिन्न होने का प्रभाव आकाशस्थ चन्द्रमा पर नहीं पड़ता। इसी प्रकार? मनबुद्धि रूप सूक्ष्म शरीर में व्यक्त चैतन्य जीव कहलाता है। अन्तकरण की वृत्तियों के अनुसार यह जीव स्वयं को सुखीदुखी? संसारी अनुभव करता है? किन्तु उसका शुद्ध चैतन्य स्वरूप सदा अविकारी ही रहता है? जो सनातन कहा गया है।उपर्युक्त विवेचन का तात्पर्य यह है कि आत्मा को प्राप्त हुआ जीवत्व अज्ञान के कारण है। अत वह जीवत्व आभासिक है? वास्तविक नहीं जैसे आकाश का एकदेशीयत्व और चन्द्रमा का प्रतिबिम्बित्व। अज्ञान का नाश हो जाने पर जीव स्वत आत्मस्वरूप बन जाता है। तत्पश्चात् ज्ञान की उपस्थिति में अज्ञान पुन नहीं लौटता? तब जीव का संसार में पुनरागमन होने का कारण ही नहीं रह जाता है। इसलिए? पूर्व श्लोक में कहा गया था कि भगवान् के परम धाम को प्राप्त हुये जीव पुन संसार को नहीं लौटते हैं। इसका पूर्व जन्म के सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं है? क्योंकि जब तक अज्ञान बना रहता है? तब तक जीव का भी अस्तित्व बने रहने के कारण उसका पुनर्जन्म सद्ध हो सकता है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति का सम्बन्ध अगले श्लोक से है। इसमें देहत्याग के समय जीव का कार्य बताया गया है।यह स्थूल शरीर जड़ है और इसमें चैतन्य को व्यक्त करने की सार्मथ्य नहीं है। ज्ञानेन्द्रियाँ और अन्तकरण (मन और बुद्धि) सूक्ष्म शरीर कहलाते हैं। यद्यपि यह सूक्ष्म शरीर भी जड़ है? किन्तु इसमें चैतन्य व्यक्त हो सकता है। यह चेतन सूक्ष्म शरीर ही जीव है? जो किसी देह को धारण कर उसे चेतनता प्रदान करता है। यह जीव प्रकृतिस्थ इन्द्रियाँ तथा मन अर्थात् अन्तकरण को एकत्र कर लेता है। यहाँ प्रकृति का अर्थ है स्थूल शरीर में स्थित नेत्र? श्रोत्र आदि इन्द्रिय गोलक। यही कारण कि मृत देह में यह गोलक तो रह जाते हैं? परन्तु उनमें विषय ग्रहण की कोई सार्मथ्य नहीं होती।किस समय यह जीव इन इन्द्रियादि को अपने में समेट लेता है भगवान् कहते हैं