शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।15.8।।
।।15.8।।जैसे वायु गन्धके स्थानसे गन्धको ग्रहण करके ले जाती है? ऐसे ही शरीरादिका स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीरको छोड़ता है? वहाँसे मनसहित इन्द्रियोंको ग्रहण करके फिर जिस शरीरको प्राप्त होता है? उसमें चला जाता है।
।।15.8।। जब (देहादि का) ईश्वर (जीव) (एक शरीर से) उत्क्रमण करता है? तब इन (इन्द्रियों और मन) को ग्रहण कर अन्य शरीर में इस प्रकार ले जाता है? जैसे गन्ध के आश्रय (फूलादि) से गन्ध को वायु ले जाता है।।