आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्।।16.12।।
।।16.12।।वे आशाकी सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए मनुष्य कामक्रोधके परायण होकर पदार्थोंका भोग करनेके लिये अन्यायपूर्वक धनसंचय करनेकी चेष्टा करते रहते हैं।
।।16.12।। सैकड़ों आशापाशों से बन्धे हुये? काम और क्रोध के वश में ये लोग विषयभोगों की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक धन का संग्रह करने के लिये चेष्टा करते हैं।।
।।16.12।। व्याख्या -- आशापाशशतैर्बद्धाः -- आसुरी सम्पत्तिवाले मनुष्य आशारूपी सैकड़ों पाशोंसे बँधे रहते हैं अर्थात् उनको इतना धन हो जायगा? इतना मान हो जायगा? शरीरमें नीरोगता आ जायगी आदि सैकड़ों आशाओंकी फाँसियाँ लगी रहती हैं। आशाकी फाँसीसे बँधे हुए मनुष्योंके पास लाखोंकरोड़ों रुपये हो जायँ? तो भी उनका मँगतापन नहीं मिटता उनकी तो यही आशा रहती है कि सन्तोंसे कुछ मिल जाय? भगवान्से कुछ मिल जाय? मनुष्योंसे कुछ मिल जाय। इतना ही नहीं पशुपक्षी? वृक्षलता? पहाड़समुद्र आदिसे भी हमें कुछ मिल जाय। इस प्रकार उनमें सदा खाऊँखाऊँ बनी रहती है। ऐसे व्यक्तियोंकी सांसारिक आशाएँ कभी पूरी नहीं होतीं (गीता 9। 12)। यदि पूरी हो भी जायँ? तो भी कुछ फायदा नहीं है क्योंकि यदि वे जीते रहेंगे? तो आशावाली वस्तु नष्ट हो जायगी और आशावाली वस्तु रहेगी? तो वे मर जायँगे अथवा दोनों ही नष्ट हो जायँगे।जो आशारूपी फाँसीसे बँधे हुए हैं? वे कभी एक जगह स्थिर नहीं रह सकते और जो इस आशारूपी फाँसीसे छूट गये हैं? वे मौजसे एक जगह रहते हैं -- आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यश्रृङ्खला। यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत्।।कामक्रोधपरायणाः -- उनका परम अयन? स्थान काम और क्रोध ही होते हैं (टिप्पणी प0 819.3) अर्थात् अपनी कामनापूर्तिके करनेके लिये और क्रोधपूर्वक दूसरोंको कष्ट देनेके लिये ही उनका जीवन होता है। कामक्रोधके परायण मनुष्योंका यह निश्चय रहता है कि कामनाके बिना मनुष्य जड हो जाता है। क्रोधके बिना उसका तेज भी नहीं रहता। कामनासे ही सब काम होता है? नहीं तो आदमी काम करे ही क्यों कामनाके बिना तो आदमीका जीवन ही भार हो जायगा। संसारमें काम और क्रोध ही तो सार चीज है। इसके बिना लोग हमें संसारमें रहने ही नहीं देंगे। क्रोधसे ही शासन चलता है? नहीं तो शासनको मानेगा ही कौन क्रोधसे दबाकर दूसरोंको ठीक करना चाहिये? नहीं तो लोग हमारा सर्वस्व छीन लेंगे। फिर तो हमारा अपना कुछ अस्तित्व ही नहीं रहेगा? आदि।ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् -- आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्योंका उद्देश्य धनका संग्रह करना और विषयोंका भोग करना होता है। इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिये वे बेईमानी? धोखेबाजी? विश्वासघात? टैक्सकी चोरी आदि करके दूसरोंका हक मारकर मन्दिर? बालक? विधवा आदिका धन दबाकर और इस तरह अनेक अन्यान्य पाप करके धनका संचय करना चाहते हैं। कारण कि उनके मनमें यह बात गहराईसे बैठी रहती है कि आजकलके जमानेमें ईमानदारीसे? न्यायसे कोई धनी थोड़े ही हो सकता है ये जितने धनी हुए हैं? सब अन्याय? चोरी? धोखेबाजी करके ही हुए हैं। ईमानदारीसे? न्यायसे काम करनेकी जो बात है? वह तो कहनेमात्रकी है काममें नहीं आ सकती। यदि हम न्यायके अनुसार काम करेंगे? तो हमें दुःख पाना पड़ेगा और जीवनधारण करना मुश्किल हो जायगा। ऐसा उन आसुर स्वभाववाले व्यक्तियोंका निश्चय होता है।जो व्यक्ति न्यायपूर्वक स्वर्गके भोगोंकी प्राप्तिके लिये लगे हुए हैं उनके लिये भी भगवान्ने कहा है कि उन लोगोंकी बुद्धिमें हमें परमात्माकी प्राप्ति करना है यह निश्चय हो ही नहीं सकता (गीता 2। 44)। फिर जो अन्यायपूर्वक धन कमाकर प्राणोंके पोषणमें लगे हुए हैं? उनकी बुद्धिमें परमात्मप्राप्तिका निश्चय कैसे हो सकता है परन्तु वे भी यदि चाहें तो परमात्मप्राप्तिका निश्चय करके साधनपरायण हो सकते हैं। ऐसा निश्चय करनेके लिये किसीको भी मना नहीं है क्योंकि मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। सम्बन्ध -- आसुर स्वभाववाले व्यक्ति लोभ? क्रोध और अभिमानको लेकर किस प्रकारके मनोरथ किया करते हैं? उसे क्रमशः आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं।
।।16.12।। आसुरी लोगों के स्वभाव को अधिक स्पष्ट करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में उनके कार्य कलापों का वर्णन करते हैं। सैकड़ों आशापाशों से बन्धे हुए पुरुष की मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं का ह्रास होता रहता है। फिर वह अशान्त पुरुष प्रत्येक वस्तु? व्यक्ति और घटना के साथ अपने धैर्य को खोकर अपने विवेक और मानसिक सन्तुलन को भी खो देता है। उत्तेजना और सतत असन्तोष से ग्रस्त यह पुरुष काम और क्रोध के वशीभूत हो जाता है। कामना के अतृप्त या अवरुद्ध होने पर क्रोध उत्पन्न होना निश्चित है। कामना की पूर्ति के लिए वह संघर्ष करता है? परन्तु प्रतिस्पर्धा से पूर्ण इस जगत् में सदैव इष्ट प्राप्ति होना असंभव है और ऐसी परिस्थति में उसकी कामना उन्मत्त और उद्वेगपूर्ण क्रोध में परिवर्तित हो जाती है।ईहन्ते अथक परिश्रम के द्वारा वे अपनी नित्य वर्धमान कामना को सन्तुष्ट करने में प्रयत्नशील होते हैं। भोग के लिए विषयों का परिग्रह आवश्यक होता है। वे शान्ति और सुख को खोजने के स्थान पर उस एक संज्ञाविहीन तृष्णा को तृप्त करने का प्रयत्न करते रहते हैं? जो कि एक दीर्घकालीन असाध्य रोग के समान होती है। अपनी मनप्रवृत्तियों का निरीक्षण? अध्ययन एवं यथार्थ निर्णय पर पहुँचने के लिए आवश्यक मनसन्तुलन का उनमें सर्वथा अभाव होता है। इच्छापूर्ति की विक्षिप्त भागदौड़ में वे जीवन के दिव्यतत्त्व से पराङ्मुख हो जाते हैं और सत्यासत्य के विवेक की भी उपेक्षा करते हैं। कामना से प्रेरित होने पर वे अन्यायपूर्वक अर्थ का संचय करने में व्यस्त हो जाते हैं।यद्यपि आसुरी लोगों के इन लक्षणों को पाँच हजार वर्षों पूर्व लिखा गया था? परन्तु आश्चर्य है कि इस खण्ड को पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है? मानो यह आज के युग की कटु किन्तु सत्य आलोचना है इस प्रकार? यदि गीता के विद्यार्थी आज के गौरवशाली विज्ञान? भौतिक समृद्धि? लौकिक उपलब्धि और राजनीतिक मुक्ति के युग का परीक्षण करें? तो इस युग को आसुरी श्रेणी में ही मान्यता प्राप्त होगी। औद्योगिक संस्थानों के व्यापक प्रसार के चीखते हुए भोपुओं की कर्णकटु ध्वनि और आधुनिक वैज्ञानिक अस्त्रों के भयानक धमाके के मध्य तथा हमारे द्वारा आविष्कृत स्वविनाश की प्राकृतिक शक्तियों के कोलाहल में? हम भले ही सुदूर काल के ज्ञानी पुरुषों के द्वारा उद्घोषित सत्य की ओर ध्यान न दें? किन्तु गीता के निष्ठावान विद्यार्थी उन घोषणाओं की अकाट्य सत्यता को प्रत्यक्ष देखते हैं? और स्वभावत अपने युग के प्रति उनका मन उदास हो जाता है।उन पुरुषों के विचार इस प्रकार होते हैं
16.12 Bound by hundreds of shackles in the form of hope, giving themselves wholly to passion and anger, they endeavour to amass wealth through foul means for the enjoyment of desirable objects.
16.12 Bound by a hundred ties of hope, given over to lust and anger, they strive to obtain by unlawful means hoards to wealth for sensual enjoyments.
16.12. Being bound by hundreds of ropes of longing; and being devoted to their desire and anger, they seek, by unjust means, hoards with wealth, for the purpose of the gratification of their desires.
16.12 आशापाशशतैः by a hundred ties of hope? बद्धाः bound? कामक्रोधपरायणाः given over to lust and anger? ईहन्ते (they) strive (to attain)? कामभोगार्थम् for sensual enjoyment? अन्यायेन by unlawful means? अर्थसञ्चयान् hoards of wealth.Commentary They murder people and rob them of their wealth in order to have sensual enjoyments. They amass wealth for sensepleasure only? but not for doing righteous actions. They have no mercy. They are very cruel. They are held in bondage by a hundred ties of expectation. They harbour in their hearts a craving for all kinds of sensual objects. Various sorts of desires crop up in their mind. When their desires are not gratified they become furious. They acire wealth by unjust means. Hope or expectation binds a man to the wheel of Samsara.,Therefore hope is likened to a cord or a rope. There is no end to their cravings. Though they possess enormous wealth their cravings are not appeased. They multiply daily. These people become hopeless victims of greed.
16.12 Baddhah, bound, being impelled, being lured from all sides; asa-pasa-sataih, by hundreds of shackles in the from of hope-the hopes themselves are the shackles; by hundreds of these; kama-krodha-parayanah, giving themselves wholly to passion and anger, having passion and anger as their highest resort; ihante, they endeavour; artha-sancayan, to amass wealth; anyayena, through foul means, i.e. by stealing others wealth, etc.; kama-bhoga-artham, for the enjoyment of desirable objects-in order to enjoy desirable objects, not for righteous acts. Their intentions, too, are of this kind:
16.9-12 Etam etc. upto arthasancayam : Their anxiety ends only at the time of dissolution i.e. never ceases, becaue the rise and dissolution never end. This much alone : For them the highest goal to be achieved is but the gratification of desires, and when this (aim) is just ruined, there arises anger. Hence the Lord says Devoted to their craving and anger.
16.12 They are bound by hundreds of fetters of hope, viz., bound by hundreds of fetters in the form of hope. They are given over to desire and anger, viz., they are intent solely on desire and anger. To satisfy their sensual desires, they endeavour for wealth through immortal means.
The demoniac who are excessively greedy take on gargantuan undertakings in pursuing and increasing their avarice and power. Yet they are always full of anxiety and under pressure to maintain what they have gained and are filled with immense anxiety and constant worry which they carry with them to their very graves at the time of death. Lord Krishna explains that infatuated by illusion the demoniac incessantly pursue the objects of the senses foolishly thinking that this is the main goal of existence and that there is nothing else of more value. So to have the ability to fully exploit all forms of sense gratification the demoniac manipulate themselves surreptitiously into all areas of power and contrive to the utmost to control by deceptive, dishonest and despicable means as much wealth as possible. Such devious depravity is the demoniacs own undoing and they themselves are deceived and cheated by maya the illusory energy which makes them think what is false is real. Hence the demoniac shackle and bind themselves by their innumerable desires which enslaves them by their own expectations propelled by lust and greed. As the aphorism from sage Brihaspati states: Sensual enjoyment is detriment of men who consider the physical body the self, oblivious of the fact that the physical body is endowed with the atma or immortal soul.
Although death is waiting patiently for their demise at any moment; to carry them off to hellish worlds of great suffering; Lord Krishna explains that the demoniac are so involved in the deception of their material manipulations for planetary power and control of planetary wealth which they amass to the maximum that they become oblivious to the existence of a higher reality. The demoniac are deceived in the vastness of their own schemes and undertakings which consumes all of their time as they are constantly endeavouring to keep their power intact. Simultaneously the demoniac are pursuing their lusts for sense gratification with full power imagining that it constitutes the apex of success as the highest ambition of all existence. The demoniac are so completely deluded that they believe that enjoying the objects of the senses is the final goal of all hopes and dreams with no conception more advanced than this. In this way they deceive and fully shackle themselves in bondage by the illusion of their own hopes and expectations which keeps them bound inexorably in perdition.
Although death is waiting patiently for their demise at any moment; to carry them off to hellish worlds of great suffering; Lord Krishna explains that the demoniac are so involved in the deception of their material manipulations for planetary power and control of planetary wealth which they amass to the maximum that they become oblivious to the existence of a higher reality. The demoniac are deceived in the vastness of their own schemes and undertakings which consumes all of their time as they are constantly endeavouring to keep their power intact. Simultaneously the demoniac are pursuing their lusts for sense gratification with full power imagining that it constitutes the apex of success as the highest ambition of all existence. The demoniac are so completely deluded that they believe that enjoying the objects of the senses is the final goal of all hopes and dreams with no conception more advanced than this. In this way they deceive and fully shackle themselves in bondage by the illusion of their own hopes and expectations which keeps them bound inexorably in perdition.
Aashaapaashashatairbaddhaah kaamakrodhaparaayanaah; Eehante kaamabhogaartha manyaayenaarthasanchayaan.
āśhā-pāśha—bondage of desires; śhataiḥ—by hundreds; baddhāḥ—bound; kāma—lust; krodha—anger; parāyaṇāḥ—dedicated to; īhante—strive; kāma—lust; bhoga—gratification of the senses; artham—for; anyāyena—by unjust means; artha—wealth; sañchayān—to accumulate