असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।16.14।।
।।16.14।। यह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया है और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा? मैं ईश्वर हूँ और भोगी हूँ? मैं सिद्ध पुरुष हूँ? मैं बलवान और सुखी हूँ।।
।।16.14।। इस श्लोक का अनुवाद ही इसकी व्याख्या भी है और बहुसंख्यक लोगों के जीवन की भी यही व्याख्या है सारांशत? यह अभिमानी जीव की सफलता का गीत है? जिसे एक नितान्त आसुरी पुरुष अपने मन में सदैव गुनगुनाता रहता है। इस आसुरी लोरी के मादक प्रभाव में? मनुष्य के श्रेष्ठ और दिव्य संस्कार उन्माद की निद्रा में लीन हो जाते हैं।एक भौतिकवादी पुरुष की स्वयं के विषय में क्या धारणा होती है सुनो