आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।।
।।16.15।।हम धनवान् हैं? बहुतसे मनुष्य हमारे पास हैं? हमारे समान और कौन है हम खूब यज्ञ करेंगे? दान देंगे और मौज करेंगे -- इस तरह वे अज्ञानसे मोहित रहते हैं।
।।16.15।। मैं धनवान् और श्रेष्ठकुल में जन्मा हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है?मैं यज्ञ करूंगा? मैं दान दूँगा? मैं मौज करूँगा इस प्रकार के अज्ञान से वे मोहित होते हैं।।
।।16.15।। व्याख्या -- आसुर स्वभाववाले व्यक्ति अभिमानके परायण होकर इस प्रकारके मनोरथ करते हैं, -- आढ्योऽभिजनवानस्मि -- कितना धन हमारे पास है कितना सोनाचाँदी? मकान? खेत? जमीन हमारे पास है कितने अच्छे आदमी? ऊँचे पदाधिकारी हमारे पक्षमें हैं हम धन और जनके बलपर? रिश्वत और सिफारिशके बलपर जो चाहें? वही कर सकते हैं।कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया -- आप इतने घूमेफिरे हो? आपको कई आदमी मिले होंगे पर आप बताओ? हमारे समान आपने कोई देखा है क्या यक्ष्ये दास्यामि -- हम ऐसा यज्ञ करेंगे? ऐसा दान करेंगे कि सबपर टाँग फेर देंगे थोड़ासा यज्ञ करनेसे? थोड़ासा दान देनेसे? थोड़ेसे ब्राह्मणोंको भोजन कराने आदिसे क्या होता है हम तो ऐसे यज्ञ? दान आदि करेंगे? जैसे आजतक किसीने न किये हों। क्योंकि मामूली यज्ञ? दान करनेसे लोगोंको क्या पता लगेगा कि इन्होंने यज्ञ किया? दान दिया। बड़े यज्ञ? दानसे हमारा नाम अखबारोंमें निकलेगा। किसी धर्मशालामें मकान बनवायेंगे? तो उसमें हमारा नाम खुदवाया जायेगा? जिससे हमारी यादगारी रहेगी। मोदिष्ये -- हम कितने बड़े आदमी हैं हमें सब तरहसे सब सामग्री सुलभ है अतः हम आनन्दसे मौज करेंगे।इस प्रकार अभिमानको लेकर मनोरथ करनेवाले आसुर लोग केवल करेंगे? करेंगे -- ऐसा मनोरथ ही करते रहते हैं? वास्तवमें करतेकराते कुछ नहीं। वे करेंगे भी? तो वह भी नाममात्रके लिये करेंगे (जिसा उल्लेख आगे सत्रहवें श्लोकमें आया है)। कारण कि इत्यज्ञानविमोहिताः -- इस प्रकार तेरहवें? चौदहवें और पन्द्रहवें श्लोकमें वर्णित मनोरथ करनेवाले आसुर लोग अज्ञानसे मोहित रहते हैं अर्थात् मूढ़ताके कारण ही उनकी ऐसे मनोरथवाली वृत्ति होती है। सम्बन्ध -- परमात्मासे विमुख हुए आसुरी सम्पदावालोंको जीतेजी अशान्ति? जलन? संताप आदि तो होते ही हैं? पर मरनेपर उनकी क्या गति होती है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।16.15।। अज्ञान और उससे उत्पन्न विपरीत ज्ञान से मोहित तथा गर्व और मद से उन्मत्त आसुरी पुरुष जगत् की ओर इसी भ्रामक दृष्टि से देखता है। ऐसी स्थिति में स्वयं का तथा जगत् के साथ अपने संबंध का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करना स्वाभाविक ही है। उसे अपने धन? वैभव और कुल का इतना अभिमान होता है कि वह अपने समक्ष सभी को तुच्छ समझता है। स्वयं ही समाज से बहिष्कृत होकर वह मिथ्या अभिमान के महल में रहता है और असंख्य प्रकार की मानसिक यातनाओं का कष्ट भी भोगता रहता है। उसकी महत्त्वाकांक्षा यह होती है कि यज्ञादि के द्वारा वह देवताओं पर भी शासन करे और दान के द्वारा सम्पूर्ण जगत् का क्रय कर ले। इस प्रकार? सम्मानित और पूजित होकर मैं मौज करूँगा। वे अज्ञान के गर्त में पड़े हुए आसुरी पुरुष के कुछ अत्यन्त विक्षिप्ततापूर्ण कथन हैं।उपर्युक्त तीन श्लोकों का सारांश बताते हुए कहते हैं