अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।
।।16.16।।कामनाओंके कारण तरहतरहसे भ्रमित चित्तवाले? मोहजालमें अच्छी तरहसे फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगोंमें अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्य भयङ्कर नरकोंमें गिरते हैं।
।।16.16।। अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले? मोह जाल में फँसे तथा विषयभोगों में आसक्त ये लोग घोर? अपवित्र नरक में गिरते हैं।।
।।16.16।। व्याख्या -- अनेकचित्तविभ्रान्ताः -- उन आसुर मनुष्योंका एक निश्चय न होनेसे उनके मनमें अनेक तरहकी चाहना होती है? और उस एकएक चाहनाकी पूर्तिके लिये अनेक तरहके उपाय होते हैं तथा उन उपायोंके विषयमें उनका अनेक तरहका चिन्तन होता है। उनका चित्त किसी एक बातपर स्थिर नहीं रहता? अनेक तरहसे भटकता ही रहता है।मोहजालसमावृताः -- जडका उद्देश्य होनेसे वे मोहजालसे ढके रहते हैं। मोहजालका तात्पर्य है कि तेरहवेंसे पन्द्रहवें श्लोकतक काम? क्रोध और अभिमानको लेकर जितने मनोरथ बताये गये हैं? उन सबसे वे अच्छी तरहसे आवृत रहते हैं अतः उनसे वे कभी छूटते नहीं। जैसे मछली जालमें फँस जाती है? ऐसे ही वे प्राणी मनोरथरूप मोहजालमें फँसे रहते हैं। उनके मनोरथोंमें भी केवल एक तरफ ही वृत्ति नहीं होती? प्रत्युत दूसरी तरफ भी वृत्ति रहती है जैसे -- इतना धन तो मिल जायगा? पर उसमें अमुकअमुक बाधा लग जायगी तो हमारे पास दो नम्बरकी इतनी पूँजी है? इसका पता राजकीय अधिकारियोंको लग जायगा तो हमारे मुनीम? नौकर आदि हमारी शिकायत कर देंगे तो हम अमुक व्यक्तिको मार देंगे? पर हमारी न चली और दशा विपरीत हो गयी तो हम अमुकका नुकसान करेंगे? पर उससे हमारा नुकसान हो गया तो -- इस प्रकार मोहजालमें फँसे हुए आसुरी सम्पदावालोंमें काम? क्रोध और अभिमानके साथसाथ भय भी बना रहता है। इसलिये वे निश्चय नहीं कर पाते। कहींपर जाते हैं ठीक करनेके लिये? पर हो जाता है बेठीक मनोरथ सिद्ध न होनेसे उनको जो दुःख होता है? उसको तो वे ही जानते हैंप्रसक्ताः कामभोगेषु -- वस्तु आदिका संग्रह करने और उसका उपभोग करनेमें तथा मानबड़ाई? सुखआराम आदिमें वे अत्यन्त आसक्त रहते हैं।पतन्ति नरकेऽशुचौ -- मोहजाल उनके लिये जीतेजी ही नरक है और मरनेके बाद उन्हें कुम्भीपाक? महारौरव आदि स्थानविशेष नरकोंकी प्राप्ति होती है। उन नरकोंमें भी वे घोर यातनावाले नरकोंमें गिरते हैं। नरके अशुचौ कहनेका तात्पर्य यह है कि जिन नरकोंमें महान् असह्य यातना और भयंकर दुःख दिया जाता है? ऐसे घोर नरकोंमें वे गिरते हैं (टिप्पणी प0 822) क्योंकि जिनकी जैसी स्थिति होती है? मरनेके बाद भी उनकी वैसी (स्थितिके अनुसार) ही गति होती है। सम्बन्ध -- भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे विमुख हुए आसुरीसम्पदावालोंके दुराचारोंका फल नरकप्राप्ति बताकर? दुराचारोंद्वारा बोये गये दुर्भावोंसे वर्तमानमें उनकी कितनी भयंकर दुर्दशा होती है और भविष्यमें उसका क्या परिणाम होता है -- इसे बतानेके लिये आगेका (चार श्लोकोंका) प्रकरण आरम्भ करते हैं।
।।16.16।। अनेकचित्त विभ्रान्ता आत्मकेन्द्रित और विषयासक्त पुरुष का मन सदैव अस्थिर रहता है। अनेक प्रकार की भ्रामक कल्पनाओं में वह अपनी मन की एकाग्रता की क्षमता को क्षीण कर लेता है।मोहजाल समावृता यदि ऐसे आसुरी पुरुष का मन सारहीन स्वप्नों में बिखरा होता है? तो उसकी बुद्धि की स्थिति भी दयनीय ही होती है। विवेक और निर्णय की उसकी क्षमता मोह और असत् मूल्यों में फँस जाती है। आश्रियविहीन बुद्धि किस प्रकार उचित निर्णय और जीवन का सही मूल्यांकन कर सकती है ऐसे दोषपूर्ण मन और बुद्धि के द्वारा जगत् का अवलोकन करने पर सर्वत्र विषमता और विकृति के ही दर्शन होंगे? समता और संस्कृति के नहीं।विषयों में आसक्त जिस पुरुष की बुद्धि मोह से आच्छादित हो और मन विक्षेपों से अशान्त हो? तो उसकी इन्द्रियाँ भी असंयमित ही होंगी। यदि कार की चालकशक्ति ही मदोन्मत्त हो? तो कार की गति भी संयमित नहीं हो सकती। इस लिए? ऐसे आसुरी स्वभाव के पुरुष विषयभोगों में अत्यधिक आसक्त हो,जाते हैं।वे अपवित्र नरक में गिरते हैं शरीर से थके? मन से भ्रमित और बुद्धि से विचलित ये लोग यहीं पर स्वनिर्मित नरक में रहते हैं तथा अपने दुख और कष्ट सभी को वितरित करते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए हमें कोई महान् दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य में यह सार्मथ्य है कि वह समता के दर्शन से नरक को स्वर्ग में परिवर्तित कर सकता है और विषमता के दर्शन से स्वर्ग को नरक भी बना सकता है। अयुक्त व्यक्तित्व का पुरुष किसी भी स्थिति में शान्ति और पूर्णता का अनुभव नहीं करता। यदि समस्त वातावरण और परिस्थितियाँ अनुकूल भी हों? तो वह अपनी आन्तरिक पीड़ा और दुख के द्वारा उन्हें प्रतिकूल बना देता है।यदि इन आसुरी गुणों से युक्त केवल एक व्यक्ति भी सुखद परिस्थितियों को दुखद बना सकता है? तो हम उस जगत् की दशा की भलीभांति कल्पना कर सकते हैं जहाँ बहुसंख्यक लोगों की कमअधिक मात्रा में ये ही धारणायें होती हैं। स्वर्ग और नरक का होना हमारे अन्तकरण की समता और विषमता पर निर्भर करता है।आगे कहते हैं
16.16 Bewildered by numerous thoughts, caught in the net of delusion, (and) engrossed in the enjoyment of desirable objects, they fall into a foul hell.
16.16 Bewildered by many a fancy, entangled in the snare of delusion, addicted to the gratification of lust, they fall into a foul hell.
16.16. Endowed with many thoughts; confused highly; enslaved simply by their delusion; and addicated to the gratification of desires; they fall into the hell and into what is foul.
16.16 अनेकचित्तविभ्रान्ताः bewildred by many a fancy? मोहजालसमावृताः entangled in the snare of delusion? प्रसक्ताः addicted? कामभोगेषु to the gratification of lust? पतन्ति (they) fall? नरके into hell? अशुचौ foul.Commentary Just as a man utters many incoherent words when he gets delirium or high fever? so also these diabolical men prattle about their desires? sensual enjoyment? etc. They commit,countless sins and so they fall into a foul hell such as the Vaitarani. Delusion is a snare because those who are deluded are entrapped. They are caught like fish in the meshes of the net of delusion. They are enveloped by the net on four sides. They are bewildered as to what to do first and what next. As they are enveloped or covered by delusion? they are bewildered in various ways by entertaining various evil thoughts. They have no discrimination between the proper or beneficial and improper or harmful Sadhanas. The lack of the knowledge of the distinction between these two is Moha. As Mohas is a veil and a cause of bondage it is compared to a net.All the alities mentioned above lead to downfall.
16.16 Aneka-citta-vibhrantah, bewildered by numerous thoughts, confounded variously by thoughts of the kind stated above; moha-jala-samavrtah, caught in the net of delusion-moha is non-discrimination, lack of understanding; that itself is like a net because of its nature of covering; enshrouded by that; prasaktah, engrossed; kama-bhogesu, in the enjoyment of desirable objects, being immersed in that itself; they patanti, fall, owing to the sins accumulated thery; asucau, into a foul; narake, hell, such as Vaitarani. [Vaitarani: It is the most terrible place of punishment; a river filled with all kinds of filth-blood, hair, bones etc., and running with great impetuosity, hot and fetid. The other hells are Tamisra, Andhatamisra, Raurava, Kumbhipaka, and so on.]
16.13-16 Idam adya etc. upto asucau. Endowed with many thoughts etc. For, they do not have any conviction. Into the hell and what is foul : in the [hell] Avici and the like and in the regular succession of birth and death.
16.16 As do not accept the need for the help of past Karma and the Lord for their achievements and believe them to be only due to their own efforts, they are bewildered by many thoughts, Thus I shall do, this I shall accomplish, and still another I shall achieve. In this way they are ensnared by the net of delusion. Highly addicted to sensual enjoyments, they die in the middle of such enjoyments and fall into foul Naraka [Naraka is sometimes translated as hell. This is the Christian conception. In the Hindu view it is purgatory where through intense sufferings the Jiva is purged of sins].
Attached to the enjoyment of their desired objects, they fall to unclean hell, into such places as Vaitarani (filled with blood and pus).
Continuing Lord Krishna explains that perplexed and deluded by the innumerable desires waiting to be fulfilled in their minds which they are determined to realize; the demoniac become ensnared and entangled caught in the net of illusion even as fish are ensnared and caught by a fishermans net in water. Inescapably caught in the net of illusion the demoniac pursue their nefarious activities in the never ending attempt to satisfy their addiction to sense gratification and when their span of life has come to an end they are forced to enter the lowest regions of hell to suffer immeasurably.
There is no commentary for this verse.
The demoniac completely controlled by maya the imperceptible bewilderment of illusion delude themselves by thinking that they are capable of accomplishing anything merely by their own brains and might. The demoniac think they are independent and not dependent upon any Supreme Being even if it does at all exist. In this way they are full of anxiety which tempestuously buffets them about by foolish, greedy thoughts such as this is mine, that to will soon be mine, I want this, I want that, this I shall do and that I will also do, etc., etc. In this way by their very own minds they are caught in the web of illusion and pursuing their lust for sense gratification they are totally bereft of sound judgement, discrimination and moral conduct. Lord Krishna confirms that beyond material nature, unseen and unperceived, death is waiting very patiently for the allotted time to snatch them away from all they covet and force them to suffer their karma or reactions to their unrighteous sinful actions in the darkest of hells.
The demoniac completely controlled by maya the imperceptible bewilderment of illusion delude themselves by thinking that they are capable of accomplishing anything merely by their own brains and might. The demoniac think they are independent and not dependent upon any Supreme Being even if it does at all exist. In this way they are full of anxiety which tempestuously buffets them about by foolish, greedy thoughts such as this is mine, that to will soon be mine, I want this, I want that, this I shall do and that I will also do, etc., etc. In this way by their very own minds they are caught in the web of illusion and pursuing their lust for sense gratification they are totally bereft of sound judgement, discrimination and moral conduct. Lord Krishna confirms that beyond material nature, unseen and unperceived, death is waiting very patiently for the allotted time to snatch them away from all they covet and force them to suffer their karma or reactions to their unrighteous sinful actions in the darkest of hells.
Anekachittavibhraantaah mohajaalasamaavritaah; Prasaktaah kaamabhogeshu patanti narake’shuchau.
aneka—many; chitta—imaginings; vibhrāntāḥ—led astray; moha—delusion; jāla—mesh; samāvṛitāḥ—enveloped; prasaktāḥ—addicted; kāma-bhogeṣhu—gratification of sensuous pleasures; patanti—descend; narake—to hell; aśhuchau—murky