आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।
।।16.17।। अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले? स्तब्ध (गर्वयुक्त)? धन और मान के मद से युक्त लोग शास्त्रविधि से रहित केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा दम्भपूर्वक यजन करते हैं।।
।।16.17।। यज्ञ शब्द से वेदोक्त कर्मकाण्ड ही समझने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु जैसा कि गीता के ही तीसरे अध्याय में कहा गया था निस्वार्थभाव से ईश्वर को अर्पण कर किये गये सभी सेवा कर्म यज्ञ ही कहलाते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्म ही पूजा है।जब कभी कोई व्यक्ति समाज सेवा या राष्ट्र के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करता है? तब यह आवश्यक नहीं कि वह सदैव शुद्ध यज्ञ भावना से ही कर्म करता हो। यद्यपि अनेक राजनीतिक नेता और समाज सेवक राष्ट्रोद्धार के लिए प्रयत्नशील दिखाई देते हैं? तथापि वस्तुस्थिति यह है कि राष्ट्र में शान्ति? समृद्धि और सम्पन्नता का अभाव ही है। इसका क्या कारण हो सकता है इसका कारण स्पष्ट है। जब आसुरी प्रकृति का व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में प्रवेश करता है? तब वह अपने सेवाभाव की घोषणा और प्रदर्शन भी करता है। परन्तु? वास्तव में? निस्वार्थ सेवा कर पाना उसके मूल स्वभाव के सर्वथा विपरीत होता है। समाज के ऐसे मित्र या सेवक नाममात्र के लिए सेवादरूप यज्ञ करते हैं। अनजाने ही? उनके कर्म अभिमान से विषाक्त? कामुकता से रंजित? गर्व से विकृत और इनके मिथ्या दर्शनशास्त्र से प्राय दूषित होते हैं। इस प्रकार उनके सभी कर्मों का एकमात्र परिणाम दुख ही होता है।ऐसे नीच लोग प्रतिदिन निम्नतर स्तर को प्राप्त होते जाते हैं