अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।।
।।16.2।।अहिंसा? सत्यभाषण क्रोध न करना संसारकी कामनाका त्याग अन्तःकरणमें रागद्वेषजनित हलचलका न होना चुगली न करना प्राणियोंपर दया करना सांसारिक विषयोंमें न ललचाना अन्तःकरणकी कोमलता अकर्तव्य करनेमें लज्जा चपलताका अभाव।
।।16.2।। अहिंसा? सत्य? क्रोध का अभाव? त्याग? शान्ति? अपैशुनम् (किसी की निन्दा न करना)? भूतमात्र के प्रति दया? अलोलुपता ? मार्दव (कोमलता)? लज्जा? अचंचलता।।
।।16.2।। व्याख्या -- अहिंसा -- शरीर? मन? वाणी? भाव आदिके द्वारा किसीका भी किसी प्रकारसे अनिष्ट न करनेको तथा अनिष्ट न चाहनेको अहिंसा कहते हैं। वास्तवमें सर्वथा अहिंसा तब होती है? जब मनष्य संसारकी तरफसे विमुख होकर परमात्माकी तरफ ही चलता है। उसके द्वारा अहिंसा का पालन स्वतः होता है। परन्तु जो रागपूर्वक? भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है वह कभी सर्वथा अहिंसक नहीं हो सकता। वह अपना पतन तो करता ही है? जिन पदार्थों आदिको वह भोगता है? उनका भी नाश करता है।जो संसारके सीमित पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपने) न होनेपर भी व्यक्तिगत मानकर सुखबुद्धिसे भोगता है? वह हिंसा ही करता है। कारण कि समष्टि संसारसे सेवाके लिये मिले हुए पदार्थ? वस्तु? व्यक्ति? आदिमेंसे किसीको भी अपने भोगके लिये व्यक्तिगत मानना हिंसा ही है। यदि मनुष्य समष्टि संसारसे मिली हुई वस्तु? पदार्थ? व्यक्ति आदिको संसारकी ही मानकर निर्ममतापूर्वक संसारकी सेवामें लगा दे? तो वह हिंसासे बच सकता है और वही अहिंसक हो सकता है।जो सुख और भोगबुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है? उसको देखकर? जिनको वे भोगपदार्थ नहीं मिलते -- ऐसे अभावग्रस्तोंको दुःखसंताप होता है। यह उनकी हिंसा ही है क्योंकि भोगी व्यक्तिमें अपना स्वार्थ और सुखबुद्धि रहती है तथा दूसरोंके दुःखकी लापरवाही रहती है। परन्तु जो संतमहापुरुष केवल दूसरोंका हित करनेके लिये ही जीवननिर्वाह करते हैं? उनको देखकर किसीको दुःख हो भी जायगा? तो भी उनको हिंसा नहीं लगेगी क्योंकि वे भोगबुद्धिसे जीवननिर्वाह करते ही नहीं -- शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (गीता 4। 21)।केवल परमात्माकी ओर चलनेवालेके द्वारा हिंसा नहीं होती क्योंकि वह भोगबुद्धिसे पदार्थ आदिका सेवन नहीं करता। परमत्माकी ओर चलनेवाला साधक शरीर? मन? वाणीके द्वारा कभी किसीको दुःख नहीं पहुँचाता। यदि उसकी बाह्य क्रियाओँसे किसीको दुःख होता है? तो यह दुःख उसके खुदके स्वभावसे ही होता है। साधककी तो भीतरसे कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख देनेकी भावना नहीं होनी चाहिये। उसका भाव निरन्तर सबका हित करनेका होना चाहिये -- सर्वभूतहिते रताः।साधककी साधानमें कोई बाधा डाल दे? तो उसे उसपर क्रोध नहीं आता और न उसके मनमें उसके अहितकी भावना (हिंसा) ही पैदा होती है। हाँ? परमात्माकी ओर चलनेमें बाधा पड़नेसे उसको दुःख हो सकता है? पर वह दुःख भी सांसारिक दुःखकी तरह नहीं होता। साधकको बाधा लगती है? तो वह भगवान्को पुकारता है कि हे नाथ मेरी कहाँ भूल हुई? जिससे बाधा लग रही है ऐसा विचार करके उसे रोना आ सकता है पर बाधा डालनेवालेके प्रति क्रोध? द्वेष नहीं हो सकता। बाधा लगनेपर साधकमें तत्परता और सावधानी आती है। यदि उसमें बाधा डालनेवालेके प्रति द्वेष होता है? तो जितने अंशमें द्वेषवृत्ति रहती है? उतने अंशमें तत्परताकी कमी है? अपने साधनका आग्रह है।साधककमें एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होनेसे साधनमें रुचि रहती है और आग्रह होनेसे साधनमें राग होता है। रुचि होनेसे अपने साधनमें कहाँकहाँ कमी है? उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करनेकी शक्ति आती है? तथा उसे दूर करनेकी चेष्टा भी होती है। परन्तु राग होनेसे साधनमें विघ्न डालनेवालेके साथ द्वेष होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो साधनमें हमारी रुचि कम होनेसे ही दूसरा हमारे साधनमें बाधा डालता है। अगर साधनमें हमारी रुचि कम न हो तो दूसरा हमारे साधनमें बाधा नहीं डालेगा? प्रत्युत यह सोचकर उपेक्षा कर देगा कि यह जिद्दी है? मानेगा नहीं अतः जैसा चाहे? वैसा करने दो।जैसे पुष्पसे सुगन्ध स्वतः फैलती है? ऐसे ही साधकसे स्वतः पारमार्थिक परमाणु फैलते हैं और वायुमण्डल शुद्ध होता है। इससे उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक प्राणिमात्रका बड़ा भारी उपकार एवं हित होता रहता है। परन्तु जो अपने दुर्गुणदुराचारोंके द्वारा वायुमण्डलको अशुद्ध करता रहता है? वह प्राणिमात्रकी हिंसा करनेका अपराधी होता है।सत्यम् -- अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरोंके हितकी दृष्टिसे जैसा सुना? देखा? पढ़ा? समझा और निश्चय किया है? उससे न अधिक और न कम -- वैसाकावैसा प्रिय शब्दोंमें कह देना,सत्य है।सत्यस्वरूप परमात्माको पाने और जाननेका एकमात्र उद्देश्य हो जानेपर साधकके द्वारा मन? वाणी और क्रियासे असत्यव्यवहार नहीं हो सकता। उसके द्वारा सत्यव्यवहार? सबके हितका व्यवहार ही होता है। जो सत्यको जानना चाहता है? वह सत्यके ही सम्मुख रहता है। इसलिये उसके मनवाणीशरीरसे जो क्रियाएँ होती हैं? वे सभी उत्साहपूर्वक सत्यकी ओर चलनेके लिये ही होती हैं।अक्रोधः -- दूसरोंका अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है? वह क्रोध है। पर जबतक अन्तःकरणमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी भावना पैदा नहीं होती? तबतक वह क्षोभ है? क्रोध नहीं।परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे साधन करनेवाला मनुष्य अपना अपकार करनेवालेका भी अनिष्ट नहीं करना चाहता। वह इस बातको समझता है कि अनिष्ट करनेवाला व्यक्ति वास्तवमें हमारा अनिष्ट कभी कर ही नहीं सकता। यह जो हमे दुःख देनेके लिये आया है? यह हमने पहले कोई गलती की है? उसीका फल है। अतः यह हमें शुद्ध कर रहा है? निर्मल कर रहा है। जैसे? डॉक्टर किसी रुग्ण अङ्ग को काटता है? तो उसपर रोगी क्रोध नहीं करता? प्रत्युत उसे अच्छा मानता है? ठीक मानता है। उसके रुग्ण अङ्गको काटना तो उसे ठीक करनेके लिये ही है। ऐसे ही साधकको कोई अहितकी भावनासे किसी तरहसे दुःख देता है? तो उसमें यह भाव पैदा होता है कि वह मेरेको शुद्ध? निर्मल बनानेमें निमित्त बन रहा है अतः उसपर क्रोध कैसे वह तो मेरा उपकार कर रहा है और भविष्यके लिये सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले की है? आगे वैसी गलती न करूँ।जो लोग साधकका हित करनेवाले हैं? उसकी सेवा करनेवाले हैं? वे तो साधकको सुख पहुँचाकर उसके पुण्योंका नाश करते हैं। पर साधकको उनपर (उसके पुण्योंका नाश करनेके कारण) क्रोध नहीं आता। उनपर साधकको यह विचार आता है कि वे जो मेरी सेवा करते हैं? मेरे अनुकूल आचरण करते हैं? यह तो उनकी सज्जनता है? उनका श्रेष्ठ भाव है। परन्तु पुण्योंका नाश तो तब होता है? जब मैं उनकी सेवासे सुख भोगता हूँ। इस प्रकार साधककी दृष्टि सेवा करनेवालोंकी अच्छाई? शुद्ध नीयतपर ही जाती है। अतः साधकको न तो दुःख देनेवालोंपर क्रोध होता है और न सुख देनेवालोंपर।त्यागः -- संसारसे विमुख हो जाना ही असली त्याग है। साधकको जीवनमें बाहरका और भीतरका -- दोनोंका ही त्याग होना चाहिये। जैसे? बाहरसे पाप? अन्याय? अत्याचार? दुराचार आदिका और बाहरी सुखआराम आदिका त्याग भी करना चाहिये? और भीतरसे सांसारिक नाशवान् वस्तुओंकी कामनाका त्याग भी करना चाहिये। इससे भी बाहरके त्यागकी अपेक्षा भीतरकी कामनाका त्याग श्रेष्ठ है। कामनाका सर्वथा त्याग होनेपर तत्काल शान्तिकी प्राप्ति होती है -- त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता 12। 12)।साधकके लिये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंकी कामना ही वास्तवमें सबसे ज्यादा बाधक होती है। अतः,कामनाका सर्वथा त्याग करना चाहिये। त्याग कब होता है जब साधकका उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्तिका ही हो जाता है? तब उसकी कामनाएँ दूर होती चली जाती हैं। कारण कि सांसारिक भोग और संग्रह साधकका लक्ष्य नहीं होता। अतः वह सांसारिक भोग और संग्रहकी कामनाका त्याग करते हुए अपने साधनमें आगे बढ़ता रहता है।शान्तिः -- अन्तःकरणमें रागद्वेषजनित हलचलका न होना शान्ति है क्योंकि संसारके साथ रागद्वेष करनेसे ही अन्तःकरणमें अशान्ति आती है और उनके न होनेसे अन्तःकरण स्वाभाविक ही शान्त? प्रसन्न रहता है।अनुकूलतासे पुराने पुण्योंका नाश होता है और उसमें अपना स्वभाव सुधरनेकी अपेक्षा बिगड़नेकी सम्भावना अधिक रहती है। परन्तु प्रतिकूलता आनेपर पापोंका नाश होता है और स्वभावमें भी सुधार होता है। इस बातको समझनेपर प्रतिकूलतामें भी स्वतः शान्ति बनी रहती है।किसी परिस्थिति आदिको लेकर साधकमें कभी रागद्वेषका भाव हो भी जाता है तो उसके मनमें अशान्ति पैदा हो जाती है और अशान्ति होते ही वह तुरंत सावधान हो जाता है कि रागद्वेषपूर्वक कर्म करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इस विचारसे फिर शान्ति आ जाती है और समय पाकर स्थिर हो जाती है।अपैशुनम् -- किसीके दोषको दूसरेके आगे प्रकट करके दूसरोंमें उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता है और इसका सर्वथा अभाव ही अपैशुन है। परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधक कभी किसीकी चुगली नहीं करता। ज्योंज्यों उसका साधन आगे बढ़ता चला जाता है? त्योंहीत्यों उसकी दोषदृष्टि और द्वेषवृत्ति मिटकर दूसरोंके प्रति उसका स्वतः ही अच्छा भाव होता चला जाता है। उसके मनमें यह विचार भी नहीं आता कि मैं साधन करनेवाला हूँ और ये दूसरे (साधन न करनेवाले) साधारण मनुष्य हैं? प्रत्युत तत्परतासे साधन होनेपर उसे जैसी अपनी स्थिति (जडतासे सम्बन्ध न होना) दिखायी देती है? वैसी ही दूसरोंकी स्थिति भी दिखायी देती है कि वास्तवमें उनका भी जडतासे सम्बन्ध नहीं है? केवल सम्बन्ध माना हुआ है। इस तरह जब उसकी दृष्टिमें किसीका भी जडतासे सम्बन्ध है ही नहीं? तो वह किसीका दोष किसीके प्रति क्यों प्रकट करेगाभक्तिमार्गवाला सर्वत्र अपने प्रभुको देखता है? ज्ञानमार्गवाला केवल अपने स्वरूपको ही देखता है और कर्मयोगमार्गवाला अपने सेव्यको देखता है। इसलिये साधक किसीकी बुराई? निन्दा? चुगली आदि कर ही कैसे सकता हैदया भूतेषु -- दूसरोंको दुःखी देखकर उनका दुःख दूर करनेकी भावनाको दया कहते हैं। भगवान्की? संतमहात्माओंकी? साधकोंकी और साधारण मनुष्योंकी दया अलगअलग होती है --(1) भगवान्की दया -- भगवान्की दया सभीको शुद्ध करनेके लिये होती है। भक्तलोग इस दयाके दो भेद मानते हैं -- कृपा और दया। मात्र मनुष्योंको पापोंसे शुद्ध करनेके लिये उनके मनके विरुद्ध (प्रतिकूल) परिस्थितिको भेजना कृपा है और अनुकूल परिस्थितिको भेजना दया है।(2) संतमहात्माओंकी दया -- संतमहात्मालोग दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दूसरोंके सुखसे सुखी होते हैं -- पर दुख दुख सुख सुख देखे पर (मानस 7। 38। 1)। पर वास्तवमें उनके भीतर न दूसरोंके दुःखसे दुःख होता है और न अपने दुःखसे ही दुःख होता है। अपनेपर प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर वे उसमें भगवान्की कृपाको देखते हैं? पर दूसरोंपर दुःख आनेपर उन्हें सुखी करनेके लिये वे उनके दुःखको स्वयं अपनेपर ले लेते हैं। जैसे? इन्द्रने क्रोधपूर्वक बिना अपराधके दधीचि ऋषिका सिर काट दिया था? पर जब इन्द्रने अपनी रक्षाके लिये उनकी ह़ड्डियाँ माँगी? तब दधीचिने सहर्ष प्राण छोड़कर उन्हें अपनी हड्डियाँ दे दीं। इस प्रकार संतमहापुरुष दूसरेके दुःखको सह नहीं सकते? प्रत्युत उन्हें सुख पहुँचानेके लिये अपनी सुखसामग्री और प्राणतक दे देते हैं? चाहे दूसरा उनका अहित करनेवाला ही क्यों न हो (टिप्पणी प0 796) इसलिये संतमहात्माओंकी दया विशेष शुद्ध? निर्मल होती है।(3) साधकोंकी दया -- साधक अपने मनमें दूसरोंका दुःख दूर करनेकी भावना रखता है और उसके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा भी करता है। दूसरोंको दुःखी देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है क्योंकि वह अपनी ही तरह दूसरोंके दुःखको भी समझता है। इसलिये उसका यह भाव रहता है कि सब सुखी कैसे हों सबका भला कैसे हो सबका उद्धार कैसे हो सबका हित कैसे हो अपनी ओरसे वह ऐसी ही चेष्टा करता है परन्तु मैं सबका हित करता हूँ? सबके हितकी चेष्टा करता हूँ -- इन बातोंको लेकर उसके मनमें अभिमान नहीं होता। कारण कि दूसरोंका दुःख दूर करनेका सहज स्वभाव बन जानेसे उसे अपने इस आचरणमें कोई विशेषता नहीं दीखती। इसलिये उसको अभिमान नहीं होता।जो प्राणी भगवान्की ओर नहीं चलते? दुर्गुणदुराचारोंमें रत रहते हैं? दूसरोंका अपराध करते हैं और अपना पतन करते हैं -- ऐसे मनुष्योंपर साधकको क्रोध न आकर दया आती है। इसलिये वह हरदम ऐसी चेष्टा करता रहता है कि ये लोग दुर्गुणदुराचारोंसे ऊपर कैसे उठें इनका भला कैसे हो कभीकभी वह उनके दोषोंको दूर करनेमें अपनेको निर्बल मानकर भगवान्से प्रार्थना करता है कि हे नाथ ये लोग इन दोषोंसे छूट जायँ और आपके भक्त बन जायँ।,(4) साधारण मनुष्योंकी दया -- साधारण मनुष्यकी दयामें थोड़ी मलिनता रहती है। वह किसी जीवके हितकी चेष्टा करता है? तो यह सोचता है कि मैं कितना दयालु हूँ मैंने इस जीवको सुख पहुँचाया? तो मैं कितना अच्छा हूँ हरके आदमी मेरेजैसा दयालु नहीं है? कोईकोई ही होता है? इत्यादि। इस प्रकार लोग मुझे अच्छा समझेंगे? मेरा आदर करेंगे आदि बातोंको लेकर? अपनेमें महत्त्वबुद्धि रखकर जो दया की जाती है? उसमें दयाका अंश तो अच्छा है? पर साथमें उपर्युक्त मलिनताएँ रहनेसे उस दयामें अशुद्धि आ जाती है।इनसे भी साधारण दर्जेके मनुष्य दया तो करते हैं? पर उनकी दया ममतावाले व्यक्तियोंपर ही होती है। जैसे? ये हमारे परिवारके हैं? हमारे मत और सिद्धान्तको माननेवाले हैं? तो उनका दुःख दूर करनेकी इच्छासे उन्हें सुखआराम देनेका प्रयत्न करते हैं। यह दया ममता और पक्षपातयुक्त होनेसे अधिक अशुद्ध है।इनसे भी घटिया दर्जेके वे मनुष्य हैं? जो केवल अपने सुख और स्वार्थकी पूर्तिके लिये ही दूसरोंके प्रति दयाका बर्ताव करते हैं।अलोलुप्त्वम् -- इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध होनेसे अथवा दूसरोंको भोग भोगते हुए देखनेसे मनका (भोग भोगनेके लिये) ललचा उठनेका नाम लोलुपता है और उसके सर्वथा अभावका नाम अलोलुप्त्व है।अलोलुपताके उपाय -- (1) साधकके लिये विशेष सावधानीकी बात है कि वह अपनी इन्द्रियोंसे भोगोंका सम्बन्ध न रखे और मनमें कभी भी ऐसा भाव? ऐसा अभिमान न आने दे कि मेरा इन्द्रियोंपर अधिकार है अर्थात् इन्द्रियाँ मेरे वशमें हैं अतः मेरा क्या बिगड़ सकता है(2) मैं हृदयसे परमात्माकी प्राप्ति चाहता हूँ? अगर कभी हृदयमें विषयलोलुपता हो गयी? तो मेरा पतन हो जायगा और मैं परमात्मासे विमुख हो जाऊँगा -- इस प्रकार साधक खूब सावधान रहे और कहीं अचानक विचलित होनेका अवसर आ जाय? तो हे नाथ बचाओ हे नाथ बचाओ ऐसे सच्चे हृदयसे भगवान्को पुकारे।(3) स्त्रीपुरुषोंकी तथा जन्तुओँकी कामविषयक चेष्ट न देखे। यदि दीख जाय? तो ऐसा विचार करे कि,यह तो बिलकुल चौरासी लाख योनियोंका रास्ता है। यह चीज तो मनुष्य? पुशपक्षी? कीटपतङ्ग? राक्षसअसुर? भूतप्रेत आदि मात्र जीवोंमें भी है। पर मैं तो चौरासी लाख योनियों अर्थात् जन्ममरणसे ऊँचा उठना चाहता हूँ। मैं जन्ममरणके मार्गका पथिक नहीं हूँ। मेरेको तो जन्ममरणादि दुःखोंका अत्यन्त अभाव करके परमात्माकी प्राप्ति करना है। इस भावको बड़ी सावधानीके साथ जाग्रत् रखे और जहाँतक बने? ऐसी कामचेष्टा न देखे।मार्दवम् -- बिना कारण दुःख देनेवालों और वैर रखनेवालोंके प्रति भी अन्तःकरणमें कठोरताका भाव न होना तथा स्वाभाविक कोमलताका रहना मार्दव है (टिप्पणी प0 797)।साधकके हृदयमें सबके प्रति कोमलताका भाव रहता है। उसके प्रति कोई कठोरता एवं अहितका बर्ताव भी करता है? तो भी उसकी कोमलतामें अन्तर नहीं आता। यदि साधक कभी किसी बातको लेकर किसीको कठोर जवाब भी दे दे? तो वह कठोर जवाब भी उसके हितकी दृष्टिसे ही देता है। पर पीछे उसके मनमें यह विचार आता है कि मैंने उसके प्रति कठोरताका व्यवहार क्यों किया मैं प्रेमसे या अन्य किसी उपायसे भी समझा सकता था -- इस प्रकारके भाव आनेसे कठोरता मिटती रहती है और कोमलता बढ़ती रहती है।यद्यपि साधकोंके भावोंमें और वाणीमें कोमलता रहती है? तथापि उनकी भिन्नभिन्न प्रकृति होनेसे सबकी वाणीमें एक समान कोमलता नहीं होती। परन्तु हृदयमें साधकोंका सबके प्रति कोमल भाव रहता है। ऐसे ही कर्मयोग? ज्ञानयोग और भक्तियोग आदिका साधन करनेवालोंके स्वभावमें विभिन्नता होनेसे उनके बर्ताव सबके प्रति भिन्नभिन्न होते हैं अतः उनके आचरणोंमें एकजैसी कोमलता नहीं दीखती? पर भीतरमें बड़ी भारी कोमलता रहती है।ह्रीः -- शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम करनेमें जो एक संकोच होता है? उसका नाम ह्रीः (लज्जा) है। साधकको साधनविरुद्ध क्रिया करनेमें लज्जा आती है। वह लज्जा केवल लोगोंके देखनेसे ही नहीं आती? प्रत्युत उसके मनमें अपनेआप ही यह विचार आता है कि रामराम? मैं ऐसी क्रिया कैसे कर सकता हूँ क्योंकि मैं तो परमात्माकी तरफ चलनेवाला (साधक) हूँ। लोग भी मुझे परमात्माकी तरफ चलनेवाला समझते हैं। अतः ऐसी साधनविरुद्ध क्रियाओँको मैं एकान्तमें अथवा लोगोंके सामने कैसे कर सकता हूँ -- इस लज्जाके कारण साधक बुरे कर्मोंसे बच जाता है एवं उसके आचरण ठीक होते चले जाते हैं। जब साधक अपनी अहंता बदल देता है कि मैं सेवक हूँ? मैं जिज्ञासु हूँ? मैं भक्त हूँ? तब उसे अपनी अहंताके विरुद्ध क्रिया करनेमें स्वाभाविक ही लज्जा आती है। इसलिये पारमार्थिक उद्देश्य रखनेवाले प्रत्येक साधकको अपनी अहंता मैं साधक हूँ? मैं सेवक हूँ? मैं जिज्ञासु हूँ? मैं भगवद्भक्त हूँ -- इस प्रकारसे यथारुचि बदल लेनी चाहिये? जिससे वह साधनविरोधी कर्मोंसे बचकर अपने उद्देश्यको जल्दी प्राप्त कर सकता है।अचापलम् -- कोई भी कार्य करनेमें चपलताका अर्थात् उतावलापनका न होना अचापल है। चपलता (चञ्चलता) होनेसे काम जल्दी होता है? ऐसी बात नहीं है। सात्त्विक मनुष्य सब काम धैर्यपूर्वक करता है अतः उसका काम सुचारुरूपसे और ठीक समयपर हो जाता है। जब कार्य ठीक हो जाता है? तब उसके अन्तःकरणमें हलचल? चिन्ता नहीं होती। चपलता न होनेसे कार्यमें दीर्घसूत्रताका दोष भी नहीं आता? प्रत्युत कार्यमें तत्परता आती है? जिससे सब काम सुचारुरूपसे होते हैं। अपने कर्तव्यकर्मोंको करनेके अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा न होनेसे उसका चित्त विक्षिप्त और चञ्चल नहीं होता (गीता 18। 26)।
।।16.2।। अहिंसा प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। स्वार्थ या द्वेषवशात् किसी को पीड़ित करना हिंसा है। अहिंसा का पालन शरीर? वाणी और मन इन तीनों स्तर पर होना चाहिए। कभीकभी बाह्यदृष्टि से कोई व्यक्ति शरीर को पीड़ा पहुँचाते हुए दिखाई देता है? जैसे एक शल्य चिकित्सक रोगी की चिकित्सा करते हुऐ? उसे पीड़ा देता है किन्तु वह हिंसा नहीं मानी जाती। वैसे भी शारीरिक स्तर पर सम्पूर्ण अहिंसा संभव नहीं हो सकती है? किन्तु मन में कदापि हिंसा का भाव नहीं होना चाहिए। चिकित्सक के मन में इस हिंसा का भाव न होने से उसके द्वारा की गई शल्य चिकित्सा को हिंसा नहीं कहा जाता।सत्यम् सत्य का कुछ भाव आर्जव शब्द की व्याख्या में प्रकट किया जा चुका है। प्रमाणों से सिद्ध अर्थ को उसी रूप में प्रकट करना सत्य कहलाता है।अक्रोध यहाँ इस शब्द का क्रोध का सर्वथा अभाव अर्थ अभिप्रेत नहीं है। साधना की स्थिति में कभीकभी किसी घटना अथवा किसी के दुर्व्यवहार से मन में क्रोध आ जाता है? परन्तु तत्काल ही उसे पहचान कर उसका उपशमन करने की क्षमता को यहाँ अक्रोध कहा गया है। साधक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह भी अपने क्रोध को क्रियारूप में व्यक्त न होने दे। इसी प्रकार की अन्य वृत्तियों का उपशमन करने की सार्मथ्य साधक को सम्पादित करनी चाहिए।त्याग यहाँ अहंकार और स्वार्थ का त्याग करने के लिए कहा गया है। पूर्व श्लोक के समान यहाँ उल्लिखित गुणों में भी परस्पर संबंध है। त्याग के अभाव में अक्रोध भी सिद्ध नहीं हो सकता? क्योंकि जब कोई हमारे अहंकार या स्वार्थ को चोट या हानि पहुंचाता है? तभी हमें क्रोध आता है।शान्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न व्यक्ति के मन में विक्षेपों का कोई कारण नहीं रह जाता? इसलिए उसके मन की शान्ति बनी रहती है। बाह्य जगत् की अथवा उसके व्यक्तिगत जीवन की परिस्थितियां कितनी ही दुखदायक और आक्रामक क्यों न हों? उस व्यक्ति का मनसन्तुलन कभी विचलित नहीं होता है।अपैशुनम् किसी व्यक्ति के दोषों को अन्य लोगों के समक्ष प्रकट करने को पैशुन कहते हैं। पैशुन का अभाव ही अपैशुन है। वाणी की मधुरता या कर्कशता वक्ता के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है। एक अयुक्त (अर्थात् अशुद्ध अन्तकरण वाले) पुरुष को अन्य लोगों की द्वेषयुक्त निन्दा करने में एक प्रकार का आसुरी आनन्द प्राप्त होता है। प्राय यह कोमल और मांसल जिह्वा ही किसी विनाशकारी अस्त्र से भी अधिक विध्वंसकारी सिद्ध होती है। आत्मविकास के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने की आकांक्षा रखने वाले उद्यमी साधक को ऐसा आन्तरिक सामञ्जस्य स्थापित करना चाहिए कि उसकी वाणी आत्मा की सुरभि का अनुकरण करे। स्वर की कोमलता? वचनों की स्पष्टता? निश्चय्ा की सत्यता? प्रच्छन्न अर्थ से रहित विचारों को श्रोता के मन में स्पष्ट करने की क्षमता? निष्कपटता? भक्ति और प्रेम इन सब से परिपूर्ण संभाषण वक्ता के व्यक्तित्व के आत्मचरित्र का एक विशिष्ट और श्रेष्ठ गुण ही बन जाता है। इस प्रकार के मधुर संभाषण के गुण का स्वयं में विकास करने से अपने व्यक्तित्व के अन्य आयामों का भी स्वत विकास हो जाता है? जो अन्तकरण को अनुशासित करने के लिए आवश्यक होता है।भूतमात्र के प्रति दया दुख और कष्ट से पीड़ित प्राणियों के प्रति कृपा का भाव दया कहलाता है। इसके अतिरिक्त? एक साधक को समाज में रहते हुए यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि समाज के सभी लोग उन्हीं आदर्शों या जीवन मूल्यों का अनुकरण करें? जिनके प्रति स्वयं उसकी श्रद्धा है। लोगों की दृष्टियों में भेद होता है और इसलिए उसे अपने आसपास के लोगों में अपूर्णता और दोष दिखाई दे सकते हैं। परन्तु? उनको इन समस्त दोषों के अन्तरंग में स्थित आत्मा के असीम सौन्दर्य को देखते रहना चाहिए। आत्मदर्शन की यह क्षमता ही सभी साधुओं और सन्तों के मन में स्थित प्राणिमात्र के प्रति दया का रहस्य है। सब के प्रति मन में प्रेम होने पर ही उनके प्रति असीम सहानुभूति और स्नेह का भाव हृदय में उठ सकता है। आत्मा की इस सुन्दरता को यदि अत्यन्त दुखी और दुश्चरित्र व्यक्ति में भी हम नहीं देख सके? तो उनके प्रति हमारे हृदय में स्नेह और दया उत्पन्न नहीं हो सकती।अलोलुपता प्रलोभित और आकर्षित करने वाले विषयों की उपस्थिति में भी मन में विकार उत्पन्न नहीं होना अलोलुपता है।मार्दव (मृदुता) और लज्जा यहाँ लज्जा का अर्थ है? निषिद्ध और निन्द्य प्रकार के कर्म करने में लज्जा का अनुभव करना। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि निन्द्य कर्मों का त्याग करना तथा शुभ कर्मों में गर्व का न होना अर्थात् नम्रता? विनयशीलता का होना लज्जा शब्द का अभिप्रेत अर्थ है। वस्तुत जो व्यक्ति उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न होता है? उसमें स्वभाव की मृदुता और विनयशीलता स्वाभाविक रूप में आ जाती है? क्योंकि ये दोनों गुण मनुष्य की श्रेष्ठ संस्कृति के द्योतक हैं।अचापलम् मनुष्य के मन की चंचलता और स्वभाव की अस्थिरता उसकी शारीरिक चेष्टाओं में प्रकट होती है। सतत चंचलता? अकस्मात् कर्म का प्रारम्भ करना? अश्लील प्रकार की शारीरिक चेष्टाएं? व्यसनानन्द के अतिरेक से अंग प्रक्षेपण इत्यादि लक्षण केवल एक असंस्कृत व्यक्ति में देखे जाते हैं? जिसने न कभी स्वभाव की स्थिरता को और न कभी व्यक्तित्व को आदर्शपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया हो। ये लक्षण एक शिशु में देखे जाते हैं? और उस दशा में वे उसके सौन्दर्यवर्धक ही माने जाते हैं। परन्तु जैसेजैसे व्यक्ति का विकास होता जाता है? उसका आत्मसंयम ही उसका सौन्दर्य समझा जाता है? जो उसकी शारीरिक चेष्टाओं के द्वारा स्पष्ट होता है।श्री शंकराचार्य जी इसका अर्थ बताते हैं? प्रयोजन के अभाव में हाथ? पैर? वाणी आदि इन्द्रियों का व्यापार न होना अचापलम् कहलाता है। यह इस शब्द का व्यापक अर्थ है और इसका आशय यह भी है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए उपयोगी कार्य में तत्परता और समस्त शारीरिक शक्तियों की मितव्ययिता होना चाहिए। अनावश्यक चेष्टाएं करना दुर्बल व्यक्तित्व का लक्षण है। ऐसे व्यक्ति कल्पनाओं में ही खोये रहते हैं और मानसिक तथा बौद्धिक स्तर पर अत्यन्त दुर्बल होते हैं। अत अचापलम् नामक गुण के सम्पादन से हम अपने व्यक्तित्व की अनेक प्रकार की सामान्य दुर्बलताओं का उपचार कर सकते हैं।और
16.2 Non-injury, truthfulness, absence of anger, renunciation, control of the internal organ, absence of vilification, kindness to creatures, non-covetousness, gentleness, modesty, freedom from restlessness;
16.2 Harmlessness, truth, absence of anger, renunciation, peacefulness, absence of crookedness, compassion towards beings, non-covetousness, gentleness, modesty, absence of fickleness.
16.2. Harmlessness, truth, absence of anger, renunciation, absence of attachment, absence of calumny, compassion to living beings, and absence of greed, gentleness, modesty, absence of thoughtlessness;
16.2 अहिंसा harmlessness? सत्यम् truth? अक्रोधः absence of anger? त्यागः renunciation? शान्तिः peacefulness? अपैशुनम् absence of crookedness? दया compassion? भूतेषु in beings? अलोलुप्त्वम् noncovetousness? मार्दवम् gentleness? ह्रीः modesty? अचापलम् absence of fickleness.Commentary Ahimsa Noninjury in thought? word and deed. By refraining from injuring living creatures the outgoing forces of Rajas are curbed. Ahimsa is divided into physical? verbal and mental.Satyam Truth Speaking of things as they are? without uttering unpleasant words or lies. This includes selfrestraint? absence of jealousy? forgiveness? patience? endurance and kindness.Akrodhah Absence of anger when insulted? ruked or beaten? i.e.? even under the gravest provocation.Tyagah Renunciation -- literally? giving up giving up of Vasanas? egoism and the fruits of action. Charity is also Tyaga. This has already been mentioned in the previous verse.Santih Serenity of the mind.Apaisunam Absence of narrowmindedness.Daya Compassion to those who are in distress. A man of compassion has a tender heart. He lives only for the benefit of the world. Compassion indicates realisation of unity or oneness with other creatures.Aloluptvam Noncovetousness. The senses are not affected or excited when they come in contact with their respective objects the senses are withdrawn from the objects of the senses? just as the limbs of the tortoise are withdrawn by it into its own shell.Hrih It is shame felt in the performance of actions contrary to the rules of the Vedas or of society.Achapalam Not to speak or move the hands and legs in vain avoidance of useless action.Straightforwardness? noninjury? absence of anger? etc.? are special alities of the Brahmanas. They are the Sattvic virtues which belong to them.Moreover --
16.2 Ahimsa, non-injury, abstaining from giving pain to creatures; satyam, truthfulness, speaking of things as they are, without unpleasantness and prevarication; akrodhah, absence of anger, control of anger that might result when offened or assulatd by others; tyagah, renunciation, monasticism-for, charity has been mentioned earlier; santih, control of the internal organ; apaisunam, absence of vilification-paisunam means backbiting; its absence is apaisunam; daya, kindness; bhutesu, to creatures in distress; aloluptvam, non-conveteousness, absence of excitement of the organs in the presence of objects; mardavam, gentleness, absence of hard-heartedness; hrih, modesty;; acapalam, freedom from restlessness, absence of unnecessary use of organs such as speech, hands and feet-. Besides,
16.2 See Coment under 16.5
16.2 Non-injury is abstaining from injury to others. Truth is communication by words of what one knows for certain and what is conducive to the good of others. Freedom from anger is the absence in oneself of the mental state, which, if permitted, leads to injury to others. Renunciation is the abandonment of everything that is contrary to the good of the self. Tranillity is practice of controlling the senses from their propensity towards sense-objects. Not-slandering others means refraining oneself from speech that may cause evil to others. Compassion to all beings means ones incapacity to stand the suffering of others. Aloluptvam means freedom from desire for sense-objects. Gentleness means absence of harshness, and being worthy of associating with the good. Sense of shame is shrinking from doing what should not be done. Acapalam means being unattracted by objects enjoyable by the senses even when they are at hand.
Not attaining me, the asuras attain low births. However, those asuras in the form of Kamsa and others attained me, Krishna, who appeared at the end of dvapara yuga in the twenty eighth cycle of Vaivasvata Manu’s reign. Though hating me, they attained me in the form of liberation. Because I am an ocean of mercy, I give even such sinful asuras liberation, which is only attained by the perfection of bhakti and jnana. The Personified Vedas say: nibhrta-marun-mano’ksa drdha-yoga-yujo hrdi yan munaya upasate tad-arayo’pi yayuh smaranat Simply by constantly thinking of Him, the enemies of the Lord attained the same Supreme Truth whom sages fixed in yoga worship by controlling their breath, mind and senses. SB 10.87.23 This widens the scope of my supreme attractive position which I mentioned previously. But as the Bhagavatamrta Karika says: mam krsna-rupinam yavan napnuvanti mama dvisah tavad evadhamam yonim prapnuvantiti hi sphutam In as much as those who hate me do not attain me in my form as Krishna, it is clear that they attain the lowest births.
In order to discern the reality that jivas or embodied beings who fully renounce demoniac activities and exclusively engage in divine activities are awarded moksa or liberation from material existence and to grant the ability to clearly distinguish between the two; the Supreme Lord Krishna describes first the divine qualities and then the demoniac. At the conclusion of chapter 15 Lord Krishna explained that one realising the eternal spiritual truths stated their is situated in actual wisdom and accomplished in all duties both eternal and occasional. Now in this chapter Lord Krishna is clarifying by qualities exactly who is a recipient of this knowledge and established in wisdom and who is not. He first describes the qualities of those jivas or embodied beings situated within the divine nature possessing divine qualities and then He describes those jivas situated within the demoniac nature possessing demoniac qualities. It is only after the goal of an accomplishment has been ascertained that an assessment of the requirements and who is qualified for it can be determined. As the old adage from sage Kumarila Bhatta has foretold: Only after a load has been weighed can it be determined who is fit to carry it. So as the goal being the recipient of knowledge has been determined; the divine qualities that characterise an aspirant who is qualified are now being enumerated in these three verses beginning with abhayam meaning fearlessness, for in knowing one is eternal there is nothing to ever be afraid of. Other qualities are purity of heart, complete serenity of mind, steady absorption in knowledge of yoga or the individual consciousness attaining communion with the ultimate consciousness. Charity is sharing with others what is valuable to oneself. Self control of the mind, the senses and the organs of action. Performing and taking part in ritualistic activities which propitiate and glorify the Supreme Lord Krishna or any of His incarnations or expansions which are authorised in Vedic scriptures. Receiving instructions from the spiritual master and studying of the Vedic scriptures, singing Vedic hymns, chanting repetitively Vedic mantras or sacred incantations. Austerity and temperance in the habits and activities the physical body engages in. Enacting all activities without duplicity or deception. The word ahimsa means abstaining from injuring others by thought, word or deed. The one exception to this rule is when ones life and dependents are in danger. Truthfulness is relating the facts as they are and not as one wants them to be perceived. Absence of anger is calmness within the mind without agitation even when rebuked, attacked or in the process of defending oneself. Tyagah is renunciation of possessions and thus natural generosity. Tranquillity is complete control of the mind. Freedom from slander is absence of envy and retaliation. Compassion is kindness to all living beings especially when they are in distress. Non-covetousness is self satisfaction with what one has been allotted in life. Gentleness is absence of cruelty or harshness. Modesty is shyness in decorum and hesitancy in even the thought of wrong doing. Absence of fickleness is the avoidance of frivolous activities. Boldness is courage in asserting what is truth and defending righteousness. Forgiveness is not becoming upset by humiliation. Fortitude is steadying the mind when under great duress. Purity is external and internal cleanliness. The lack of conceit is absence of thinking of oneself egotistically. These 26 qualities related by Lord Krishna are characterised by one who is situated in the divine nature and thus qualified to attain association with the Supreme Lord and His devotees.
Hari OM! The Supreme Lord Krishna elaborately describes the qualities of the divine nature and then describes the demoniac nature to clearly distinguish between the two. The meritorious qualities of the divine nature which follows the nature of Brahma who as the secondary creator manifested all creatures is self evident. The emphasis is on the word tapasya meaning austerity. Adherence to brahminical qualities and attributes is itself an austerity. Ahimsa is non-violence to any being. Animosity is the intent to cause injury to others, it is the defect pointed out in rulers and military commanders. The Amarakosa dictionary mentions this as well. Kings and emperors ruling without fear by the strength of their might proudly regard all others as inferior. This is said to be arrogance. Tyagah is renunciation of possessiveness such as obsession with position, family, wealth, etc. The word ksama meaning tolerance is the state of mind which forgives and refrains from harming those who have caused harm.
In the previous three chapters the topics explained by the Supreme Lord Krishna were: 1) The essential nature of physical matter and spirit as the atma or immortal soul. 2) The fact that when the atma and physical matter are conjoined it is a result due to attachment to the gunas or three modes of material nature and when the atma is independent of matter it is a result due to being unattached to the gunas. 3) That both the atma and physical matter in whatever condition constitute two distinct aspects of the Supreme Lords potencies. 4) That the Supreme Lord as the source of all that exists yet is factually distinct and separate from all aspects of His creation both achit or matter and chit or spirit which are contained within Him. This includes every jiva or embodied being in all creation; both baddha-jivas who are bound and mukta-jivas who are liberated. The Supreme Lord possesses all transcendental and divine powers such as: immortality, sovereignty, omnipotence, omniscience, omni-presence, etc. Lord Krishna will substantiate the reality of what has previously been declared in accordance to the ordinances and injunctions of the Vedic scriptures which are the absolute authority. This is done by initiating a comparison between the divine nature and the demoniac nature as it is verified throughout creation. The divine nature expresses complete allegiance to righteousness and adherence to the authority of the Vedic scriptures. The demoniac nature does not follow righteousness, neither does it accept the absolute authority of the Vedic scriptures; contrarily adopting inauspicious activities befitting impure concoctions and unrighteous conceptions. Lord Krishna begins by describing the 26 divine qualities: 1) abhayam is fearlessness due to the absence of anxiety which arises from the dread of harm to the physical body or the prospect of losing what is precious. 2) sattva-samsuddhih is purification of ones existence and denotes purity of heart consisting of pure goodness undefiled with the taint of passion and ignorance. 3) jnana-yoga-vyavasthitih means situated in the knowledge of devotion resulting from discriminating the atma or immortal soul from physical matter as the individual consciousness attains communion with the ultimate consciousness. 4) danam is the charity given to worthy recipients from what one legitimately owns. 5) damah is self restraint, controlling the mind to be uninfluenced by sense objects. 6) yagna is Vedically authorised ritualistic ceremonies in propitiation and devotion to the Supreme Lord Krishna exclusively for His satisfaction without any self interests. This also applies to His authorised incarnations and expansions. 7) svadhyayah is devoted study of Vedic scriptures, knowing that they alone teach the glories of the Supreme Lord and are the quintessence of all that is spiritual. 8) tapas is austerity and penance. Performing expiatory activities is a duty for all human beings such as Ekadasi which is mandatory fasting from all grains on the 11th day of the waxing and waning moons. As well there are occasional expiatory activities such as candrayana which are fasts synchronised with the cycles of the moon and also kricchra which is extreme ascetic penance performed under very hot or very cold conditions and prajapatya and santapana. Such activities purifies an aspirant and prepares and qualifies them for devotion to the Supreme Lord. 9) arjavam is simplicity, straight forwardness to others in thought, word and deeds. 10) ahimsa is non-violence to all living entities by thought, word and deed. 11) satyam is truthfulness verily speaking what is true that is beneficial to all beings. 12) akrodah is freedom from anger due to absence of resentment for others. 13) tyagah is renunciation of whatever is opposed to atma-tattva or soul realisation. o 14) santih is tranquillity, keeping the senses peaceful and impervious to agitation. 15) apaisunam is aversion to fault finding and slandering others even if warranted. 16) daya is mercy, sympathy for life, empathy for the distress and misery of others. 17) aloluptvam is absence of greed for sense gratification. 18) mardavam is gentleness and humility which is appropriate for saintly association. 19) hrih is modesty, the feeling of shame at the thought of anything inappropriate. 20) acapalam is determination to remain firm against temptations presented to one. 21) tejas is radiance, luster. The illustrious proof of the efficacy of spiritual practice. 22) ksama is forgiveness. The absence of vengeful feelings against those harmed by. 23) dhritih is fortitude. The capacity for righteousness while enduring great duress. 24) saucam is cleanliness both internally and externally to be spiritually worthy. 25) adrohah is absence of envy, non-interference in the interests of others. 26) natimanita absence of false ego, lack of desire for honour and prestige. The divine qualities and nature are for those aspiring to activate their divinity following the time tested eternal, divine ordinances and injunctions as revealed in the Vedic scriptures by the Supreme Lord Krishna. Their virtues of these 26 qualities are revealed by following them and living them in this manner. The word abhijatasya refers to those who were born with the divine nature destined to follow the divine path and who are naturally in harmony with divinity.
In the previous three chapters the topics explained by the Supreme Lord Krishna were: 1) The essential nature of physical matter and spirit as the atma or immortal soul. 2) The fact that when the atma and physical matter are conjoined it is a result due to attachment to the gunas or three modes of material nature and when the atma is independent of matter it is a result due to being unattached to the gunas. 3) That both the atma and physical matter in whatever condition constitute two distinct aspects of the Supreme Lords potencies. 4) That the Supreme Lord as the source of all that exists yet is factually distinct and separate from all aspects of His creation both achit or matter and chit or spirit which are contained within Him. This includes every jiva or embodied being in all creation; both baddha-jivas who are bound and mukta-jivas who are liberated. The Supreme Lord possesses all transcendental and divine powers such as: immortality, sovereignty, omnipotence, omniscience, omni-presence, etc. Lord Krishna will substantiate the reality of what has previously been declared in accordance to the ordinances and injunctions of the Vedic scriptures which are the absolute authority. This is done by initiating a comparison between the divine nature and the demoniac nature as it is verified throughout creation. The divine nature expresses complete allegiance to righteousness and adherence to the authority of the Vedic scriptures. The demoniac nature does not follow righteousness, neither does it accept the absolute authority of the Vedic scriptures; contrarily adopting inauspicious activities befitting impure concoctions and unrighteous conceptions. Lord Krishna begins by describing the 26 divine qualities: 1) abhayam is fearlessness due to the absence of anxiety which arises from the dread of harm to the physical body or the prospect of losing what is precious. 2) sattva-samsuddhih is purification of ones existence and denotes purity of heart consisting of pure goodness undefiled with the taint of passion and ignorance. 3) jnana-yoga-vyavasthitih means situated in the knowledge of devotion resulting from discriminating the atma or immortal soul from physical matter as the individual consciousness attains communion with the ultimate consciousness. 4) danam is the charity given to worthy recipients from what one legitimately owns. 5) damah is self restraint, controlling the mind to be uninfluenced by sense objects. 6) yagna is Vedically authorised ritualistic ceremonies in propitiation and devotion to the Supreme Lord Krishna exclusively for His satisfaction without any self interests. This also applies to His authorised incarnations and expansions. 7) svadhyayah is devoted study of Vedic scriptures, knowing that they alone teach the glories of the Supreme Lord and are the quintessence of all that is spiritual. 8) tapas is austerity and penance. Performing expiatory activities is a duty for all human beings such as Ekadasi which is mandatory fasting from all grains on the 11th day of the waxing and waning moons. As well there are occasional expiatory activities such as candrayana which are fasts synchronised with the cycles of the moon and also kricchra which is extreme ascetic penance performed under very hot or very cold conditions and prajapatya and santapana. Such activities purifies an aspirant and prepares and qualifies them for devotion to the Supreme Lord. 9) arjavam is simplicity, straight forwardness to others in thought, word and deeds. 10) ahimsa is non-violence to all living entities by thought, word and deed. 11) satyam is truthfulness verily speaking what is true that is beneficial to all beings. 12) akrodah is freedom from anger due to absence of resentment for others. 13) tyagah is renunciation of whatever is opposed to atma-tattva or soul realisation. o 14) santih is tranquillity, keeping the senses peaceful and impervious to agitation. 15) apaisunam is aversion to fault finding and slandering others even if warranted. 16) daya is mercy, sympathy for life, empathy for the distress and misery of others. 17) aloluptvam is absence of greed for sense gratification. 18) mardavam is gentleness and humility which is appropriate for saintly association. 19) hrih is modesty, the feeling of shame at the thought of anything inappropriate. 20) acapalam is determination to remain firm against temptations presented to one. 21) tejas is radiance, luster. The illustrious proof of the efficacy of spiritual practice. 22) ksama is forgiveness. The absence of vengeful feelings against those harmed by. 23) dhritih is fortitude. The capacity for righteousness while enduring great duress. 24) saucam is cleanliness both internally and externally to be spiritually worthy. 25) adrohah is absence of envy, non-interference in the interests of others. 26) natimanita absence of false ego, lack of desire for honour and prestige. The divine qualities and nature are for those aspiring to activate their divinity following the time tested eternal, divine ordinances and injunctions as revealed in the Vedic scriptures by the Supreme Lord Krishna. Their virtues of these 26 qualities are revealed by following them and living them in this manner. The word abhijatasya refers to those who were born with the divine nature destined to follow the divine path and who are naturally in harmony with divinity.
Ahimsaa satyamakrodhas tyaagah shaantirapaishunam; Dayaa bhooteshvaloluptwam maardavam hreerachaapalam.
śhrī-bhagavān uvācha—the Supreme Divine Personality said; abhayam—fearlessness; sattva-sanśhuddhiḥ—purity of mind; jñāna—knowledge; yoga—spiritual; vyavasthitiḥ—steadfastness; dānam—charity; damaḥ—control of the senses; cha—and; yajñaḥ—performance of sacrifice; cha—and; svādhyāyaḥ—study of sacred books; tapaḥ—austerity; ārjavam—straightforwardness; ahinsā—non-violence; satyam—truthfulness; akrodhaḥ—absence of anger; tyāgaḥ—renunciation; śhāntiḥ—peacefulness; apaiśhunam—restraint from fault-finding; dayā—compassion; bhūteṣhu—toward all living beings; aloluptvam—absence of covetousness; mārdavam—gentleness; hrīḥ—modesty; achāpalam—lack of fickleness; tejaḥ—vigor; kṣhamā—forgiveness; dhṛitiḥ—fortitude; śhaucham—cleanliness; adrohaḥ—bearing enmity toward none; na—not; ati-mānitā—absence of vanity; bhavanti—are; sampadam—qualities; daivīm—godly; abhijātasya—of those endowed with; bhārata—scion of Bharat