त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।16.21।।
।।16.21।।काम? क्रोध और लोभ -- ये तीन प्रकारके नरकके दरवाजे जीवात्माका पतन करनेवाले हैं? इसलिये इन तीनोंका त्याग कर देना चाहिये।
।।16.21।। काम? क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं? इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।।
।।16.21।। व्याख्या -- कामः क्रोधस्तथा लोभस्त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम् -- भगवान्ने पाँचवें श्लोकमें कहा था कि दैवीसम्पत्ति मोक्षके लिये और आसुरीसम्पत्ति बन्धनके लिये है। तो वह आसुरीसम्पत्ति आती कहाँसे है जहाँ संसारकी कामना होती है। संसारके भोगपदार्थोंका संग्रह? मान? बड़ाई? आराम आदि जो अच्छे दीखते हैं? उनमें जो महत्त्वबुद्धि या आकर्षण है? बस? वही मनुष्यको नरकोंकी तरफ ले जानेवाला है। इसलिये काम? क्रोध? लोभ? मोह? मद और मत्सर -- ये ष़ड्रिपु माने गये हैं। इनमेंसे कहींपर तीनका? कहींपर दोका और कहींपर एकका कथन किया जाता है? पर वे सब मिलेजुले हैं? एक ही धातुके हैं। इन सबमें काम ही मूल है क्योंकि कामनाके कारण ही आदमी बँधता है (गीता 5। 12)।तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनने पूछा था कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों करता है उसके उत्तरमें भगवान्ने काम और क्रोध -- ये दो शत्रु बताये। परन्तु उन दोनोंमें भी एष शब्द देकर कामनाको ही मुख्य बताया क्योंकि कामनामें विघ्न पड़नेपर क्रोध आता है। यहाँ काम? क्रोध और लोभ -- ये तीन शत्रु बताते हैं। तात्पर्य है कि भोगोंकी तरफ वृत्तियोंका होना काम है और संग्रहकी तरफ वृत्तियोंका होना लोभ है। जहाँ काम शब्द अकेला आता है? वहाँ उसके अन्तर्गत ही भोग और संग्रहकी इच्छा आती है। परन्तु जहाँ काम और लोभ -- दोनों स्वतन्त्ररूपसे आते हैं? वहाँ भोगकी इच्छाको लेकर काम और संग्रहकी इच्छाको लेकर लोभ आता है और इन दोनोंमें बाधा पड़नेपर क्रोध आता है। जब काम? क्रोध और लोभ -- तीनों अधिक बढ़ जाते हैं? तब मोह होता है।कामसे क्रोध पैदा होता है और क्रोधसे सम्मोह हो जाता है (गीता 2। 62 -- 63)। यदि कामनामें बाधा न पड़े? तो लोभ पैदा होता है और लोभसे सम्मोह हो जाता है। वास्तवमें यह काम ही क्रोध और लोभका रूप धारण कर लेता है। सम्मोह हो जानेपर तमोगुण आ जाता है। फिर तो पूरी आसुरी सम्पत्ति आ जाती है।नाशनमात्मनः -- काम? क्रोध और लोभ -- ये तीनों मनुष्यका पतन करनेवाले हैं। जिनका उद्देश्य भोग भोगना और संग्रह करना होता है? वे लोग (अपनी समझसे) अपनी उन्नति करनेके लिये इन तीनों दोषोंको हितकारी मान लेते हैं। उनका यही भाव रहता है कि हम लोग काम आदिसे सुख पायेंगे? आरामसे रहेंगे? खूब भोग भोगेंगे। यह भाव ही उनका पतन कर देता है।तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् -- ये काम? क्रोध आदि नरकोंके दरवाजे हैं। इसलिये मनुष्य इनका त्याग कर दे। इनका त्याग कैसे करे तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर राग (काम) और द्वेष (क्रोध) स्थित रहते हैं। साधकको चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो। वशीभूत न होनेका अर्थ है कि काम? क्रोध? लोभको लेकर अर्थात् इनके आश्रित होकर कोई कार्य न करे क्योंकि इनके वशीभूत होकर शास्त्र? धर्म और लोकमर्यादाके विरुद्ध कार्य करनेसे मनुष्यका पतन हो जाता है। सम्बन्ध -- अब भगवान्? काम? क्रोध और लोभसे रहित होनेका माहात्म्य बताते हैं --
।।16.21।। स्वर्ग सुखरूप है? तो नरक दुखरूप। अत इसी जीवन में भी मनुष्य अपनी मनस्थिति में स्वर्ग और नरक का अनुभव कर सकता है। शास्त्र प्रमाण से स्वर्ग और नरक के अस्तित्व का भी ज्ञान होता है। इस श्लोक में नरक के त्रिविध द्वार बताये गये हैं। इस सम्पूर्ण अध्याय का प्रय़ोजन मनुष्य का आसुरी अवस्था से उद्धार कर उसे निस्वार्थ सेवा तथा आत्मानन्द का अनुभव कराना है।काम? क्रोध और लोभ जहाँ काम है वहीं क्रोध का होना स्वाभाविक है। किसी विषय को सुख का साधन समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करने से उस विषय की कामना उत्पन्न होती है। यदि इस कामनापूर्ति में कोई बाधा आती है? तो उससे क्रोध उत्पन्न होता है। यदि कामना तीव्र हो? तो क्रोध भी इतना उग्र रूप होता है कि वह जीवन की नौका को इतस्तत प्रक्षेपित कर? छिन्नभिन्न करके अन्त में उसे डुबो देता है।यदि कामना पूर्ण हो जाती है? तो मनुष्य का लोभ बढ़ता जाता है और इस प्रकार? उसकी शक्ति का ह्रास होता जाता है। असन्तुष्टि का वह भाव लोभ कहलाता है? जो हमारे वर्तमान सन्तुष्टि के भाव को विषाक्त करता है। लोभी पुरुष को कभी शान्ति और सुख प्राप्त नहीं होता? क्योंकि असन्तोष ही लोभ का स्वभाव है।काम? क्रोध और लोभ के इस क्रिया प्रतिक्रिया रूप संबंध को हम समझ लें? तो भगवान् का निष्कर्ष हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।इन तीनों के त्याग की स्तुति करते हुए कहते हैं
16.21 This door of hell, which is the destroyer of the soul, is of three kinds-passion, anger and also greed. Therefore one should forsake these three.
16.21 Triple is the gate of this hell, destructive of the self lust, anger and greed; therefore one should abandon these three.
16.21. To the hell, three-fold is the gate that ruins the Self : [They are] desire, anger as well as greed. Hence one should avoid these three.
16.21 त्रिविधम् triple? नरकस्य of hell? इदम् this? द्वारम् gate? नाशनम् destructive? आत्मनः of the self? कामः lust? क्रोधः anger? तथा also? लोभः greed? तस्मात् therefore? एतत् this? त्रयम् three? त्यजेत् (one) should abandon.Commentary Lust? anger and greed? -- these highway robbers will cause a man to fall into the dark abyss of hell? misery or grief. These are the three fountainheads of misery. These three constitute the gateway leading to the lowest of hells. These are the enemies of peace? devotion and knowledge. When these evil modifications of the mind arise in it? man loses his balance or poise and discrimination and commits various evil actions.Lust? anger and greed denote selfblindness and ignorance? for there are no Vasanas? wants? anger? or greed in Brahman or the pure immortal Self.Narakasya dvaram The gate to hell The gate leading to hell. The self is destroyed by merely entering at the gate? i.e.? it is not fit to do any right exertion to attain the goal of life.As this gate causes selfdestruction? let everyone renounce these three. (Cf.III.47)In the next verse the man who has abandoned these three evils is highyl eulogised.
16.21 Idam, this; dvaram, door; narakasya, of hell-for entering it; which is the nasanam, destroyer; atmanah, of the soul; is trividham of three kinds. It is that by the mere entry into which the soul perishes, i.e., it ceases to be fit for attaining any human goal. hence it is said that it is the door which is the destroyer of the soul. Which is that? Kamah, passion; krodhah, anger; and also lobhah, greed. Tasmat, therefore; tyajet, one shoud forsake; etat trayam, these three. Since this door is the destroyer of the soul, therefore one should renounce this group of three-passion etc. This is a eulogy of renunciation.
16.21 See Coment under 16.22
16.21 Those three which constitute the gateway of this hell in the shape of demoniac nature, and are destructive of the self (Atman) - are known as desire, wrath and greed. The nature of these has already been explained. Gateway (Dvara) means the path, the cause. Therefore, one should renounce these three. Therefore, since they constitute the cause of the extremely dreadful Naraka, one should wholly renounce this triad - desire, wrath and greed.
Thus the Lord has described the nature of the asura in detail. The Lord has also said, “Do not worry, O Arjuna, you are of the divine nature.” Then he says that there are only three basic tendencies of the asuras in this verse.
Lord Krishna concisely enunciates that lust, greed and anger are the three gates leading straight to hell. All the demoniac vices and characteristics iterated previously are the symptoms of lust, greed and anger which are the root cause and basis of all the others. These three are very destructive and degenerative for a human being completely obscuring discrimination and the consciousness of the atma or immortal soul and hence to be shunned and avoided by all means, for their influence propels one directly into lower, debased life forms and reincarnations in hellish existences. So lust, greed and anger must be renounced, abandoned and rejected if one wants to avoid residing in hell.
Lord Krishna confirms that the demoniac nature is in itself a hellish condition of life perpetuating more and more degraded hellish existences. The three portals to hellish existence are lust, greed and anger which completely destroy and ruin all opportunities for advancing in spiritual consciousness. Lust, greed and anger are the foundations for all the other vices and sinfulness described previously which run rampant among the demoniac. The word dvaram means portal and gate inferring the cause. The words nasanam atmanah means destructive or even suicidal denoting how utterly negative lust, greed and anger are in evolving the consciousness to commune with the immortal soul. Therefore Lord Krishna emphasizes that lust, greed and anger must be permanently abandoned, fully relinquished and completely neutralised since these three voracious vices comprise the cause that leads a jiva or embodied being directly to dreaded naraka or the hellish planets.
Lord Krishna confirms that the demoniac nature is in itself a hellish condition of life perpetuating more and more degraded hellish existences. The three portals to hellish existence are lust, greed and anger which completely destroy and ruin all opportunities for advancing in spiritual consciousness. Lust, greed and anger are the foundations for all the other vices and sinfulness described previously which run rampant among the demoniac. The word dvaram means portal and gate inferring the cause. The words nasanam atmanah means destructive or even suicidal denoting how utterly negative lust, greed and anger are in evolving the consciousness to commune with the immortal soul. Therefore Lord Krishna emphasizes that lust, greed and anger must be permanently abandoned, fully relinquished and completely neutralised since these three voracious vices comprise the cause that leads a jiva or embodied being directly to dreaded naraka or the hellish planets.
Trividham narakasyedam dwaaram naashanamaatmanah; Kaamah krodhastathaa lobhas tasmaadetat trayam tyajet.
tri-vidham—three types of; narakasya—to the hell; idam—this; dvāram—gates; nāśhanam—destruction; ātmanaḥ—self; kāmaḥ—lust; krodhaḥ—anger; tathā—and; lobhaḥ—greed; tasmāt—therefore; etat—these; trayam—three; tyajet—should abandon